Sat. Dec 21st, 2024

कोविड 19 के प्रति हमारी लड़ाई कितनी सार्थक लेखक द्वारा निजी चिन्तन

वर्तमान का कोरोना परिदृश्य वैश्विक धरातल पर अबतक के अनुमान में भारत के संबंध में अपेक्षाकृत सराहा गया है । सरकारी घोषणाओं के मद्दे नजर भी आकड़ों के आधार पर स्वीकारा ही जा रहा है कि भारत में संक्रमितों के सापेक्ष मृतकों का अनुपात विश्व में सबसे कम है । मेरे पास समाचार पत्रों की दैनिक आकड़ा तथा टी ० वी ० चैनलों पर दिखाया गया आकडा का ही आधार प्राप्त है । इस पर स्वीकारोक्ति के सन्दर्भ में विरोध जताने का भी कोई महत्त्व हो ऐसा कुछ विचारना उचित नहीं समझता । साथ ही इसका कारण भी विचारणीय है ।
 एक दिन एक दिशा से इस बिन्दु पर एक आवाज सुनी गयी जो कितना प्रासंगिक या स्वीकार्य हो सकता है लेकिन सूचना देने वाले का आकड़ा बताया गया कि कुल आकस्मिक मृतकों की मिली जुली संख्या की तुलना कोरोना के कारण हुयी मृत्यु से समानता रखती है । इससे लो आंकड़े पर विशेष चिंतन पर जोड़ देना कोई महत्त्व नही रखता ।
 कोरोना का संक्रमण और उसका प्रभाव व्यक्ति समाज ही नहीं विश्व की सामाजिक आर्थिक और अन्य कितने धरातल को आन्दोलित कर रहा है वह तो गंभीर सामाजिक प्रश्न बना हुआ है साथ ही राष्ट्र की व्यवस्था और विश्व की विचारधारा पर चुनौती पूर्ण चोट पहुँचा रहा है जिसमें हर राष्ट्र की आन्तरिक दशा सोचनीय है साथ ही मानवता पर नैतिक आघात हो रहा है जो अकथनीय है ।
 जनसंख्या , सामाजिक दायरे का विस्तार सरोकारों से जुड़ा मानव , जातीय , वर्गीय , भाषाई और धार्मिक या साम्प्रदायिक विचारधाराओं की विविध मानसिकता को लेकर एकता एवं समानता का लक्ष्य अपने आप में विकट है जिसका हल भी सम्भव नहीं और उसे न भुलाया जा सकता है न मिटने वाला है । हालाकि यह समाज शास्त्र का ही विषय है और सुधार में एजेण्डा में उतर रहा है । इसे नियति माने या नैतिक अथवा आनुशासनिक धरातल पर तौलें तो प्रयासों का पलड़ा सदा से हल्का पड़ता दिखता है । चिंतन की धारा में समाधान की गुत्थी सुलझाने वाले मिलते है उनके विचार सदा पटल पर लाये जाते है किन्तु वह समाज रुपी बिल्ली के समूह में घंटी बांधने जैसा प्रश्न है । तो दूसरी ओर कुत्ता की दूम जैसी सीधी न होने वाली समस्या ही लगती है ।
 इसी समस्या के बीच मानव अस्थिर और असुरक्षित है । सामन्जस्य का सपना देखते – देखते भी है गायब और एक विशाद पश्चाताप बन कर मानसिक रोग हो गया ।
उसी बीच कोरोना की लड़ाई कम जोड़ पड़ी । …….लेकिन ऐसा मान लेना एक प्रकार का दोषारोपन माना जा सकता है , ऐसा हो भी रहा है । ऐसा कौन बोल रहा है । किस भाषा में बोल रहा है , कहाँ से वाले रहा है । बोलने का निहितार्थ क्या है आदि प्रश्नों पर विचार करना या मिडिया वालों के चैनलो पर उनका संकीर्तन सुनकर भी मन न आघाता , तो न कुछ बनता , न उससे कुछ बिगड़ता ही है । एक मजमा है मनोरंजन का , इतना खर्चीला आयोजन हम फ्री में देख रहे , कितना अच्छा हम विकास का आनंद ले रहे है । पता नही चलता कि हम कोरोना की कसक को कहाँ ठिकाने लगा बैठे .तब तक सुनने को मिला कि आज 50 हजार पार कर रहा दैनिक संक्रमण का आकड़ा । क्या नगर , क्या गाँव , जिला , राजधानी या मेट्रोपोलिटन की चमक – दमक कोरोना ने सब पर नमक छिड़क डाला ।
