Sun. Oct 6th, 2024

जीव
 जब ईश्वर की सृष्टि है ,
 तो जीवन में कष्ट क्यों ?

 प्रकृति ही परमात्मा ( ईश्वर ) का स्वरुप है या वह प्रकृति की सचराचर सृष्टि में व्याप्त है । अथवा , ऐसा कहें कि प्रकृति के जीवन विधान ही परमात्म वत्त्व से ओत प्रोत है । प्रकृति के सारे उपादान पदार्थ की संज्ञा पाते हैं । उनकी तीन अवस्थाएँ हैं । ठोस द्रवऔर गैसीय । मिट्टी को हम ठोस मानते हैं । पानी को द्रव और पवन को गैस । इन्हें रहने की जगह चाहिए । जिसे हम खाली स्थान कहते है । जहाँ हम रहते हैं , चलते फिरते हैं । चिड़ियाँ उड़ती है , वायुमान गमन करता है , बादल दिखता है । समान रखते हैं । वह सूना स्थान आकाश हैं । पदार्थों में जब प्रसार होता है तो उसे फैलने के लिए स्थान चाहिए , वही आकाश है । सर्दी गर्मी का अनुभव सापेक्ष रुप से ताप , तेज या अग्नि है । इस प्रकार प्रारुपिक स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ तीन प्रकार के ही है जिनमें मिट्ठी , जल , वायु अग्नि एवं आकाश को निहित पाते है । इन्हें समष्टि रुप में ( मिला जुला ) स्वरुप को हम प्रकृति या जगत मानते है ।
 प्रकृति में कुछ घटनाएँ घटती है । सूर्य का उगना , उससे गर्मी प्राप्त होना , प्रकाश मिलना , डूबने से अधकार या रात आना , बादलों का बरसना , नदियों का बहना , हवा में पत्तियों का हिलना , पौधों का उगना , बढ़ना , फूल , फल से लद जाना , जाड़ा – गर्मी का अनुभव , जीव जन्तुओं के कार्य – कलाप , उनमें दृष्टि का ज्ञान , गंध , स्वाद , स्पर्श , श्रवण की क्रियानुभूति ही जीवन ( लाइफ ) के द्योतक है । इसके अलग – अलग उनकी भूख है । इन्हें हम प्रवृति कहते है ।
 किन्तु प्रवृत्ति में हमारी ( जीवों की ) अलग – अलग चाह ( माँग ) होती है । उनकी पूर्ति न होने पर तरह – तरह की प्रतिक्रियाएँ संवेग , क्षोभ उत्पन्न होना मानसिक क्रियाएँ हैं , जिन्हें हम चेतना कहते है । प्रवृत्तियाँ चेतना के धोतक हैं । मन , बुद्धि , विवेक करण है जिनसे ज्ञान अनुभव , निर्णय , तर्क और अनुभूति का सहायता मिलती है । ज्ञान स्मृति , अभिव्यक्ति , स्वीकृति , अस्वीकृति , हर्ष और शोक का प्रतिमान ( चेहरे पर अंकित ) पाया जाना मनः स्थिति के धोतक है , सूचना देने वाले हैं ।
 सुख और दुःख , हर्ष और शोक , हंसी और रुदन में एक सकारात्मक भाव है तो दूसरा नकारात्मक । जब हमारी पंचेन्द्रियों ( कर्मेन्द्रियों ) को मनोनुकूल भोग प्राप्त होता है तो मन प्रसन्न दिखता है और मन के विपरीत भोग प्राप्त होता तो प्रश्न उठता है कि ये संवेदनाएँ तो मन और इन्द्रियों के बीच की है किन्तु धटनाय सकारात्मक और नकारात्मक घटती है या भासती हैं ? यहाँ जीव की रचना त्रिगुणात्मक होने से प्रवृव्यात्मक है । यह प्रवृत्तियों का खेल है । मन उसका वाहक है । इन्द्रियाँ उसका भोग करती ह । बद्धि उसके भले – बुरे का निर्णय कर स्वीकारती और नकारती है । विवेक उसके अन्तर को ध्यान में नहीं लाते । तो उन्हें दुःख नहीं व्यापता । जो लोभी स्वार्थी , कामी एवं एषणा रखने वाले ( धन , संतान और सुख की चाह ) होते ह वे उसके पीछे आजीवन भटकते , व्यस्त रहते और बेचैन पाये जाते है , उन्हें रोग शोक , पश्चाताप , ग्लानि , आदि ताप सहना पड़ता है । ईश्वर इन कष्टो का कारण नहीं जीव स्वयं अपने कष्टों के लिए जिम्मेवार पाया जाता है ।
