Mon. Nov 4th, 2024

 आध्यात्म दर्शन

 जीवन और जगत ऐसे दो शब्द हैं सृष्टि के जिनमें समाहित है एक इकाई मानव का कार्य कलाप और सम्पूर्ण सृष्टि कर्म विन्यास । इन्हीं से निकली है अनंत अपार ज्ञान सम्पदा और परिभाषित , प्रकाशित , प्रतिष्ठित जीव और ब्रह्म की सृष्टि जीव और ब्रह्म ही सत्ता की स्वीकृति ( शान रुप ) और दर्शन ( अनुभूति जन्य ) । यही है आध्यात्म दर्शन का शाब्दिक भाव या आध्यात्म चिन्तन के विषय ।

 जब हम धर्म आध्यात्म पर अपना मानस केन्द्रित करना चाहते है तो ईश्वर जैसी निर्गुण सत्ता सामने खड़ी दीखती है जिसके संबंध अनन्त दर्शन प्रस्तुत किये जाते है । अगर हम दैहिक काया से जुड़े एक वैसे सत्व को आधार बनाएँ जिनमें ईश्वरत्व और आध्यात्म के स्कुट चरित्र देखे जा सकते हैं तो समझना सरल होगा ।

 राष्ट्र कवि दिनकर के इन शब्दों में –

 संसार पूजता जिन्हें तिलक ,

 रोली फूलों के हारो से ।

 मैं उन्हें पूजता आया हूँ ,

 बापू अबतक अंगारों से ।

 यह – यहाँ मानव का चित्र जो मानवी संस्कृतिको दो विपरीत ध्रुवों पर लाकर रखा है ।

 सौरभयुक्त पुष्प हार , तप्त अंगार और शोणित की धार , मानवता के प्रति मानव का प्रतिकार , देखा गया है । सम्मान , कष्ट और हिंसा मानव के प्रति मानव का व्यवहार , पुरस्कार , प्रतिकार प्रहार और संहार उसके मानसिक आवेग मात्र है जिसका मूल कारण अविवेक है । मानव की विवेकपूर्ण भूमिका उपरोक्त आवेग के मूल में काम कर रहे कारणों और परिणामों के प्रति निवारणात्मक चिन्तन और प्रयास हो सकती है । मानव ही नहीं अखिल विश्व के जड़ – चेतन पदार्थो का मानव जीवन से संबंध , उपयोगिता , प्रभाव और उसके संरक्षण का ख्याल , चेतन मानव के मानयादर्शों की व्याख्या ही आध्यात्म दर्शन है ।

 ब्रह्मांडीय एकता ( समरसता ) ही प्रकृति का स्वरुप है , जीवन देह ओर आत्मा का संयोग मात्र है । इसे ही जीवन या आयु कहते है देह से आत्मा का विच्छेद ही मृत्यु है । जन्म मृत्यु का रहस्य , जीवन का लक्ष्य , सृष्टि का विधान , मन , बुद्धि एवं अहंकार , पंचतत्त्व का विधान , त्रिगण की भूमिका , कर्म और संस्कार , समष्टि जगत और व्यष्टि ( इकाई जीव ) की एकता परमेश्वर की अवधारणा पर ठोस चिनतन , आस्तिक – नास्तिक – भाव – भेद , का प्रत्यक्षीकरण या कल्पना , चित्तवृत्ति ( मनोभाव ) का मन और इन्द्रियों से संबंध , मन के वाहक और इन्द्रियों के प्रेरक , नियन्त्रक , योग और समाधि , ज्ञान के विविध स्तर , मन और इन्द्रियों की बुभुक्षा और भोग , स्थूल और सूक्ष्म भोग , लोक और परलोक , भ्रम या सत्य , ब्रह्म सत्ता की स्वीकृति , क्या सच्चिदानन्द स्वरुप जीवन से परे कोई सत्ता है या कल्पना या आभास ? उपरोक्त भाव भूमि का निदर्शन जीवन जीने के लिए आवश्यक प्रतीत होता है या मुक्ति मार्ग में साधन बनता है या आत्मलीन . ब्रह्मलीन , ब्रह्मसाक्षात्कार में प्रतिफलित होता है क्या यह प्रकट ( दृश्य ) य स्वानुभवगम्य मात्र ( व्यक्तिगत भाव ) आनन्द बोध है । अब तक के अध्ययन मात्र से मैं जो सोच पाया . उसका सार रूप यही आध्यात्म चिंतन कहें या आध्यात्म दर्शन । मेरा स्वानुभव यह स्वीकारता है कि मानव जीवन के समानान्तर धर्म और आध्यात्म सहचारी भाव है जो सुखद , शान्तिदायक और ज्ञान को प्रकाशित करने वाला है । यह न स्वर्ग न भग्वददर्शन का प्रत्यक्ष मार्ग है ।

