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भाग-1 ईशोपासना

 

 1. ईश ( ईश्वर ) की उपासना , उनके निकट स्थान ग्रहण करने का प्रयास है ।

 2. यह हुआ इशोपासना का शब्दार्थ । ईश का अर्थ होता है मालिक , कल्याणकर्ता परमेश्वर ।

 3. जो हमें जीवन दिया है , जिससे हमारा और सबका कल्याण होता है , जो हमारा ही नहीं हमारे जन्मदाता , जितने हमारे समाने है , उस सम्पूर्ण सृष्टि का वही कल्याण करने वाले हैं , यथार्थतः हम उसी के आश्रय की अपेक्षा करते हैं ।

 4. उपासना तो हमें भक्ति के रुप में समझाया गया है ।

 5 भक्ति उस परम सत्ता के प्रति समर्पित भावना ।

 6. भक्ति भार्गी , ज्ञान भार्गी , कर्म मार्गी , सबों ने कर्म की ही प्रधानता इस धरती पर दी है । यह सृष्टि भी कर्म प्रधान है । इन्द्रियों का विषय भी कर्म है । यह सृष्टि या समष्टि उस परमेश्वर की शक्ति का विस्तार है जो जीवन्त या कर्ममय ही भासता है ।

 7. जब हमारा कर्म समष्टि भाव से प्रभावित होता है तो उस भाव को हम भक्ति की संज्ञा देते है । इसके कुछ क्षेत्र की सुझायें गये हैं । पितृभक्ति , मातृभक्ति , गुरुभक्ति ईश्वर भक्ति , राष्ट भक्ति इत्यादि ।

 8. हमारे द्वारा किये गये सभी छोटे या बड़े महत्त्व के कार्य ईश्वर के आश्रय करके किये जाते हैं तो उसे यज्ञ की संज्ञा दी जाती है ।

 9. इस प्रकार हम यज्ञ द्वारा पवित्र भाव से जुड़कर समष्टि रुप परमेश्वर की समीपता पाते है तो उसे उपासना कहते है । ज्ञानोपासना , कर्मोपासना ।

 10. उपासना से कर्म का दोष मिट जाना स्वाभाविक लगता है ।

 11. ये ज्ञान , कर्म , धर्म , भक्ति , उपासना बाह्य रुप से कर्म जैसे ही हैं । कर्म की ही व्याख्या करते हैं , किन्तु चिन्तन में ज्ञान रुप भासते हैं । इसे हम दर्शन भी कहते हैं ।

 12. उपासना ईश्वर दर्शन का माध्यम है ।

 13. जब हम ईश्वर को ढूढ़ते है तो इसमें हमारा वैचारिक भटकाव होता है । हम इस जगत में ईश्वर को अलग से , अलग रुप में देखना चाहते हैं ।

 14. हम ब्रह्मा को ईश्वर की जगह खोजते हैं- चार सिरवाला । विष्णु को खोजते है चतर्भुज रुप में , शंख , चक्र , गदा , पद्मधारी । शंकर को तलाशते हैं बाधम्वर धारण किये हुए , सिर पर जटा , जल में गंगा , मस्तक पर चन्द्रमा , गले में नाग , हाथ में त्रिशूल और डमरु । यह ईश्वर का अन्नत भाव , अनन्त विस्तार , अनंत कर्म विन्यास जगत की विविधता में व्याप्त भाव है । चिन्तन और दर्शन का विषय है ।

 15. जब तक सोंच में हमें अपना , पराया , भूख , स्वाद , गंध , सुख , सम्पदा , अरमान , ऐश्वर्य , भोग , व्यसन रहता है तब तक राग द्वेष , मान , अपमान , लोभ , मोह घृणा आदि में उलझे रहना पड़ता है । क्रोध , कष्ट , संताप , पश्चाताप , घेरे रहता है ।

