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दीनता के प्रहार को संवेदना का स्वर चाहिए ।

डा० जी० भक्त

विकसित समाज और उपभोक्तावादी परिवेश में दीनता तब असह्य होती है जब परिवार को अपनी आवश्यक आवश्यकताओं पर आर्थिक विपन्नता की चोट पड़ती है । यहाँ पर परमुखापेक्षित जीवन में बेरोजगारी की मार देश के अन्दर दुखद स्थिति ( नेशनल बैलेडी ) और तवाही लाती हैं ।

खासकर भारत जैसे देश में लम्बी अवधि तक साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा लूट और गुलामी झेलनी पड़ी , आर्थिक दीनता , संस्कृति पर प्रहार , कला शिल्प और गृह उद्योगों की समाप्ति के साथ केन्द्रित मिल उद्योगों द्वारा शोषण एक गंभीर समस्या का जन्म दिया , जिसे हम गरीबी कहते हैं ।

जब अंग्रेजी सत्ता ने नौकरी देने वाली शिक्षा का माहौल तैयार कर हमे सदा परतंत्रता झेलने के लिए छोड़ दिया । स्वतंत्रता के बाद हमारी सरकार जो महात्मा गाँधी द्वारा सुझाये गये मार्ग को न अपनाकर स्वावलम्बन के सिद्धान्तों पर खड़ी न उतर पायी तो रोजगार भी सृजित न हुए । आज वेरोजगारी की बाढ़ सी – विकसित स्थिति लेकर उपस्थित है तो नियोजन की गति धीमी और पद वर्षो से रिक्त है । वहाँ पर संतोष अपनाने और धैर्य धारण की सीमा टूट कर पलायन भी अपनाकर पेट न भर पा रहा ।

अब वह समय आ गया है जहाँ दीनता के प्रहार को संवेदना का स्वर चाहिए वहाँ धैर्य की सीमा टूट रही और सहिष्णुता खो रही । शान्ति सबके हित में और प्यारी लगती है किन्तु असहिष्णुता से समाज का स्वरूप कैसा रूप लेगा ? वहाँ तो विरोध , संघर्ष और आक्रोश तो स्वाभाविक गति पायेगा जिसे सत्ता संवरण करना न चाहेगी । फिर गणतंत्र का जनमंगल कौन – सा भाव लेकर दीन जनों का कष्ट हरण और जीविकोपार्जन का लक्ष्य परिपूर्ण करेगा ?

इस युगीन परिवेश में युगबोध ही सर्व सम्मत और जनमत का पोषण सह शान्ति , प्रगति और समृद्धि ( Progress and prosperity ) का दाता बन सुदृढ़ जनतंत्र तैयार करने में सहायक होगा ।

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