Fri. Apr 19th, 2024

 आदर्शों की सीमा है भगवान रामचन्द्र

 इस शीर्षक के चार शब्द क्रमशः आदर्श सीमा , भगवान और राम अपनी गुणवत्ता और महत्ता के लिए सारे जगत म विख्यात हैं । राम के साथ भगवान जुड़ा है जिन्हें आदर्शों की सीमा कहकर सम्बोधित किया गया है । हम जिन्हें भगवान कहते हैं उन्हें अगर महान पुरुष कहें , तो अन्तर नही पड़ता । अन्तर इतना ही है कि महान पुरुष किसी खास आदर्श के पालन के कारण माने जाते हैं जबकि भगवान संज्ञा उन्हें मिलती है जो आदर्शो की खान या भंडार समझे जाते हैं । जिनकी तुलना किसी से न हो , जैसे युग पुरुष भगवान की संज्ञा पाते हैं ।

 शास्त्रों – पुराणों में प्रमाण है कि हर युग में जगत के कल्यानार्थ एवं पापियों के नाश के लिए ईश्वर अनेक रूपों में प्रकट होकर मानवता की रक्षा कर पाये । यह मान्यता तो है ही , प्रत्यक्ष रुप से भी पाया गया है । पापवृत्ति या सद्वृत्ति जगत में पूर्व जन्म के संस्कार वश पलते और फलते – फूलते है जिन्हें सुखद और दुखद दोनों ही रुपों में मानव ग्रहण करता है । ऐसा अनुभव में अवश्य ही आता है किन्तु कुसंस्कृति का विकास जब पराकाष्ठा पा लेता है तो महान नेतृत्व की अपेक्षा की जाती है । अपसंस्कृति और अकल्याण से आतुर असंख्य आत्माओं की पुकार जब जनजन की आवाज बनती है तो एक महान पुरुष निदान और विधान के साथ खड़ा होता है । जन सहयोग से उर्जा और समर्थन पाकर परामात्म शक्ति का अवतरण धरती पर होना स्वाभाविक लगता है ।

 रामावतार त्रेता युग में हुआ था , जब यहाँ पर दानव कुलाधीश दशशीश रावण लंका का राजा था । उसने धरती पर देवताओं और ब्राह्मणों पर अत्याचार और आतंक फैलाया , जैसा आज भी अपने देश में अनीति , अन्याय और अत्याचार का बोल वाला है । ऐसी ही विकट परिस्थिति आ पड़ी थी सुर – नर – मुनि , गन्धर्व , गौ , धरती और ब्राह्मणा पर राक्षस प्रबल बन चुके थे । देवताओं का वश न चलता था , जैसा आज मानवता पर संकट छाया हुआ है । इस जगत के रचयिता ब्रह्मा , पालक विष्णु तथा संहारक शक्ति सम्पन्न भगवान शिव की चर्चा ग्रन्थों में की गयी है । वही जगत के पालक भगवान विष्णु के अवतार अवध पति दशरथ के पुत्र राम हैं । मैं न धर्म ग्रंथों का ज्ञाता हूँ न व्याख्याता । मैं अगर कहूँ कि रामचरित सुनने और जानने की रुचि मुझमें रही तो यह बिल्कुल थोथी बात होगी ।