 16. उपरोक्त से बचने के लिए ज्ञानियों ने ईश्र की शरण में जाने का ख्याल सुझाया । यह बात सीधे समझ में नही आती । हमने समझा कि ईश्वर , मंदिर में पूर्ति में , तीर्थ में , पूजा में , जाप और ध्यान में हैं । करते करते थक गये । जीवन बीता । धन खर्च हो गया । भगवान पंदिर में पत्थर के पत्थर ही रहे । द्रवित तो हुए नहीं , दर्शन भी दुर्लभ रहा ।

 17. उसी ईश्वर के एक साथी हमारे ही घर में तराजू का बाट बनकर वर्षों से हमारी सेवा में जुटे हैं । हम उन्हें व्यवहार में ईश्वर रुप में स्वीकारें । जिस पीपल के वृक्ष की जड में पानी डालना हम उपासना मानते हैं उससे बड़ी उपासना अपनी खेत की फसल में पानी पटाना है जो समष्टि का पेट भर सकता है ।

 18. हमारी काया , हमारे मनोरथ , हमारा भविष्य हमारे सुचिन्तन से सुधारे जा सकते है । हमारा उत्थान इसी समाज से सम्भव है और समाज का हम से । इस समष्टिगत कल्याण के चिन्तन से हम विश्व को प्रेम एवं एकता के सूत्र में देख सकते हैं ।

 19. यह भाव जब हमारा हृदय स्वीकार लेगा , हम जगत का विश्वास और एकात्मकता हममें स्पष्ट देखी जायेगी तो हमें जो सुखानुभूति मिलेगी , उसमें ही परम तत्व का ज्ञान होगा । हम जगत को त्याग कर उसकी जड़ता से जुड़ेगे तो कुछ भी पा सकते हैं ।

 20. सभी भोग , स्वार्थ एवं संसाधन , यहाँ तक कि परिवार और कुटुमब भी क्षणिक हैं । कभी हम ही उन्हें त्यागकर चले जा सकते हैं । इसलिए दुविधा में इशोपासना सम्भव नही ।

 21. ईशोपासना हमारा चरित्रिक भाव होना चाहिए । हर पल , हर परिस्थिति और हर कार्य में एक ही जन कल्याण का , जीव मात्र के कल्याण का ऊँचा ख्याल होना चाहिए । तन , मन और सामर्थ्य के साथ सदा तत्पर होकर और हृदय में उस परम सत्ता को बिठाकर अग्रसर होना , घर पर परिवार के साथ , खेतों में लगी फसलों के साथ , समाज में लोगों के साथ और कार्य क्षेत्र में अपनी जिम्मेदारी के साथ एक ही भाव रखना ईश्वर को अपने पास बुलाने के समान है ।

 22. जो भाव प्रार्थना में होना चाहिए वही व्यवहार में वही दान में , वही सेवा में , वही पेशा में , वही राजनीति में भी । 23. हमारा परमात्म भाव ही ईश्वरनुभूति , सारुप्य , साल्लोक्य , सान्निध्य तथा सामीप्य भाव है ।

 24. जीवन दर्शन और भगवदर्शन में बहुत थोड़ा अन्तर है ।

 25. जीवन का समर्पित भाव ही भगवद्दर्शन का हेतु है ।

 26. जिन्होंने जीवन दर्शन पा लिया वह ईश्वर का सान्निध्य पा लिया । इशोपासना का प्राथमिक सार्थक सोपान शुरु हो गया ।

 27. ईश्वर के सगुण स्वरुप से जा जुड़ते है उनकी आस्था व्यक्तिकृत होती है । वे ईश्र को मानवीकृत , मूर्ति , तश्वीर या प्रतीक के रुप में ही स्वीकार कर उन्हें मनुष्योचित सम्मान , भोग , आचमन , पाद्यादि , गंध , पुष्प , धूप , दीण , चन्दनादि द्वारा पूजन एं प्रार्थना , अथवा उनकी कथा वाचन द्वारा उन्हें अपने हृदय में बिठाना उनकी भक्ति भावना का ही घोतक है ।

 28. हम प्रतिदिन एक ही इष्टदेव की पूजा अर्चना करते रहें , एक ही कथा जाप करें , बार – बार एक ही तीर्थ करें तो इससे क्या लाभ ?

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