 अगर हम सृष्टिकर्ता को सगुण माने तो यह चेतन मानव का कार्य सृष्टि का उत्कर्ष और संरक्षण दोनों ही विचारणीय है । अगर वह निर्गुण है तो सृष्टि पंचततव का विकास ( Evolution ) कहा जाना उचित है तथा प्रकृति अवाध गति से उत्तरोत्तर विकास करती आ रही है और चेतन मानव अपनी सभ्यता संस्कृति में अपना सकारात्मक योगदान करता आ रहा है । सृष्टि के क्रमागत विकास में मनोवृत्तियाँ , इन्द्रिय सुलभ सुख और भोग से प्रभावित रही एवं तत्तत दिशाओं , लक्ष्यों प्रयोजनों को लेकर बढ़ रही है । इसकी चेतना का ही फल है कि कदाचित वह नकारात्मक सोच का शिकार बनकर संहारक , आत्म वंचक , रुग्न , और अपराध वृत्ति में प्रवृत होता है । पाप – पुण्य , यश – अपयश , उत्थान – पतन , सहयोग – विरोध तथा संग्रह – विग्रह को जन्म देता और उसमें उलझता एवं प्रकृति की समरसता को विच्छिन्न करता है । यही कारण है कि मानव चेतना को आगे बढ़कर संतुलन और कष्ट निवरण पर विचारना पड़ा ।

 आध्यात्म दर्शन , शिक्षण , ज्ञानार्जन , चरित्र निर्माण , एवं मानवादर्श का गठन एक प्रकार से समानार्थक ही माना जा सकता है । पुनः हम कहेंगे कि सृष्टि में पंचतत्त्व की अनन्त भूमिका है । तत्त्वों का संघात और त्रिगुण का प्रभाव ही तथाकथित ” लख चौरासी ” की अवधारणा साबित करता है । पुनः सृष्टि की विविधता को भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम एक के ही अनेक स्वरुप पायेंगे । फिर उनकी ही मिली – जुली भूमिका को हम हरि अनन्त हरिकथा अनंता ” कहते है । उससे यही सिद्ध होता है कि हमारे हरि अर्थात परमेश्वर ( सृष्टिकर्ता ) जो प्रकृत्या अनन्तता ( माया रुप में व्याप्त प्राकृतिक दृश्य ) के पीछे छिपा कार्य कारण संबंध ही ब्रह्म पंचभूत , प्रकृति एवं उसका सृष्टि विधान व्याप्त – व्याप्ति संबंध के कारण एकात्म स्वरूप का घोतक है जिसे हम सांख्य दर्शन ( मेटा मोर्मोलॉजी ) कहते है । भाव यह हुआ कि एक ही ब्रह्म सम्पूर्ण प्रकृति में व्याप्त है ।

 माना जीव , वनस्पति , पर्वत , नदियाँ , ( चर – अचर , सजीव . निर्जीव ) सहित अखण्ड मंडलाकार आकाश में असंख्य पिडों ( ग्रह , नक्षत्र , सूर्य , चन्दादि , आकाश गंगा , नीहारिकाएँ ) अपने आप में धनता , भार , दवाव , कठोरता , शीतलता , उष्मा , प्रकाश , गुरुत्त्वकर्षण , चुम्बकत्त्व , विधुत , शब्द , परिमा , ( शून्यता ) तरलता , प्रतन्यता , परिणाम भाव , रुखापन , चिकनापन , स्नेहन , गंध रसादि भौतिक ( स्थूल – काल और परिस्थिति के वश परिवर्तनीय ( द्रवित , संघनित , भंगुर छेध , मेद्य , दाहय , वाष्पित , प्रसरणीय , उत्साद्य आदि भौतिक गुणों से पूर्ण पाये जाते है । इन्ही आकारगत और गुणात्मक अस्तित्त्व और उसके रुपान्तरण के कारण भौतिकी और रसायन विज्ञान का क्षेत्र विस्तार पाया कला , शिल्प , तकनीक , प्रौद्योगिकी विकास का विशालकाय स्वरुप कारखाने उद्योग वाहन , संयन्त्र , प्रक्षेपास्न , परमाणु विज्ञान , आग्न्यास्त्र युद्धक आयुध उपकरण मानव मस्तिष्क का कमाल है ।

 जहाँ तक विश्व की विराटता और विलक्षमता का जीवन से संबंध है , उसने मानव जाति ही नही सारी सृष्टि को अपने चपेट में ले चुका है और किसी न किसी दिन ब्रह्माणु की क्षणभंगुरता उसे अपना ग्रास बना सकती है । उस हेतु आध्यात्मक दर्शन सृष्टि के संरक्षण को एक साश्वत ज्ञान श्रृंखला प्रस्तुत करता है । हम इसे अनेक दृष्टि कोणों से विविध प्रभागों में बाँटकर समझ सकते है । इसकी नितान्तता भी है । उपयोगिता और मान्यता भी ।

 ( डा ० जी ० भक्त )

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