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चुनावी चश्मा

 पुरातन काल , शायद जिसे ही हम अपना अतीत कहते है उसमे राजतंत्रीय व्यवस्था थी । वह युग क्रमशः सतयुग , त्रेता और द्वापर नामों से विख्यात रहा । उन युगों के राजा देवता होते थे अर्थात वे गुणवान , दानी और पराक्रमी होते थे । उसी में कभी हमारे आदि देव का आना – जाना , अवतार लेना और राज – काज में भी हाथ लगाकर अपनी दिव्य लीला से जगत को , भूलोक के भार को , पापियों के आतंक को मिटाकर चराचर प्राणि सहित धरती का भार हरण करते थे । हमारी संस्कृति का सच्चा शुक्ल पक्ष यही था ।

 आगे चलकर हमारा इतिहास जैसा बतलाता है और जैसा मैं समझता हूँ कोई खास अन्तर नहीं हुआ । इधर हमने अवतार होते या लेते नहीं सुना न देखा । हो सकता है इन युगों में दृष्टि दोष पाया जाने लगा हो । अवतार के बदले अवतरण होने की घटना बहुतो वार हुयी । हम फिर कहेंगे कि हमारी दृष्टि में अवतार लेने में जितना अन्तर है उतना ही अवतरण और आक्रमण में है । कारण उसका बड़ा ही प्रासंगिक है कि जितने आक्रमण हुए सभी कुछ न कुछ काल तक हमारे मेहमान बने रहे और हम उन्हें ससम्मान अपनी सत्ता तक समर्पित कर बैठे या करते हुए एक ऐसी परम्परा कायम कर पाये जिसका इतिहास भी कई काल खण्डों में बँटा । आज का सिलेवस भी परेशान है उनकालखण्डों को ठीक से समझने में । तब तो बार – बार हमें शिक्षा नीति बदलनी पड़ी ।

 आखिर शिक्षा भी तो पुरानी पड़ी । बेद भी कहता है:-

वासांसिजीर्णाणि यथा विहाय , गृहणाति वस्त्राणि नरोडपरानि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्पान्यानि संयाति नवतिदेहि ।।

 फिर विद्वान और विचारवान दृष्टिकोण बदलने पर जोर डालते हैं । बहुतेरे लोग दृष्टिकोण का मतलब नहीं समझते । कानी दृष्टि अवश्य समझ में आती है किन्तु दृष्टिकोण को लेकर राजनैतिक गलियारों में जमकर विवाद उठता है । किसी ने कुछ अपना दृष्टिकोण रखा तो कुछ का समर्थन मिला तो कुछ के स्वार्थ को धक्का पहुंचा । उनके समर्थन में भी लोग डटे । एक विद्रोह सा वातावरण बना । कुछ तो समझ ही न पाये । दृष्टि कोण का सवाल है । समान दृष्टि का वातावरण नही बन पाया । प्रयत्न को पोषण न मिल पाया । विचार धारा का खण्डन कभी एकता का वातावरण न बना पाया । नीतियाँ विफल हुयी तो जनमत पर खतरा आने की सम्भावना को लेकर भीतर घात पनपने लगा । सुधार के प्रयास किये जा सकते थे किन्तु पानी फिरता सा लगने लगा । यह है दृष्टिकोणों का नोक झोक ।

 कोरोना का विसर्जन बाकी ही था कि चुनाव का मौसम आ धमका । बर्चअल प्रयास शुरु हुए , क्यों ? लॉकडाउन का क्राउन झुक न पाया था । महत्त्वाकांक्षा की घंटी बजने लगी । सुरक्षा का ताना – वाना स्वतः कमजोर भूमिका में चल ही रहा था । जन कल्याण का कोना खाली जा ही रहा था कि बथुअल प्लान बन कर निखर उठा । इसके पहले ही शिक्षा की धारा को कमजोर आंका जा रहा था । उसकी नींव हिल रही थी किन्तु ऊँची शिक्षा के सपने नींव हराम भले कर रहे थे पर सुधार के स्पन्दन तक न देखे जा रहे थे । तबतक संक्रमण – प्रदूषण , डिस्टेन्सन , कन्टेनसन की सनसनाहट , झनझनाहट से वातावरण दोलाममान था । कही से आवाज आयी अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी । विकास का कौन कहें , रोजी – रोटी का प्रश्न गहराया तो बाढ़ आकर खाई को भर दिया । एक अच्छा बहाना बना फिर दृष्टिकोण में नया बदलाव आना था । वातावरण भीतर ही भीतर गरमाने लगा । बात उठती रही । कोरोना में चुनाव ? विद्यालय नहीं खुले स्वावलम्बन का खूटा खड़ा भी हो पाया , बहाली का वादा बाढ़ के हिलोड़े खा रहा था । कमजोर दृष्टि को चश्में की जरुरत है । जनता वेखवर घबड़ायी । मुख्यमंत्री जी की पैनी नजर में दो विकल्प सामने दस्तक दे दिये ।

 चिकित्सा ( स्वास्थ्य ) और शिक्षा को सुदृढ़ व्यवस्था दिये जाने का संकल्प चुनाव के ये दो मजबूत मुद्दे खड़े हो रहे । दृष्टिकोण उत्तम है । आचार संहिता लागू है । लॉक डाउन को अन लॉक किया गया है । नियम लागू ही रहेंगे । भेले जुलुस नहीं लगेंगे । चुनाव समाओं में जल जमाव की तरह जन जमाव पर से दवाव हटा लिया गया है । इस नूतन दृष्टिकोण में क्षणिक आशा की किरण कौंध तो पायी । कुछ विचारवान लोगों ने स्वीकारा यह – चुनावी चश्मा से देखने में साफ – झलक रहा है । मुद्दे मजबूत हो तो जनतंत्रको सुजीवन मिलेगा । नोमिनेशन के लिए एक्स्प्रेस खुल गयी ।

 ( डा ० जी ० भक्त )

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