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प्रभाग-23 तृतीय सोपान अरण्य काण्ड रामचरितमानस

 जब रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण को आते देखा तो बाह्य रुप में ( दिखावा के लिए ) बहुत चिन्ता की । हे लक्ष्मण , तूने सीता को अकेली वन में छोड़ दिया । मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर यहाँ चले आये । राक्षसों के झुण्ड वन में फिरते रहते हैं । मेरे मन में ऐसा आता है कि सीता आश्रम में नहीं है । रामजी के चरणों पर गिरकर लक्ष्मण जी ने कहा- इसमें मेरा कुछ भी दोष नहीं है ।
 दोनों भाई तुरंत गोदावरी के पास अपनी कुटिया में पहुँचे । वहाँ सीता को नही पाकर सामान्य मनुष्य की भाँति व्याकुल हो पड़े ।
 हा गुण रवानि जानकी सीता । रुप शील व्रत नेम पुनीता ।।
 लछिमन समुझाये बहु भाँति । पूछत चले लता तरु पाती ।।
 
 हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी । तुम्ह देखि सीता मृग नैनी ।।
 खंजन सुक कपोत मृग मीना । मधुप निकर कोकिला प्रवीणा ।।
 
 कोई कुछ नही बतलाता । सभी अपने आप में प्रसन्न दिख रहे हैं । उन्हें सीता के लिए कोई चिन्ता नही दिखाई पड़ती , जैसे वे मन से खुश हैं । प्रभु दुख में उन वन वृक्षों से पूछते है कि यह स्पर्द्धा तुम्हें कैसे सहन हो रही हैं । हे प्रिये ! तुम सामने क्यों नहीं आ जाती ? इस तरह खोजते विलाप करते अविनाशी रामचन्द्र जी मनुष्यों जैसे व्यवहार कर रहे है जैसे महान विरह में डूबे हुए कोई कामी पुरुष हो । आगे उन्हें जटायु गीध पड़ा हुआ दिखाई दिया । वह रामजी के चरण चिन्हों में ध्वजा आदि को स्मरण कर देख रहा था । कृपा सिन्धु रामजी ने अपने हाथो से गीधराज का सिर स्पर्श किया । इससे जटायु का , जिसे रावण ने छत – विछत कर रखा था , सब कष्ट दूर हो गया ।
 तब कह गीध बचन धरि धीरा । सुनहु राम भजन भव भोरा ।।
 नाथ दशानन यह गति किन्ही । तेहि खल जनक सुता हरि लीन्ही ।।
 
 लै दक्षिण दिशि गयउ गोसाईं । विलपति अति कुररी की नाइ ।।
 दरस लागि प्रभु राखेउ प्राणा । चलन चहत अब कृपा निधाना ।।
 
 राम कहा तनु राखहु ताता । मुख मुसकाई कहि तेहि वाता ।।
 जाकर नाम मरत मुख आवा । अधमउ मकुत होउ अति गावा ।।
 
 सो मम गोचर लोचन आगे । राखौ देह नाथ केहि खागें ।।
 जल मरि नयन कहहि रघुराई । तात कर्म निज ते गति पाई ।।
 
 पर हित बस जिनके मन माही । तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाही ।।
 तनु तजि तात जाह मम धामा । देउ काह तुम पूरन कामा ।।
 
 दो ० सीता हरन तात जनि , कहहु पिता सन जाई ।
 जौ मै राम त कुल सहित कहिहि दशानन आई ।।
 
 गीध दह तजि घरि हरि रुपा । भूषन वहु पट पीत अनूपा ।।
 श्याम गात विशाल मुजचारि अस्तुति करत नयन भरि वारि ।।
 
 दो ० अविरल भक्ति मांगि वर , गीध गयउ हरिधाम ।
 तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम ।।
 
 कोमल चित्त अति दीन दयाला । कारण बिन रघुनाथ कृपाला ।।
 गीध अधम खल आमिष भोजी । गति दीन्ह सो जॉचत जोगी ।।
 
 सुनहु उमा ते लोग अभागी । हरि तजि होहि विषय अनुरागी ।।
 पुनि सीतहि खोजत दोउ भाई । चले विलोकत बन बहुताई ।।
 