 वैश्विक समाचारों का लेखा – जोखा लगता है जैसे मलेरिया बुखार का तापमान जैसा घटता – बढ़ता रहता है । लगता है कि वह काला – अजार हो गया । जीना संक्रमण और मरना पोजिटिव – निगेटिव वैक्सिन आ रहा है , वैक्सिन जा रहा है तीन हजारी है । गरीबों के लिए विचारा जा रहा है ।
 अब लगता है गरीबी मिटाने का सही समाधान सामने आ चुका । अगर गरीब न बचें तो गरीबी के उन्मूलन का श्रेय कोरोन को ही मिलेगा । इसीलिए इन्सान चुप है । और नागरिक धीरज खो रहे ।
 एकने कहा विकास का रंग फीका पड़ गया । किसी अन्य ने कहा सरकार से अब विश्वास उठ रहा । तीसरे का कहा ना था अरे , पहले देख तो लों , कहीं वैक्सिन आ गया तो फिर क्या कहना । लेकिन मैने कहा अभी तक मैं अपनी होमियोपैथी को अजमाया कहाँ । मैं आशावान हूँ कि मेरी होमियोपैथिक सूक्ष्म खुराकें इस परमाविक युग का नेतृत्व लेने वाला है , मै हनिमैन को पटल से न हटाना चाहता न भुलाना चाहता । सब दिन कहता हूँ स्वास्थ्य और आरोग्य के लिए आने वाला युग हमारा है । फौर हेल्थ एण्ड क्योर , पोस्टेरिटी इज आवर्स । मैं तो उसी की प्रतीक्षा में हूँ ।
 मैं इतना चिंतित नहीं होता । न मैं जुलियस सीजर हूँ न ब्रूटस , न राजा नल न उनका अनुज मुस्कर । अपने बड़े भ्राता को बनवास नही देता । उन्होंने पहले ही घुटने टेक दी – न प्रिवेन्टिव है न थेराप्यटिक । तो हो क्या रहा तमासा इतने दिनों से ? यह किस स्वतंत्रता की लड़ाई है ? इस लड़ाई में जिस मिसाइल की भूमिका अपेक्षित थी उसकी अद्यतन अनुपलब्धता जब दिल को दहलाने लगी तक भी आशा बनी कि मोदी जी का ध्यान आयुष पर जायेगा- ” O my , God ! ” अब तक निरुतर हूँ । यही है मेरा चिन्तन । मेरा आकलन !! मेरा मूल्यांकन ।।।
 वायरस से लड़ने का जो अबतक तरीका रहा है , उसमे प्रधान मार्ग दर्शन स्वास्थ्य और सफाई का है , जहाँ वायरस की उत्पत्ति और पोषण पर नियंत्रण पाया जाता है । दूसरा है विसंक्रामक पदार्थों का प्रयोग , जिससे वातावरण में फैलने वाले वायरस या वैक्टिरिया आदि परजीवी का अन्त हो जाता है । तीसरा तरीका है मानव तथा उसके जीवन से जुड़े जीव जन्तुओं को वैक्सिन के प्रयोग से निष्प्रभावी बना डालना । सबसे मजबूत विधान है स्वास्थ्य के नियम का पालन करना , आहार संयम , नियंत्रित दिनचरा , उत्तम जीवन शैली अपनाकर चलना , जिससे शरीर की रोग निवारक क्षमता ( इम्यूनिटी ) बनी रहे । इसके अतिरिक्त व्यक्ति को स्वास्थ्य के प्रति जागरुक होना , समाज के प्रति कल्याणकारी भाव , नैतिक और आदर्श जीवन शैली जीने की शिक्षा , आर्थिक मजबूती , चिकित्सा सुविधाओं की यथेष्टता , राजनैतिक सपोर्ट तथा सरकारी नियंत्रण और प्रशासनिक सुदृढता से संकामक रोगों के प्रति हमारी विजय सम्भव हो सकती है जिसमें हम कमजोर रहे । हमारे देश में चिकित्सा को उत्तम कोटि का व्यवसाय बनाया गया है । सेवा भावना पूर्णत समाप्त पायी जा रही । आरोग्यता का प्रतिफलन हो नही पा रहा । राष्ट्र की जनसंख्या जहाँ कि पहले से ही रुग्न और विकलांग हो वहाँ जीवनी शक्ति मजबूत हो नही सकती जिसका परिणाम इस कोरोना के संक्रमण में संक्रमितों में रोग के लक्षणे का परिवर्तन होते रहना एक भ्रामक स्थिति है जिसमें रोग का निदान निकालना कठिन होता है साथ ही असम्भव भी । उस स्थिति में जो जटिलता रोगी के स्वास्थ्य में पहले से निहित होगी , उसका वैक्सिन अलग – अलग कैसे सम्भव हो पायेगा । यही समस्या आज इसके लिए कारगर वैक्सिन के अनुसंधान में कठिनाई आ रही है । इस पर चिकित्सा वैज्ञानिक चिंतित है ।