 इस बृद्धपन तक भी मैंने न व्रत , न पूजा , न भक्ति न सतसंगति ही की । एक हल्का – सा विश्वास , और रामायण में रुचि मुझे जग पायी वर्ग दशन में पढ़ते समय । उसको मैंट्रिकुलेशन की परीक्षोपरान्त एकबार पढ़ा था । कोर्स की पुस्तकों में विविध वर्गो में बालचरित , विश्वामित्र के पास रामचन्द्र और लक्ष्मण का जाना , राम बन गमन , केवट राम संवाद , सीताहरण , वर्षा वर्णन , राम विलाप , राम राज्य , तथा सन्त असन्त लक्षण विविधत पढ़ा था । बीच – बीच में भी यथा समय यत्र – तत्र के संदर्भ पर ध्यान गया हो । कुछ श्रद्धावान लोगों के मुख से भी सुना हूँ । एकवार मुझे बाल्मीकि रामायण को पढ़ने का अवसर मिला है किन्तु ठीक से अधिगमन नहीं हो पाया । यदा – कदा मन में न तो नवाह पारायण एवं मास वारायण के रुप में पाठन किया । इतना ही कहूँगा कि रामचरित मानस के प्रति लगाव मन में बना रहा है । उसे मैं भगवान रामचन्द्र जी की कृपा मानूं या उनकी माया का कुहासा मात्र कहूँ या गोस्वामी जी की काव्य कला के प्रति मेरा रुझान , लेकिन मैं मिला – जुलाकर राम तत्त्व का प्रमाण अवश्य पाता हूँ जिसके बल पर मुझमें इस बिन्दु पर मनन चिन्तन , पठन अध्ययन तथा लेखन में रुचि बन पायी है । मैं न नियमित पाठक रहा न वाचक , श्री राम कृपा का एक पावन प्रसाद मान रहा हूँ कि मुझम अध्ययन और लेखन में रुचि अवश्य जगी , जिससे कुछ सकारात्मक पहलुओं पर मेरी दष्टि गयी और उन्हें लिपिवद्ध कर प्रकाशित करा पाया । उनमें प्रथम रही ” मानव जीवन में श्रीमदभग्वदीता- ” प्रवृत्ति और निष्पति ” जिसे अष्टम एवं नवम वर्ग के छात्रों के लिए तैयार किया था । दूसरी लघु पुस्तक ” घर की बातें ” मैंने अपनी प्रथम पुत्री मधुवाला पर सरल – सुगम निदेशन दिया गया है । तिसरी – द्वितीय पुत्री गीता को- “ जीवन के मोड़ पर ” चौथी- ” परिवार- ” तृतीय पुत्री शशिवाला को पाँचवी “ उपहार ” 4 थी पुत्री रुबी को तथा छठी पुस्तक- ” आशा ” अपनी पुत्र वधू रंजिता को समर्पित की है । अन्य पुस्तकों में हिन्दी में ” साधना कलश ” आध्यात्मिक पुस्तक ” युग धर्म ” ” सप्त शतक ” ( जीवन दर्शन ) ” काव्य किश्लय ” ” काव्य मंजरी ” ( बाल कविताएँ ) कुछ रचनाएँ हिन्दी एवं अंग्रेजी में ( होमियोपैथी की ) । शिक्षण में सुधार पर एक वृहद पुस्तक हिन्दी में ” जन शिक्षण में अभिव्यक्ति की यथार्थता ” राष्ट्रपति महोदय का समर्पित एक अति उपयोगी पुस्तक । अन्य पांडुलिपियाँ जिनमें नाटक , एकांकी , उपन्यास , काव्य और सामाजिक रचनाएँ है ।

 उसी क्रम में 2013 में प्रखर रुप से भारत की शिक्षा व्यवस्था में आयी गुणवत्ता में गिरावट पर जब देश के शीर्ष नेतृत्व में चिन्ता व्याप्त हुयी तो इस दिशा मे उसे एक जीवनीय चेतना का उद्भव माना और यही से शिक्षा सुधार की रश्मि फैलाने का संकल्प लिया । मूल्य परक शिक्षण पर व्यापक दृष्टिकोण अपनाये जाने और उसे सफल कार्यान्वयन पर शोधात्मक पहल पर व्याख्यान मालाएँ आयोजित की गई जिसमें शिक्षण के भारतीय सांस्कृतिक परम्परा को आधार में सुढ़ता प्रदान करने , अनुशासन , नैतिकता और कर्त्तव्य बोध पर आदर्शात्मक पहल करने का विधान निर्देशित किया गया ।

 जिन भावनाओं की दृष्टि मैंने अपनी प्रवेशिका परीक्षा की पूर्णता तक राम चरित मानस के अधिगम के रुप में पायी थी , उसका प्रवेश वर्तमान शिक्षा सुधार का मार्ग मानकर ” सकारात्मक शिक्षा पुर्नस्थापना एवं प्रसार कार्यक्रम ” तैयार किया और सरकार को समर्पित किया । यह सोचा गया कि मूल्य परक शिक्षण में राम के आदर्शमय चरित्र को विस्मृत नही किया जा सकता । अगर शिक्षण के साथ तुलसीदास कृत राम चरित मानस को जैया कि गोस्वामी जी ने स्वान्तः सुखाय रचना कर राम राज्य की स्थापना की कल्पना कर रखी है उसे साकार करने हेतु शुद्ध हिन्दी भाषा में स्वरुपस्थ कर अति सुगम रुप में प्रस्तुत किया जाय तो आज राम का आदर्श प्रस्तुत किया जाय , तो आज राम का आदर्श जो ” अग्रत ‘ सकलंशास्त्रं पष्ठतः सरारः धनु ” है ,

