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ऊँची शिक्षा पर विहंगम दृष्टि

 मानव चेतन प्राणी होने से धरती पर सृष्टि का शिरमोड़ सिद्ध हुआ । इसने विश्व में अपनी सभ्यता और संस्कृति कायम कर रखी । इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि किसने रची , इसका रहस्य अबतक बना ही रहा , किन्तु मानव में चेतना जगाना तथा उस चेतना को साकार रुप देकर उसे सजाना सवारना उसकी मानवता की श्रेणी में जुड़ पायी । यही चेतना कर्म रुप में शिक्षा , कला कौशल , जीवन शैली , सृष्टि को सुरक्षित आयाम देना मानवता कहलायी ।
 आगे चलकर मानव परिग्रहणवादी ( संग्रहकर्ता ) बनने लगा , श्रम को पेशा बनाया , आय से वैभव जुटाया , समृद्ध होकर जब विलासी बना तो उस जमाने के दूरदर्शियो में उस सत्यम शिवम सुन्दरम के भाव को शास्वत स्वरुप कैसे दिया जाय उस पर चिन्तन प्रारंभ किया । वैसे ही मानव के हितैषियों ने वेद की रचना कर दिव्य ज्ञान की सरिता बहायी । विकास प्रगति का सूचक हो , प्रगति से समृद्धि औरसम्पन्नता अक्षुण्ण बनी रहे । सम्पन्नता हम पर भार और अहंकार का आवेग न बने , उस हेतु जनकल्याण की व्यवस्था सुझायी गयी । इस प्रकार शिक्षा की भूमिका में बढ़ोत्तरी के साथ उसमें समयानुसार ऊँचे उद्देश्य जुड़े , जिसकी प्रक्रिया में उच्च शिक्षा का नामकरण हुआ ।
 इस ऊँची शिक्षा के प्रकटीकरण में ज्ञान और कर्म को विविध नूतन प्रयत्नों के सृजन करने पड़े । जिन्हें हम उद्योग अनुसंधान , विज्ञान , तकनीक आदि रुपों में देख रहे है । यह मानव की प्रखर चेतना और परमार्थ चिन्तन का फल है । यहाँ पुनः एक विचलन पैदा होने की सम्भावना लक्षित हुयी । वह थी मानवी उपलब्धि में अस्मिता का उद्भव और अधिकार जो जागतिक कल्याण में पारमार्थिक लक्ष्य जुड़कर एक चरित्र निर्माण की विधा बनी जिसे हम धर्म की संज्ञा दे पाये ।
 उस संस्कृति से निर्माण की दौड़ में जीवन और शिक्षण की प्रवृति ही मानव और मानवता की पहचान बनी । उस पहचान में जो मानवीय चेतना और ऊर्जा लगी एवं प्रकृति के संसाधन खर्च हुए उसकी भर पायी भी प्रकृति करती रही , जिसके लिए हमें कृतज्ञ बना रहना भी मानव की चेतना के तत्व बने और मानवता कृतज्ञत्ता ( श्रद्धा , भक्ति , पूजा , उपासना , प्रार्थनादि भाव का प्रतिफलन उनके चरित्र निर्माण से जुड़े । किन्तु मानव अब इतना व्यस्त हो चला कि जीवनीय प्रवृति में भक्ति भाव का आना मानस को बाँटना प्रारंभ किया और जीवन में चिन्तन की दो दिशा बनी- धर्म और कर्म की । यहाँ ये दो तत्व विपरीत ध्रुव प्रदान करने लगे । सच्चाई थी कि पूर्ववर्ती कर्म में परवर्ती धर्म का चिंतन आचरण रुप में मानवता का विशेषण बना जैसे कर्म के साथ शुचिता । यहाँ पर खंद छिड़ा । हम कर्म पर चरित्र शब्द का साथ स्वीकारे तो अलग हो गये अस्वीकारे तब भी अलग हो गये । और विशेषण क्या पाये ? आस्तिक और नास्तिक का । उसे हम वर्गीकरण नहीं , भटकाव कहेंगे । उसी प्रकार हम शिक्षा को ऊँची और नीची दृष्टि से न देखें ।
 शिक्षा का अर्थ सीख है । आचरण , व्यवहार और नियम पालन ही मानव के आदर्श माने गये है । इसकी सर्वत्र आवश्यकता है । पेशा से ऊँचा और नींच की पहचान नही बनती शिक्षा से बनती है । सभी मानव है । ऊच्चतर खरीदी नही जाती है । उद्देश्य और आचरण की उत्कृष्टता ही ऊँचाई दिलाती है ।

 डा ० जी ० भक्त

 अध्यक्ष

प्रगत वैज्ञानिक चिकित्सीय एवं साहित्यिक शोध न्यास , हाजीपुर ( वैशाली ) -844111

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