 मन में तरह – तरह के भाव , विचार और वासनायें पैदा होती है । उनमें कुछ तो जीवनीय आवश्यकताएँ होती हैं । कुछ इन्द्रियों के अपने विषय होते है । कुछ इससे अधिक करने और भोगने की लालसा ( विलासिता ) रहती है । ये सभी मिलकर शरीर के हित में योगदान देते है जरुर किन्तु शरीर की उर्जा का अधिक खर्च शरीर के लिए अहितकर होते हैं जो रोग बनकर हमें कष्ट देते है । ऐसा भी होता है कि कष्टों के भोगते हुए भी उन भोगों के प्रति लालसा दृढ़ बनी होती है । उनकी पूर्ति के लिए पूरी तरह प्रयास करते रहते है । गलत धारणाओं के पाषण – परिपूरण में अपना हित मानते हुए दूसरों का अहित कर डालते हैं । उन्हें कष्ट पहचाना ही हिसा हैं इसे पाप कहते हैं । कष्ट और अभाव झेलने वालों के प्रति प्रेम , सहयोग , सदभाव रखना पुण्य कहा जाता है । हम अपने कष्ट से दुखी होते है तो परायों का कष्ट भी हमें दुखी बनाते हैं । हमें उन पर दया दर्शाना उनके कष्टों को कम करता है । दूसरों के कष्ट के लिए दान देना परोपकार कहलाता है । ऐसा शुभ कर्म पुण्य है । इससे यश और सम्मान मिलता है ।
 जीव अपने जन्म के साथ जुड़े माता – पिता , दादा – दादी , नाना – नानी , चाचा – चाची , भाई – बहन आदि सम्बन्धों को साथ लेकर चलते हुए निजता का , अपनापन का भाव रखते है । इन संबंधों से एक दूसरे का हित जुड़ा होता है । हम जहाँ होते है वहाँ पास पड़ोस के परिवार एक दूसरे के पूरक बनते है , इस तरह एक समाज खड़ा होता है । उनके पारस्परिक हितों से जुड़ा सम्बन्ध हमारे बीच गहरा होता जाता है । मित्र कुटुम्ब एवं शुभैषी गणें से भी हमारा प्रेम बढ़ता ह । सौहार्द बढ़ता ह । कल्याणकारी भाव हमें विश्व से जोड़ता है । निजता से हमारी अपेक्षाएँ जुड़ती है । जिसे हम समाजिक सरोकार कहते है । उसका पालन समाजिक जीवन को दृढ़ता देता है । उसका निर्वाह ही प्रेम भाव कहलाता है । इसका टूटना पारस्परिक हितो में बाधक होने से दुराब , विरोध , ईर्ष्या , द्वेष , कलह , छल , कपट , शोषण , हत्या , क्रोध , लूट आदि अहित के प्रयास मानव को आजीवन कष्ट देते है ।
 इस तरह मन हमारे शरीर का हित और अहित दोनो ही का कारण बनता है , मन का संयम कष्टों से हमें मुक्ति दिलाता है तो कभी वही मन का अतिरेक हमें बध और बंधन में डालकर बिनाश की ओर ले जाता है ।
 इससे आगे हम विचारे तो हमारी दुर्वासनाएँ सदा हमें सताती हैं । मन तथा शरीर को उससे कष्ट पहुँचता है । हम मन और शरीर दोनो से रोगी बन जाते हैं । उसकी दवा हमारे पास नहीं । सयम तो हम पहले ही खो चुके । सामाजिक सम्बन्धों मे दुराब बढ़ता गया । कोई सहारा नहीं बना , तो आजीवन कष्ट बढ़ता गया । उसकी दवा समाज के ही पास है । हम समाज विरोधी बनकर अपनों और समाज दोनों का रास्ता काट डालते हैं । इस तरह संसार ही रोगी बन जाता है । वैश्विक कष्ट बनकर उभरता है ।