 वह जब – जब के हृदय को संवेदित कर पाये साथ ही रामादर्श भारत के जन – जन से लेकर कण – कण में निवास करे तब सार्थक हो पायेगा

 ” सियाराम मय सब जग जानी । करौ प्रणाम जोरिजुग पानी ।। “

 मेरी उस शैक्षिक अवधारणा में जैसा मैंने उद्देश्य समझा और शिक्षा के वर्तमान सुधारात्मक लक्ष्य पर दृष्टि पात किया है राम चरित मानस की प्रासंगिकता विचारणीय एवं अनिवार्य है । इसी हेतु मैंने –

 ” राम चरित मानस – एक अनुशीलन ” के प्रणयन का प्रारंभ साधना के रुप में दिनांक 25 सितम्बर 2018 को राम चरित मानस के अध्ययन और लेखन क साथ किया जो 12 दिसम्बर 2018 बुधवार अग्रहण शुक्ल पक्ष पंचमी ( राम विवाहोत्सव ) के दिन पूर्ण हुयी ।

 – : ध्यातव्य : –

 यद्यपि वर्तमान परिदृश्य में धरती की घटनाओं और उस पर होने वाल व्यवहारों से समाज को धर्म के प्रति दिखावा बढ़ा है । विश्वास जगा नही है , घटा है । धर्म विवादित और स्वांग बन गया है । वह ओट में छिपकर अपराध करने का एक सुगम स्त्रोत तक माना जा चुका है किन्तु इतिहास को झाँके तो आध्यात्म जगत में इस कल्प के विविध काल खण्डों ( युगों ) के अवतारों में एक ही युग पुरुष राम हुए है जिन्हें मयार्दा पुरुषोत्तम का गौरव प्राप्त है । वे शील और गुणों के भंडार दुष्टों का दलन मात्र नहीं , उनका उद्धार ( मुक्ति , सदगति और अपनी भक्ति तक देने वाले ) करने वाले , प्रणत ( शरणागत ) पालक , नीति ज्ञान , शौर्य , धैर्य , प्रण पालन , आज्ञापालन , धर्म धुरंधर , भक्त वत्सल , भगवान शिव में रत औरगुरु में भक्ति का निर्वाह करने वाले है । विष्णु का अवतार भी अनेकों बतलाये गये है जिनका प्रसंग काकभुशुण्डि जी ने गरुड़ जी से कहा है । शंकर जी ने भी पार्वती जी से कही है । अगर विश्व की आने वाली पीढ़ियाँ राम तत्व की पहचान और अवधान अपने ज्ञान में लाये तो कल्पान्त तक मानव जीवन का कल्याण सम्भव होगा । इसमें किच्चित संदेह नहीं किया जा सकता ।

 अगर हम राम चरित मानस को इतिहास माने तब भी सार्थक है । अध्ययन और मनन का विषय बनता है । अगर आदर्श रुप आख्यान है तब भी मान्य और अपनाने योग्य है । अगर चिन्तन है , ( कल्पना या इमैजिनेशन ) तो इस का भविष्य भी होना विश्वास का विषय बनता है । इसे हम विज्ञान की परिकल्पना ( Hyotheiss विचारधारा ) या पूर्वानमान भी कह सकते हैं किन्तु यह शिव वाणो होने से सत्य और मर्यादित सिद्ध हो चुका है । जनश्रुति माने या सत्य , यह भी रामचरित मानस में सन्निद्ध है कि काशी के विश्वनाथ मंदिर में रखी राम चरित मानस की पांडुलिपि पर ” सत्य शिवम् सुन्दरं ” लिखा पाया गया , जहाँ भगवान शंकर के हस्ताक्षर भी अंकित थे ।

 हम इसे अतर्वय – सी , या ही , अथवा नहीं , माने तो कोई भूल न होनी चाहिए । जब राम परमब्रह्म , अज , अनादि , सर्वत्यागी , परमानन्द धन और जगत को विश्राम देने वाले है तो हम देहधारी के सारे दोष दूषण को भूषण बनाने वाले राम ही क्षमा करेंगे । लेकिन मेरा तो हठ होगा कि मुझे क्षमा न भी करें तो अग्रिम पीढ़ी के लिए कल्पतरु बने रहे ।