 ऐसी स्थिति में इस लड़ाई लक्ष्य सफल होने की सम्भावना पूरी तरह बन नही पा रही , जिसका प्रमाण और परिणाम सामने दिख रहा है कि संक्रमण रुक नहीं रहा । हम इसे भी अस्वीकार नही कर सकते कि व्यवस्था तंत्र और जन जागरुकता दोनों में कभी कही न कही है । सरकार द्वारा इस दिशा में कठोर कदम उठाये भी जा रहे है जिसका पालन पूरी तरह जनता नहीं कर पा रही , यह भी एक बड़ी बाधा खड़ी है ।
 कोरोना काल की खूबियों पर ख्याल करें तो पायेंगे कि सद्भावना और सुविधाओं के जहाँ गुलाब जल छिड़के जा रहे है वही स्नेह सौहार्द के फुहारे और सजा की बौछारें ही नसीब हो रहे । इन जख्मों पर शान्त्वना के सफूफ डाले जा रहे । कहते है कोरोना ने जितना कहर बरपाये उनसे हमे सीख भी मिली है । हम धीरे – धीरे उन्हें सहन करने की कोशिश कर रहे है । अपनी पुरातन संस्कृति को अपनाने की आदत डाली है । स्वच्छता और शान्ति के महत्त्व को समझा है किन्तु अखवारों की खबरें हमें बेचैन कर देती है । जिन शवों पर धी और चन्दन की लकड़ियाँ के धूम से सुगन्ध फैलती थी उन उपेक्षित मृतकों को कोई पूछने वाला नहीं , संबंधों की साख को अब राख भी मयस्सर नहीं ।
 जहाँ ऐसी परिस्थिति में देश की अपनी स्वस्थ और शिक्षित संस्कृति इसके लिए अमृत तुल्य मानी जाती है उस देश में नैतिकता , सामाजिकता एवं अनुशासन को लेकर असमंजस का स्थित बन रही है । मानवता की सीमा टूट रही , सम्बन्धों और एकता के मौलिक बन्धन प्रेम और निजता की पहचान मिट रही , जो चिन्ता बन कर भावी जीवन के लिए ही नही मानव और मानवता के अस्तित्व पर संकट बन रहा है । अब हम कैसे कहे कि हम सफल हो रहे ।
 अब तक जो हमने लड़ाई का प्रण ठाना था और मैदान में उतरे थे उसमें सफल हो नही पाये तब तक हमारी अर्थ व्यवस्था चरमराने लगी . जिसके कारण लड़ाई में जीविका का प्रश्न खड़ा होकर एक विध्र लाया । बढ़ते संक्रमण का भय व्याप्त रहा तब तक अन्य प्रकार के संक्रमण भी रास्ते में खड़े हो गये । राजनैतिक अस्थिरता में सामरिक तैयारी चलने लगी देश का दिमाग और ध्यान का बटना भी हमारी लड़ाई के बीच कठिन समस्या है । राजनैतिक क्षेत्र में चुनाव का भी मामला नेताओं को किकर्त्तव्य विमद कर रहा है ।
 अंतिम निष्कर्ष एक विचारक के हाथ में तो है नहीं सर्वोपरि व्यक्ति है या सरकार , निर्णय उसी के हाथ है । प्रयासों की श्रृंखला में लॉकडाउन के अतिरिक्त कौन सा सकारात्मक प्रयोग है यह नजर नहीं आता । समय का बीतते जाना और भय से हिम्मत हारना , निदान की दिशा में कुछ दिखता नही क्या झूठ क्या , सच , इसी पर राजनीति चल रही है । विरोधाभासो के बीच जीवन की आशा कमजोर पड़ रही है । 
डा ० जी ० भक्त

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