 हमें अपना जीवन प्रिय और दूसरों क प्रति तो प्रेम समाप्त ही रहा । अब न हम दूसरों के प्रति दया का भाव रखते और न समाज हमारे प्रति समयोग का भाव लेकर बढ़ना चाहता है । स्वार्थ में जीवन जकड़ा तो संसार हमें काँटों की तरह कुशाग्र दीखने लगा हमें दूसरो से जहाँ जीवन में जुड़ाव दीखता था वहाँ हम भयभीत है अपनों के बीच ।
 इस तरह हमने पाया कि हमने अपने कर्म और विचारों में संकुचन लाकर ही सामाजिक दूरियाँ बढ़ा ली है । आज हम डिस्टेसिंग पर विचार गढ़ रहे हैं । शरीर से दूरी बना कर चलना लेकिन मन और आत्मा ( हृदय ) को कहाँ ले जायेंगे ? दूरियाँ तो बनाई और प्रेम न रहा । संक्रमित होने का भय बना रहा और चिकित्सक तथा उपचारकर्ता ही संक्रमित होने लगे । तो भी हम उस पर दृढ़ है । जो दूरियाँ तोड़ रहे वे स्वार्थ के लिए । आरोग्य के लिए नहीं । परिमाण क्या हो रहा ? पहले हमने कहा कि सोसल डिस्टेंसिंग बनाकर हमने संक्रमण से अपने को बहुत हद तक बचाया है । आप बोल रह – चिकित्सक और सेवकगण ही संक्रमित होते जा रहे । विडम्बना है । क्या करें जिस दवा को खाकर सेवा कार्य में जुटे थे उस दबाने मुँह मोड़ ली । विदेशों ने मांगा था । भारत ने उसकी आपूर्ति भी की । सिक्का टलहा निकला । नहीं – नही मानव म मानवता नहीं । मानव ही टलहा है । मन दूषित हो चुका है । जहाँ जहर जाली बिकता है । मानव स्वयं अपने को धोखा में डाल रखा । अब उसकी सुरक्षा असम्भव लग रही । विज्ञान का भरोसा ? कौन है वैज्ञानिक ? यह विज्ञान , यही विकास , वही चिकित्सा विज्ञान , जो गरीब नही पढ़ सकता ? लक्षणों को दबा देने भरके लिए रह गयी , चिकित्सा रोग घटाने के लिए नहीं । चिकित्सा आज सेवा न रह गयी । डॉक्टर आज अपनी ही किलनिक पर नहीं जा रहे । उन्हें भय है कोरोना का । याद रहे भय एक प्रकार का भूत है । चित को कमजोर करने वाला शत्रु । भय हमें निष्क्रिय कर डालता है । भय भी रोग का कारण है और भय से उत्पन्न रोग की दवा होमियोपैथी में पायी जाती है । एकोनाइट ऐसे भय में प्रयुक्त होता है । ओपियम भी औबधि नामक संजीवनी बूटी सदा दूसरों के ( समाज या बैध ) के पास है । हम जब विश्वास खो देते है तो विवस हो जाते है । कोई सहारा नही बनता निराशा मृत्यू का आहान ह । तब हम पुनः ईश्वर की याद करते है ।

 संजीवनं च रहस्तगतं सदैव ,
 तस्मात्वमे व शरणं हे दीन बन्धु ।

 कोरोना छलिया है । छल कर रहा है । माया है । अपनी माया विश्व पर फैलाया है । उसे मोहने वाली होमियोपैथी ही होगी ।

 होमियोपैथी ! जागो !! हनिमैन स्वर्ग
 से तुम्हे पुकार रहे हैं ।
 मानवता की कराह सुनो ,
 मानवता का सही रक्षक बनो ।
 नेचर क्योर भी एक सुलभ समाधान है ।

 डा 0 जी 0 भक्त

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