 घना वन है , लताओं और वृक्षों से भरा हुआ । उसमें बहुत से जीवन जन्तु रहते हैं । उसी रास्ते से आते हुए कबन्ध राक्षस को मार डाला । उसे दुर्वासा ऋषि का शाप लगा था । वह ब्राह्मण विरोधी था । उसका पाप प्रभु चरणों में आने से कट गया । रामचन्द्र जी ने कहा –
 मन क्रम वचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव ।
 मोहि समेत विरंचि सिव बस ताके सब देव ।।
 
 सापत ताड़त परुष कहता । विप्र पूज्य अस गावहि संता ।।
 पूजिए विप्र शील गुणहीना । सुद्र न गुण गन ज्ञान प्रवीना ।।
 
 कवन्ध के उद्वार के बाद श्री राम जी शवरी के आश्रम पधारे । शवरी जब रामजी को घर पर पहुँचे हुए पायी तब उसे मतंग मुनि की बातें याद आयी । शवरी प्रभु के पॉव पड़ी । जल लाकर पॉव धोयी । आसन पर बैठायी । रसदार फल फूल से उनका स्वागरत की , फिर खड़ी होकर कर जोड़कर भगवान की स्तुति की और उनकी भक्ति का वरदान मांगी । प्रभु ने उसे नवधा भक्ति की शिक्षा दी ।
 नवधा भक्ति कहउँ तोहि पाही । सावधान सुनु धरु मन माही ।।
 प्रथम भगति संतन्हकर संगा । दूसर रति मम कथा प्रसंगा ।।
 
 दो ० गुरुपद पंकज सेवा तीसरी भक्ति अमान ।
 चौथी भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ।।
 
 मंत्र जाप मम दृढ विश्वासा । पंचम भगति सो वेद प्रकासा ।।
 छठम शील विरति बहु करमा निरति निरंतर सज्जन धरमा ।।
 
 सातम सम मोहि जग भय देखा । मोते संत अधिक करि लेखा ।।
 आठम जथा लाभ संतोषा । सपनेहु नहि देखई परदोषा ।।
 
 नवम सरल सबसन छलहीना । मन भरोस हिय हरष न दोना ।।
 नवमहु एकउ जिन्हके होई । नारि पुरुष सचराचर जोई ।।
 
 सोइ अतिसय प्रिय भामिनी मोरे । सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे ।।
 जोगिवृन्द दुरलभ गति जोई । तो कहुँ आज सुलभ भई सोई ।।
 
 मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरुपा ।।
 जनक सुता कइ सुधि भामिनी । जानहि कहु करिवर गामिनी ।।
 
 पम्पा सरहि जाहु रघुराई । तहे होइहि सुग्रीव भिताई ।।
 सो सब कहिहि दव रघुवीरा । जानतहु पूछहुँ मति धीरा ।।
 
 बार – बार प्रभु पहु सिरुनाई । प्रेम सहित सब कथा सुनाई ।।
 
 जो नीच जाति की और पापों की जन्म भूमि थी , वैसी स्त्री को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया , उस भगवान को भुलाकर मंद बुद्धि वाले कैसे सुख चाहते हैं ? रामजी अब उस जंगल को छोड़ अब पंम्पापुर के लिए दोनों वीर प्रवर चल पड़े । विरही की तरह विवाद करते और कथाएँ सुनाते चले जा रहे हैं । लक्षमण जी से कहते हैं देखो हम पत्नी वियोग में दुखी सोच में विहवल हैं । प्रकृति अपनी शोभा विखेर रही है । सभी जीव खग अपनी जोड़ी के साथ सुख पूर्वक जी रहे ह , मानों वे हम शिक्षा दे रह है कि पत्नी को अकेली छोड़कर कही नहीं जाना चाहिए । किसी को हमारी चिन्ता नहीं है सभी प्रफुल्लित है । भली प्रकार से मनन किये गये शास्त्र को भी बार – बार पढ़ना चाहिए । भली प्रकार से जिस राजा की सेवा कर चुके है उसको भी अपने वश में नहीं मानिए । जिस नारी को अपने हृदय में रखा हो , उस युवति को , शास्त्र को , राजा को अपने वश में न माने ।
 यह वसन्त ऋतु सुहावनी है लेकिन मैं पत्नी विहीन हूँ । मुझे भय उत्पन्न हो रहा है । मुझे विरह से व्याकुल देखकर सभी अकेला समझ बैठे हैं लेकिन कामदेव का दूत यह सब देखकर शायद खबर दे रखी कि मैं यहाँ अकेला नहीं , भाई मेरे साथ है । इसलिए यहाँ पर अपनी सेना को रोक रखीहै । लक्ष्मण से समझा रहे है कि कामदेव की अनेक सेनाएं है जो इनके बीच अपने मनको धैर्य में बाँध रखते है वे ही श्रेष्ठ योद्धा माने जाते हैं । उन सेनाओं में सबसे वीर वती नारी है । उससे जो बच जाये उसे कोई नहीं जीत सकता । हे तात ! काम क्रोध और लोभ ये तीनों ही प्रबल दुष्ट हैं । ये विज्ञान प्राप्त मुनियों को भी क्षण भर में अपने वश में कर लेते हैं । लोभ को इच्छा , दम्म का बल और काम को केवल स्त्री का बल है । श्रेष्ठ मुनियों का यही विचारना है । शिवजी पार्वती से कहते हैं कि राम तीनों गुणों से परे हैं । चराचर जगत के स्वामी हैं और सबके अन्तर की जानने वाले हैं । इसलिए उन्होंने कामी जनों के मन की कमजोरी को समझाया है तथा धीर पुरुषों के मन में वैराग्य को दृढ़ करना चाहा है । काम , क्रोध , लोभ , मद और मान सभी रामजी की दया से छूट जान वाले रोग है । ये जिस पर प्रसनन हो जाते हैं वे इस जाल में नही फँसते । हे पार्वती , मैं अपने इस अनुभव का सही वर्णन किया है । भगवान राम का स्मरण भजन ही सत्य है बाकी सब स्वप्न है ।
 इसके बाद रामचन्द्र जी पम्पासर के पास पहुँच गये । सरोवर , वन , अंचल में स्थित प्राकृतिक छटा , वातावरण , वन्य जीव , पक्षी , पादप , लता वितान , वृक्ष पुष्प , भ्रमर और तितलियाँ सरोवर में हँस , स्वच्छ जल , एवं कमल की शोभा अनिर्वचनीय रुप ले रखी थी , जिसे देखकर देवलोक भी तरसते थे । भगवान राम और लक्ष्मण वहाँ पधार कर प्रफुल्लित थे । उन्हें जानकर वन के मुनि समह भी आकर उनसे मिल आनंदित अपने भाग्य को सराहने लगे । उसी समय नारद जी को पत्नी के वियोग में व्याकुल श्री राम जी के प्रति अपने शाप की बात याद आयी । चंचल मति नारद अपनी बात ऊपर करने के ख्याल से पहुँचकर अवधपति राम का गुणनुवाद करते हए सश्रद्धा मिले । भगवान भक्तों के हित चिनतक सरल हृदय उनके प्रेम भरे वचन सुन उनकी प्रसंशा करने लगे । जब नारद जी ने प्रभु को अपने प्रति उदार देख उनसे मन की बात रखी :-
 विरहवंत भगवन्तहि देखी । नारद मन भा सोच विसेखी ।।
 मोर शाप करि अंगीकारा । सहत राम नाना दुख भारा ।।
 
 दो ० नाना विधि विनती करि , प्रभु प्रसन्न जियें जानि ।
 नारद बोले वचन तब , जोरि सरोरुह पानि ।।
 
 अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी । पुनि नारद बोले मृदुवानी ।।
 काम जबहि प्रेरेउ निज माया । मोहेहु मोहि सुनहु रघु रामा ।।
 
 तब विवाह मैं चाहउँ कीन्हा । प्रभु केहि करण करैन दीन्हा ।।
 सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा । भजहि जो मोहि तजि सकल भरोसा ।।
 
 करउ सदा तिन्ह के रखवारी । जिमि बालक राखहि महतारी ।।
 गह शिशु बच्छ अनल अहि घाई । तहँ राखई जननी अरगाई ।।
 
 पौढ़ मये तेहि सतपर माता । प्रीति करई नहि पाछिल बाता ।।
 मोरे प्रौढ तनय सम जानी । बालक सुत सम दास अमानो ।।
 
 भगवान कहते है कि मेरे सेवक को तो मेरा ही बल रहता है । ज्ञानियों को अपना बल होता है । परन्तु काम क्रोधादि शत्रु तो दोनों के ही होते है । इसलिए भक्तों के शत्रुओं को मारने की जिम्मेदारी मुझ पर होती है क्योंकि वह मेरे परायण होकर मेरे अलावा और किसी को अपना रक्षक नहीं मानता । ऐसी परिस्थिति में ज्ञानियों की रक्षा का भार मुझ पर नही आता । यह विचार कर ज्ञानी लोग भी मुझे ही याद करने लगते हैं । ज्ञानी पुरुष ज्ञान पाकर भी भक्ति नहीं त्यागते ।
 काम , क्रोध , मोह , मद , लोभ इत्यादि अज्ञानता की सेना हैं । इनके बीच माया रुपी नारी तो दारुण दुख देने वाली है । संत , पुरुष , वेद , पुराण , शास्त्र भी बतलाते है कि काम क्रोध , मद , मोह , रुपी जंगल के विकास के लिए नारी वसन्त ऋतु के समान है । जप , तप , योग ये सभी तालाव हैं जिन्हें नारी सोख लेती है । फिर माया रुपी मेढकों को बचा लेने के लिए वही नारी वर्षा का काम भी करती है । बुरी वासना रुपी कमल के फूल समूह के लिए फिर वह नारी सुख पूर्वक पालती पोसती है । मानिये कि सभी धर्म कमल पुष्प के समूह हैं जिन्हें शरद ऋतु के रुप नारी पाला बनकर जला डालती है तो उस स्थान पर जवासी जैसी घास स्त्री रुपी शिशिर ऋतु में हरी – भरी हो हो जाती है । पाप रुपी उल्लुओं के समूह को सुख पहुँचाने वाली घोर अंधकार रुपी रात्रि नारी ही है । बुद्धि , बल , शील , सभी निरीह मछलियों की तरह हैं जिन्हें मारने के लिये युवती नारी वंशी की तरह है जो उन्हें भी फंसा लेती है । युवती नारी घोर अवगुणों की खान हैं । काँटे की तरह प्रखर और दुख दायिनी है हे महामुनि ! मैंने यह सोचकर आपके जीवन में आने वाले सम्भावित कष्ट के निवारण के लिए ही आपका विवाह न होने की लीला करवायी ।
 सुनि रघुवर के वचन सुहाये । मुनि तन पुलक नयन भरिआए ।।
 कहहु कवन प्रभु कै असि रीति । सेवक पर ममता अरु प्रीति ।।
 
 जो न भजहि अस प्रभु भ्रम त्यागी । ज्ञान रंक नर मंद अभागी ।।
 पुनि सादर बोले मुनि नारद । सुनहु राम विज्ञान विशारद ।।
 
 संतन्ह के लक्षण रघुवीरा । कहहु नाथ भव भंजन भोरा ।।
 सुनु मुनि संतन्ह के गुण कहहु । जिन्ह से मै उनके वस रहहु ।।
 
 षट् विकार जित अनध अकामा । अंचल अकिंचन सुचि सुख धामा ।।
 अमित दोघ अनीह मितभोगी । सत्य सार कवि कोविद जोगी ।।
 
 छ : दोष ( काम क्रोध , लोभ , मोह , मद और मत्सर ) इनको जीत कर जो पापरहित , कामना रहित निश्छल ( स्थिर बुद्धि ) अकिंचन ( सर्वस्व त्यागी ) बाहर – भीतर से पवित्र , सख के धाम , असीम ज्ञानी , इच्छा रहित , मिताहारी , सत्यनिष्ठ , कवि विद्वान , योगी , सावधान , दूसरों को सम्मान देने वाला , अभिमान रहित , धैर्यवान , धार्मिक , आधार निष्ठ , गुणवान , सांसारिकता से दूर और विगत संदेह होते है , वे भक्ति में लीन होते हैं । न उन्हें शरीर प्रिय होता है न घर ही , कानों से अपनी बड़ाई सुनाने में संकोच करते है , दूसरों का गुण सुनकर हर्षित होते हैं और सबसे प्रेम भाव रखते है । जप , तप , योग , व्रत , दम , संयम और नियम में रत होते हैं । गुरु गोविन्द और ब्राह्मण के चरणों में प्रेम रखने वाले श्रद्धा , क्षमा , मैत्री , दया , प्रसन्नता और ईश्वर में निष्कपट प्रेम , वैराग्य , विवेक , विनय , विज्ञान ( परमात्म तत्व का ज्ञान ) और वेद शास्त्र का ज्ञान रखते हुए कुमार्ग पर पैर नहीं रखते हैं । हरि कथा के श्रवण तथा निष्काम दूसरों की भलाई में जुड़े होते हैं , ये सारे सन्तों के ही गुण हैं ।
 दो ० दीप सिखा सम युवति तन , मन जनि होसि पतंग ।
 भजहि राम तज काम मद करहि सदा सतसंग ।।

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