 इस सृष्टि में मात्र मानव ही अपनी चेतना के वशीभूत सुख – दुख के प्रति अपना मन दौडाता रहता है । कष्टों में वह कातर होता है । निदान ढूढ़ता है । असफलता पर दुखी होता है । जब लौकिक जगत से आश्रय नहीं पाता है अलौकिक शक्ति के शरणागत हो त्राहिमाम बोलता है ।

 आवश्यकता आविष्कार की जननी है । कष्ट उसकी समस्या है । छुटकारा पाने की अभीप्सा परम पिता की ओर प्रेरित करती है । पिता जो लौकिक है वह पुत्र से स्वार्थ की कामना करता है ।

 त्रिगुण का प्रपंच ज्ञान से विवेक को दूर रखा है , इस हेतु ज्ञान पर भी अन्धकार छाया हुआ है । बहुत कम ही लोग है जो सत्य की परख रखते है । हमारी निजता की अवधारणा में स्वार्थ की गंध है । इस हेतु परमार्थ पर ताले लग गये । अब हम जाये कहाँ ? कल्याण का मार्ग दिखता नहीं । वह सर्वव्यापी भगवान भी कैसे पहचाने जायें जिनकी शरण लूँ । वह भी निर्गुण सगुण में बंधे है । अब सगुण की बात छोड़िये । तो फिर निर्गुण से संवाद तो हमने सीखा नहीं , पागलपन में क्या बकता फिरूँ । भावना को शुद्ध कर कोई कदम उठे , जो सृष्टि के हितार्थ सोचा गया हो , जो युग की मांग हो , तो वह सबकी पसंद और पुकार बनकर निखरेगी । यह सभी धर्मों की मान्यता है । जिस परम सत्ता को हमने सृष्टिकर्ता या विधाता मान रखा है उसकी पहचान के लिए हमारे पास विस्तृत दृष्टि चाहिए , सीमित नहीं । हमारी निजता का दृष्टि का क्षेत्रअगर सीमित है तो हम जगत पिता को कसे पहचान या अपना पायेंगे ? जो इस धरती पर अपने आप में सीमित या संलग्न , क्रियाशील है , भरा – पूरा है उसे किसी की अपेक्षा नहीं है किन्तु जो बेसहारा है या दुराचारी है तो ये दोनों ही समाज के बीच सोचनीय है । एक संकट में पड़ा है , दूसरा समाज को संकट में डालने वाला है । अगर दीन जन ईश्वर की शरण चाहें तो दीनानाथ को प्रकट होना होगा , क्योंकि वे जगत पिता हैं । दूसरे जो लाचारों को सताते हैं उनको सजा दिये बिना , अनाथों का कल्याण किए बिना उनकी सहायता सम्भव नहीं । अतः उन्हें क्षरणागत वत्सल की भूमिका निभानी होगी ।

 आज हम अपने समाज को अपसंस्कृतियों से गले मिलाकर चलते देख रहे है , इन विसंगतियों में मानवता मिट रही है । परिणाम यह है कि एक – एक परिवार तक उन विसंगतियों का शिकार ही नहीं बना रहा बल्कि उस अपसंस्कृति के विधान परिधान में आचरण का निर्माण पिछड़ा । जब भगवान का मंदिर दुराचारियों का घोसला बना तो भगवान को भी शिकारी बनना पड़ा । चलिए राम चरित मानस को अरण्यकांड में

 सीता परम रुचिर मृग देखा । अंग – अंग सुमनोहर वखा ।

 सुनहुँ देव रधुवीर कृपाला । एहु मृग कर अति सुन्दर छाला ।।

 उस अपसंस्कृति में भगवान भी जा फँसे । अन्तर्यामी राम की समझ में इस घटना का दूरगामी प्रभाव तक मानस को गंभीर रुप से झकझोड़ डाला । उन्होंने सीता को अग्नि में प्रवेश करने का आदेश दिया और अपनी लीला का दृश्य आगे बढ़ाते चले । ……… सीता का अपहरण हो गया । राम रावण युद्ध में रावण मारा गया । सोताजी को अग्नि से प्राप्त कर लिया गया ।

 राम अयोध्या के राजा बने । उनकी राज सभा में सीता पर चारित्रिक आक्षेप डाला गया । प्रभु रामचन्द्र जी ने सीता को वन में बाल्मीकि मुनि के आश्रम में रख डाला इस विषय पर बहुतेरे तर्क दिये जाते रहे किन्तु राम जीने उनके सीधे तर्क का तो जन भावना के सम्मान में उत्तर दे दिया किन्तु आपेक्ष डालने वालों ने क्या किया ? इसकी प्रतिक्रिया से समाज को गलत संदेश जाता है । किसी तर्क का समझौता उसका अपवाद निकालना नहीं होता । अगर सत्यतः उचित अनुचित का प्रश्न उठता तो बाल्मीकि मुनि राम को समझने के लिए पीछे नहीं पड़ते । सीताजी ने अपने आप को धरती माता की गोद में समर्पित कर तर्क का उचित उत्तर दे दिया , प्रश्न यही था कि पति की आज्ञा को शिरोधार्य करना और सतीत्त्व का प्रमाण प्रस्तुत करना । अब आप बतलायें कि राम आदर्शो की सीमा है या नहीं ?

 राजादशरथ अयोध्यापति होने का गौरव राम को बनवास देकर प्राप्त किया तो रामजी ने पिता की आज्ञा का पालन कर कुल की मर्यादा बचायी । राम ने भरत से भ्रातृत्व निभाया । अन्य तीनों भाई की तरह माता कैकेयी पर प्रतिक्रिया नहीं की , किन्तु माता की गलती को कुलधाती बताते हुए पुत्र भरत ने अवश्य ही दोषी ठहराया , जिसका आशय रहा परिवार सहित राज्य की जनता , सचिव सुमंत तथा पिता अवधनरेश पर विपत्ति का पहाड़ गिरना । राम जैसे सहनशील , धैर्यधारी , सबको सुख पहुँचाने वाले , पापियों को पापमुक्त कर देव लोक में स्थान दिये । पापियों का संहार कर अपनी शरण में ले लेना मात्र भाषा में हम समझ पाते है किन्तु अपनी शरण में ले लेना , स्वर्ग में स्थान देना अबतक मानव की समझ से दूर है । मुनियों द्वारा दिये गये शब्दों में सायुज्य , साल्लाक्य , सारुप्य और साहीच्य से कुछ – तात्पर्य दीखता है । वैसे देव रुप राम जो परम पिता परमेश्वर बतलाये गये है जो मानव देह धारी , राजा दशरथ की गोद में पुत्र बनकर खेलने वाले भी है , यह रहस्य देव लोक की महिमा बचाने और मुनियों सहित मानव की रक्षा करने वाले राम की नर लीला एक दिव्यैतिहासिक कथा है । जब राम का जन्म स्थल ( गर्भगृह ) आज भारत भूमि अयोध्या का साम्वैधानिक विषय बना हुआ है तो राम की मर्यादा हमारी संस्कृति का साक्ष्य भी बनता है ।

 अयोध्या , चित्रकूट , जनकपुरी , पंचवटी , रामेश्वरम , मथुरा , वृन्दावन , द्वारिका आदि आज भी दैविक विरासत सजीव दिखती है साथ ही हमें अपनी दशादुर्दशा पर विचारने के लिए आमंत्रित करती है । लंका , कुरुक्षत्र हल्दीधाटो , कलिंग और पलासी का रक्त पात और जालियाँवाला बाग आज हमें कहता है तुम कबतक मूक बने रहोगे ? जागों , अपने को पहचानों , स्वतंत्रता के अमर सेनानी पूज्य बापू के शब्द “ हे राम ” आज भी गूंज रहे है । भारतवासी राम के आवास का जीणोद्धार चाह रहे हैं किन्त रावण परिवार आज भी अग्रेजियत को , देशी फिरंगियों को श्रेय दे रहे है उन्होंने हमारी संस्कृति का गला घाट डाला है । इस संक्रान्ति काल का पतवार थामने के लिए एक नैतिक और आदर्शवादी नेतृत्त्व का आहवान चाहिए । मंथरा की कुमंत्रणा और कैकेयी के कोप भाजन राम चौदहवीं शताब्दी से चप है सोलहवी सताब्दी में जब वह मुगल सल्तनत के अधीन थे । आज हम स्वतंत्र होकर भी उन्हें विवादों के बीच कबतक खड़े देखते रहेंगे ? क्या देव नगरी आज सुसुप्ति नहीं तोड़ेगी ? क्या भारत की भूमि पर तुलसी दास का राम राज्य फिर बापू का राम राज्य प्रतिष्ठित हो पायेगा ? जब सरस्वती जी ने देवताओं का कष्ट हरण के लिए दो – दो वार अपनी मंत्रणा से संवदित कर “ सब सुर काज ” सफल कर पायी , क्या वह आज एक अरब तीस करोड़ जनतंत्र के सेवकों को अचेत ही छोडे रखेंगी ?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *