Thu. Apr 25th, 2024

प्रभाग-18 द्वितीय सोपान अयोध्या काण्ड रामचरितमानस

 
 अवध सचिव सुमन्त्र जी के अयोध्या के लिए लौटने के बाद मात्र तीन ही बनवासी ठहरे । तीनों गंगा नदी के किनारे पहुँचकर पार करने हेतु केवट से नाव लाने की याचना की । केवट को मुनि पत्नी अहिल्या को शापवश पाषाण रुप में पड़े रहने पर विश्वामित्र के साथ जाते हुए रामजी के चरण स्पर्श से जो सद्गति मिली थी , उसकी जानकारी थी । उसे नाव लाने में हिचक हुयी । कहा कि मैं आपके हृदय की बात समझता हूँ । सभी कहते है कि आपके पॉव की धूलि में मनुष्य बना डालने का गुण है । जब पत्थर छू जाने से नारी वन गयी , तो काठ की बनी मेरी नौका तो उससे कठोर नहीं है । जब पत्थर मुनि की पत्नी बन सकती है तो मेरा नाव कही उड़ न जाये । इसी से कमाकर सारा परिवार चलाता हूँ । इससे अलग मेरी कोई दूसरी पेशा नहीं है । केवट के प्रेम से लिपटे अटपटे बचन सुनकर रामजी को हंसी आयी । सीता और लक्ष्मण की ओर ताककर उन्होंने कहा कि वही करो जिससे तेरे नाव की हानि न हो । जल्दी जल लाकर पॉव परवार कर पार कराओ देर हो रही है ।
 जिनका नाम लेने पात्र से लोग संसार सागर को पार कर जाते है , वे एक नदी पार करने के लिए निहोरा करते हैं । उन्होंने तो पूरे संसार को अपने पैर से तीन पग से भी कम कर दिया । जब गंगाजी ने नजदीक से रामचन्द्र जी के पैर पर झोंका तो उन्हें समझ में आ गया कि सचमुच मेरी उत्पति का स्थान श्रीराम के चरण ( नख ) है । केवट भी रामजी की आज्ञा पाकर जैसी उसने उनसे याचना की थी जाकर कठौता भर लाया । बड़े प्रेम और उत्साह से उसने भगवान के पॉव धोये । इससे बढ़कर पुण्य क्या होगा जो कवट को प्राप्त हुआ । उसने चरणामृत का पान किया और उसने अपने पूर्वजो का कल्याण किया फिर तीनों बनवासियो को गंगा पार कराया ।
 नाव से उतरकर प्रभु श्री रामजी , सीता , लक्ष्मण और केवट रेत पर खड़े है । अपने पति के हृदय की बात समझने वाली सीता अपनी अंगुली से रत्न जटित अंगूठी निकाल कर बढ़ायी । केवट इस विषय पर वेचैन हो गया । वह चरण पकड़कर भगवान से विनती किया- हे प्रभा ! आज मैं आप से क्या नहीं पाया । सारा दोष दारिद्रय मिट गया । जीवन भर तो मैंने बहुत मजदूरी की , परन्तु आज ब्रह्माजी ने भरपूर मजदूरी दी । अब मुझे कुछ न चाहिए आपकी कृपा के अतिरिक्त । लौटती वार आप जो कुछ देंगे उसे मै प्रसाद जानकर धारण करूँगा । भगवान राम , लक्ष्मण और सीता ने बहुत प्रयास किये , पर केवट नहीं माना । तब भगवान ने अपनी निर्मल भक्ति प्रदान कर विदा किया ।
 फिर रामचन्द्र जी ने शिवजी का पार्थिव पूजन कर प्रणाम किया । माता सीता ने गंगाजी से अपनी वन यात्रा की सफलता की याचना की ।
 पति देवर संग कुशल बहोरी । आई करौ जेहि पूजा तोरी ।।
 सुनि हिय विनय प्रेम रस सानी । भइ तब विमल वारि वर वानी ।।
 
 सुनु रघुवीर प्रिया वैदेही । तब प्रमानु जग विदित न केहीं ।।
 लोकप होहि विलोकत तोरे । तोहि सेवहि सब सिधि कर जोड़े ।।
 
 तुम्ह जो हमहि वरि विनय सुनाई । कृपा कीन मोहि दीन्ह बड़ाई ।।
 तदपि देवि मै देवी अशीसा । सफल होन हित निज वागीसा ।।
 
 प्राण नाथ देवर सहित , कुशल कोसला आई ।
 पूजहि सब मनकामना सुजसु रहहि जग छाई ।।
 
 गंगा बचन सुन मंगल मूला । मुदित सिय सुरसरि अनुकूला ।।
 तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू । सुनत सूख मुख भा उर दाह ।।
 
 तब केवट आर्त स्वर मे बोला – हे रघुकुल शिरोमणि ! मैं आपके साथ रहकर , रास्ता दिखाकर चार दिन चरणों में सेवा करके आप जिस जंगल में जायेंगे , वहाँ में पर्णकुटी बना दूंगा । तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे , मैं वैसा ही करूँगा ।
 केवट का सहज प्रेम देख प्रभु ने उसे अपने साथ रख लिया । वह बहुत आनंदित हाकर उनके साथ वन की ओर चला ।
 उस दिन एक वृक्ष के नीचे रहना पड़ा । लक्ष्मण तथा सखा केवट ने सोने के लिए विछावन की व्यवस्था कर ही । शौचादि से निवृत होकर रामचन्द्र जी तीर्थ राज प्रयाग देखने चले । प्रयाग राज का वर्णन करते हुए प्रभु ने कहा- सत्य जिसके मंत्री है । श्रद्धा पत्नी है । त्रिवेणी माधव जी जैसा हितैषी मित्र है । धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष चारो फल के भंडार भरे है , वही पुण्यमय प्रान्त प्रयाग राजा का सुन्दर देश है । प्रयाग का क्षेत्र दुर्गम , दृढ़ और सुन्दर किला जैसा है , जिसके स्वप्न में भी शत्रु नही पाये गये । सम्पूर्ण तीर्थ ही उसके वीर सैनिक है । ये सभी पाप की सेना को समाप्त कर डालते हैं । गंगा , यमुना और सरस्वती का सगम ही उस राजा का सिहासन है । अक्षयवट उसका छत्र है । वह मुनियों के मन को मोहित करते हैं । गंगा और यमुना जी के श्वेत और श्यामली तरंगे चॅवर का काम करती है जिन्हें देख दुख और दरिद्रता दूर हो जाती हैं । पुण्यात्मा और पवित्र साधुगण उनके सेवक । है जो सारे मनोरथों की सिद्धि पाते हैं । वेद और पुराण उनके कविगण है । वे सभी उनका गुणगान करते हैं । पापों के समूह रुपी हाथियों के लिए सिंह रुप प्रयाग राज का महात्म्य कौन वर्णन कर सकता है । ऐसे तीर्थ राज का दर्शन कर भगवान का हृदय सुख का अनुभव किया । उन्होंने इसकी व्याख्या लक्ष्मण , सीता और अपने सखा केवट को सुनायी फिर उन्हें लेजाकर त्रिवेणी के दर्शन किये । स्नान कर शिवजी की पूजा की फिर तीर्थ के देवताओं की भी पूजा की । इसके बाद भारद्वाज मुनि के पास पहुंचे ।
 गोस्वामी जी ने रामचरित की रचना करते हुए प्रयाग राज के प्रसंग को व्यक्तिकृत कर उनके विविध स्वरुपों को जीवन्त रुप दिया है जो अनुपम उत्तमोत्तम भाव से भरे हैं । इसमें भारतीय आर्ष संस्कृति की झलक के साथ प्रयाग राज का भौगोलिक परिदृश्य एवं आध्यात्मिक महत्त्व भी उद्घाटित हुआ है । यहाँ कवि की कल्पना मूर्त रुप ले रखी है ।
 मुनि से मिलकर दोनों ही आनंदित हुए । मुनि ने उन्हें आर्शीवाद दिया । उन्हें ऐसा लगा जैसे विधाता ने राम लक्ष्मण और सीता के दर्शन कराकर उनके सम्र्पूण पुण्यों का फल उनकी आखों के समक्ष रख डाला है ।
 महामुनि ने आसन , पूजन , पवित्र वचन और कन्द मूल के भोजन सत्कार से परिपूरित कर थकान मिटाया । हे राम ! आपके दर्शन पाकर मेरा तप , तीर्थ सेवन और त्याग सफल हो गया । जप , योग और वैराग्य का फल पाया । मेरे सभी शुभ साधनों के समूहभी कृतार्थ हो गये । प्रभु के दर्शन को छोड़कर विश्व में लाभ और सुख की कोई सीमा नही हैं । मेरी सभी आशायें पूरी हो गयी । आप अब इतना ही वरदान दीजिए कि आपके चरण कमलों में मेरी भक्ति स्वाभाविक हो ।
 जब तक कर्म , वचन और मन से छलकपट छोड़कर मनुष्य आपका दास नहीं बन जाता , तब तक करोड़ो प्रयास करने पर भी वह सुख नहीं पाता । मुनि भारद्वाज जी की ये वाणी सुन – सुन कर रामचन्द्र जी संकोच अनुभव कर रहे थे । उन्होंने बड़े संकोच से मुनिवर से कहा – जिसे आप अपने मुँह से आदर दें , वही महान है । वही सारे गुण समूहों का घर है । भगवान और मुनि भारद्वाज का परस्पर विनम्रभाव से भरा संवाद अनिर्वचनीय सुख प्रदान करता है । इसकी खबर पाकर प्रयाग निवासी ब्रह्मचारी , पतस्वी , मुनि , सिद्ध और सन्यासी भगवान को देखने भारद्वाज आश्रम पहुँचे । रामचन्द्र जी ने सबों को प्रणाम किया । सभी ने उनके दर्शनों का नेत्र भर कर लाभ लिया । परम सुख पाकर आशीष दिये और उनका गुणगान करते हुए लौटे । उसी आश्रम में रामचन्द्र जी का रात्रि विश्राम हुआ । प्रातः काल प्रयाग स्नान कर मुनि को दण्डवत कर राम लक्ष्मण और सीता आगे वन की ओर बढ़े । राम जी ने पूछा कि किस मार्ग से जाना अच्दा होगा ? मुनि ने हँसकर कहा आपके लिए तो सब मार्ग सुगम ही है । कहकर उन्होंने अपने शिष्यों को सूचित किया । बड़े उत्साह और स्नेह से पचास की संख्या में शिष्य आ गये । उनमें से चुने हुए चार शिष्यों को उनके साथ लगा दिये जिन्हें वन मार्ग की अच्छी जानकारी थी । उन शिष्यों का भी किसी जन्म का सुकृत संचित था , जो राम का संग स्नेह प्राप्त हुआ ।
 ग्रामीण क्षेत्र से जब वे गुजरते थे तो नर नारियाँ अपना काम छोड़कर देखने दौड़ती थी । दर्शन पाकर आनन्द तो पाती थी किन्तु लौटकर उन्हें हृदय में तो सुख पाती थी किन्तु शरीर साथ न होने से उन्हें दुःख होता था अर्थात वियोग का कष्ट होता था । तब उन्होंने सहयोगी शिष्यों को विदा किया । यमुना नदी में प्रवेश कर नदी के श्याम – जल में स्नान किये । यमुना नदी के किनारे बसे ग्रामवासी काम छोड़कर दौड़े आये और तीनों तपस्वियों की सुन्दरता के दर्शन कर अपने भाग्य को सराहने लगे । दर्शनार्थियों में उनके नाम ग्राम जानने की लालसा थी जिसे प्रकट कहने में संकोच कर रहे थे । उनमें वयोवृद्ध समझदार थे वे तो अनुभव से समझ गये । उन्होंने राम वनवास की कथा कह समझाये । नारियाँ सुनकर उदास मन से कहने लगी कि राजा और रानी को ऐसा नहीं करना चाहिए था।
 उसी समय अचानक एक छोटी उम्र का तेजस्वी प्रकाश पुंज सदृश तपस्वी प्रकट हुआ । वैरागी वेश में था । तलसी दास का हृदय भी लिखते समय नहीं समझ पाये । उन्होंने उसे ” अखिलित गति ” की संज्ञा दी है । या तो वह कोई कवि था , सन्यासी अथवा भक्त हनुमान या कवि तुलसी दास की ही भावना वहाँ प्रकट हो रही थी राम के दर्शनों के हेतु । उनके इष्ट देव को चहचान कर प्रसन्न हो दण्डवता प्रणाम किये । रामचन्द्र जी उन्हें प्रेम से गले लगाये । दर्शकों ने कहा कि प्रेम और परमार्थ दोनों शायद शरीर धारण कर आपस में मिल रहे हो । यह घटना रहस्य मय है । बारी – बारी से सीता लक्ष्मण और केवट से भी भेंट मिलन हुए ।
 इधर गाँव की भी नारियों कह रही थी । कि उनके माता – पिता कैसे है जो ऐसे सुन्दर सुकुमार बालकों को वन में भेज दिये । फिर रामचन्द्र जी ने बहुत समझा – बुझा कर केवट को घर जाने का आदेश दिया । केवट उन्हें प्रणाम कर प्रस्थान कर गये । यमुना नदी को प्रणाम कर उनका गुणगान करते तीनों वहाँ से चल पड़े । रास्ते में अनेक ऐसे लोग भी मिले जो उनके अंग – अंग को देखकर कह रहे थे कि इनके शरीर में राज चिन्ह वर्तमान है । फिर ये पैदल चल रहे हैं । समझ में नहीं आता कि यहाँ ज्योतिष भी झूठा लग रहा है । कठिन जंगल और दुर्गम मार्ग , साथ में सुकुमारी स्त्री है । भयानक जन्तुओं से भरा । आज्ञा हो तो आप जहाँ तक जायेंगे हम वहाँ तक पहुँचाकर फिर लौट आयेंगे । किन्तु कृपा सागर भगवान उन्हें अपने प्रिय वचनों से संतुष्ट कर लौटा देते है ।
 जो गाँव या नगर रास्ते में पड़ते हैं । जहाँ – जहाँ राम जी के चरण जाते है । जो नेत्र भर राम सहित लक्ष्मण और सीता को देखते है । जिस वृक्ष के नीचे रामचन्द्र जी आकर बैठते हैं , हर जगह उनकी सुन्दरता उनकी अवस्था आदि की अकथनीय चर्चा होती है । सभी अपने भाग्य को सराहते हैं । समय और प्रकृति भी उनका साथ देती है । बालक वृद्ध , स्त्री – पुरुष सभी सजल नेत्रों से उनका रुप निहारते है । कोई साथ लग जाता है । कोई ठहरने के लिए आसन बिछाता है । कोई कलश में पानी भर कर लाते और उन्हें आचवन करने का आग्रह करते हैं । जब कहीं सीता जी को थकी जानकर कुछ क्षण के लिए वृक्ष की छाया में ठहर गये तो नर – नारियों का समूह जुट गया । सभी उनको देखकर तरह – तरह से अनुमान लगाने लगते हैं । उनके असीम स्नेह से सुख – दुख का संगम अलौकिक दृश्य लाता है । राम सब कुछ समझते हैं । जब लोग उनके साथ लग जाते है वे उन्हें तरह – तरह से समझाकर अपने लक्ष्य से अवगत कराते हैं । वे भी उन्हें सुगम मार्ग दिखलाकर उनके रुप को मन में बैठाकर लौट जाते हैं । रामजी भी उनके स्नेह को हृदय मे स्थान देकर आगे बढ़ते है । लौटते हुए ग्रामवासियों को सोचते हुए बहुत कष्ट होता है कि वनबास का यह अवसर देख कर विधाता से क्या कहा जाय । एक ओर किशोर उम्र के राजकुमार , कोमल शरीर , खाली पैर , वन का मार्ग । अगर विधाता को बनवास ही देना था तो उनके अनुकूल और अनुरुप क्यों , न विधान किया ? प्रकृति मैं जिस विधाता ने सुख , समद्धि वैभव सब कुछ देकर व्यर्थ किया जब राम , लक्ष्मण और सीता को इस अवस्था में डाल रखा , कैसा कठोर है विधिका विधान ? सोचते हुए सभी व्याकुल हैं ।
 जब राजकुमार होकर मुनिवेश और जराधारी वन में विहर रहे है तो करोड़ों के वस्त्र और आभूषण व्यर्थ ही बने । जब वन में तीनों कन्द – मूल खाकर वसर करते है , सारे अमृत भोग व्यर्थ ही बने ।
 जहाँ तक हमारे नेत्रों , कानों और मन के अनुभव में आने वाली विधाता की करतूती है जिसका वेदों में वर्णन आया है । अगर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में खोजा जाय तो ऐसे पुरुष और ऐसी नारी नही है । शायद इन्हें देखकर विधाता ने इनकी उपमा के योग्य स्त्री – पुरुष बनाना शुरु किया । बहुत परिश्रम करने पर भी पूरा न हुआ तो इष्या के मारे उन्हें जंगल में भेज दिया । किन्तु दूसरे ने कहा कि हम इतनी कहानी न कह कर इतना ही मानते है कि हम जिनका दर्शन कर रहे हैं यह हमारा भाग्य है और जो लोग देख रहे हैं , देखा ह , देखेंगे , वे भी बड़े भाग्यशाली है ।
 वे माता – पिता धन्य है जिन्होंने जन्म दिया । वह गाँव या नगर धन्य है जहाँ से वे आये । वह पर्वत , देश , वन या गाँव धन्य है , वही स्थान धन्य है जहाँ पर वे जा पाते हैं ।
 ब्रह्मा ने उसे ही रचकर सुख पाया है जिनके लिए राम सब प्रकार से स्नेही है । पथिक के रुप में राम और लक्ष्मण की कथा सम्पूर्ण वन और रास्ते में छा गयी है ।
 इसी प्रकार रामचन्द्र जी रास्ते में लोगों को सुख पहुँचाते हुए लक्ष्मण और सीता के सथ वन को देखते हुए चले जा रहे हैं । सुन्दर , वन , तालाब , और पर्वत देखते हुए श्री रामचन्द्र जी वाल्मीकि मुनि के आश्रम में आये । उनका आगमन सुन वाल्मीकि मुनिजी उन्हें बुलाने आगे आये । रामजी ने मुनि को प्रणाम किया और आशीष पाये , आश्रम में रामचन्द्र जी को बहुत सम्मान मिला । कन्द , मूल , फल खाकर सबों ने विश्राम किया । तदन्तर रामजी बोले हेमुनि श्रेष्ठा , आपतो त्रिकालदर्शी है । सम्पूर्ण विश्व एक बेर फल के समान आपकी तलहथी पर है । ऐसा कहकर बन गमन की सारी कथा कह डाली । कैकेयी द्वारा बनवास दिये जाने के सारे वृत्तांत उनके समक्ष निवेदित किये । पिता की आज्ञा , माता का हित , भरत जैसे स्नही और महात्मा भाई की राज गद्दी और फिर जंगल में आप सबों के दर्शन तो मेरे ही पुण्यों का फल है । यह सुनकर मुनि बोले- हे राम ! जगत दृश्य है और आप देखने वाले हैं । आप ब्रह्मा , विष्णु और शंकर जी को अपने वश में करने वाले है । भेद की मर्यादा के रक्षक जगत के ईश हैं । जानकी जी माया है । आपके ही आश्रय से जगत का सृजन पालन और संहार करती है । शेषनाग जी ही लक्ष्मण है । देवताओं के हित में आप राम के रुप में राक्षसों का नाश करने वाले हैं । आपका स्वरुप , वाणी , बुद्धि से परे अगोचर अव्यक्त , अकथनीय और अपार हैं । वेद आपको नेति – नेति कहा करते है । हे राम ! आपका चरित्र देखकर और सुनकर मूर्ख तो मोहित होते ही है और बुद्धिमान सुख अनुभव करते है । आप जो कुछ भी कहते या करते है वह सब कुछ सत्य ही है । जो स्वांग भरते है उसे तो नाचना पड़ेगा ही । आप जब सगुण रुप ( नर – रुप ) में अवतार लिए तो आपको नर लीला करनी ही है । आप पूछते है कि मैं कहा रहूँ ? मुझे आपसे पूछते हुए संकोच होता है कि आप कहाँ नहीं है । अर्थात आप सर्वत्र है । आप ही बतलाइए कि आप कहाँ नही है ? तो मै आपको रहने की जगह सोचकर बतला दूँ । इन रहस्यमय बातों को राम सुनकर मुस्कुराये तो बाल्मीकि जी ने कहा- मैं उन स्थानों का नाम बतलाता हूँ जहाँ आप तीनों निवास करें । भाँति – भाँति से मुनि ने रहस्य मय ज्ञान देते हुए उनके सच्चिदानन्द स्वरुप की एक छोटी सी झाँकी पाने के लिए उस संसार सागर और सुखों की खान पृथ्वी , स्वर्ग और ब्रह्मलोक को त्याग कर ध्यान लगाये रहते हैं उनके हृदय स्थल में आप सुख से निवास कर सकते है । जिनके कान समुद्र के समान है और आपकी कथा सुन्दर – सुन्दर नदियों के समूह जैसे है जो उसे सुनकर अघाते नही , उनके हृदय में आप बसें । उसी तरह ज्ञानी मुनि ने उन्हें असंख्य उदाहरणों के साथ उन्हें सराहना सदृश भक्ति के उन आयामों का अख्यान करते है जो ज्ञान – कर्म की सीमा है ।
 सीस वनहि सुर गुरु द्विज देखि । प्रीति सहित करि विनय विसेखी ।।
 कर नित करहि राम पद पूजा । राम भरोस हृदय नहि द्जा ।।
 
 चरण राम तीरथ चलि जाही । राम वसहूँ तिन क मन माही ।।
 मंत्र राजू नित जपहि तुम्हारा । पूजहि तुन्हहि सहित परिवारा ।।
 
 परपन होम करहि विधिनाना । विप्र जेवाइ देहि बहु दाना ।।
 तुमते अधिक गुरहि जिय जानि । सकल भाय सेबहि सनमानी ।।
 
 दो ० सबु करि भॉगहि एक फलु राम चरण रति होउ ।।
 तिनके मन मंदिर वसहुँ सिय रधुनन्दन दोउ ।।
 
 काम क्रोध मद मान न मोहा । लोभन छोभ न रागन दोहा ।।
 जिनके कपट दम नहि माया । तिन्ह के हृदय वसहु रधुण्या ।।
 
 सबके प्रिय सबके हितकारी । दुख सुख सहित प्रशंसा जारी ।।
 कहहि सत्य प्रिय वचन विचारी । जागत सोवत शरण तुम्हारी ।।
 
 तुम्हहि छाड़ि गति दूसर नाही । राम बसहु तिन्ह के मन माही ।।
 जननी सम मानही पर नारी । धनु पराव विष से विष मारी ।।
 
 जे तरषहि पर सम्पति देखी । दुखित होहि परविपति विसेकी ।।
 जिन्हहि राम तुम प्राण पियारे । तिनके मन शुभ सदन तुम्हारे ।।
 
 दो ० स्वानि सखा पित – मातु गुरु जिनके सब तुम्हतात ।
 मन मंदिर तिन्ह के बसहु सिय सहित दोउ भ्रात ।।
 
 अवगुन तजि सबके गुण गहहि । विप्र धेनु हित संकट सहहो ।।
 नीति निपुन जिन्ह कई जग लोका । घर तुम्हार तिनकर मन नीका ।।
 
 गुण तुम्हार अवगुन निज दोषा । जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा ।।
 राम भगत प्रिय लागहि जेही । तेहिउर बसहुँ सहित वैदेही ।।
 
 जाति पाति धन धरमु बड़ाई । प्रिय परिवार सदन सुख दायी ।।
 सब तजि तुम्हहि रहई उर लाई तेहि के हृदय रहहु रघुराई ।।
 
 सरगु नरकु अपवरगु समाना । जहँ तहें देख धरही धनु वाना ।।
 करम वचन मन राउर चेरा । राम करहु तिन के उर डरा ।।
 
 दो ० जाही न चाहि कबहु कछु तुम्ह सम सहज सनेहू ।
 बसहु निरंतर तासु मन , सा राउर निज गोहू ।।
 
 सहि विधि मुनिवर भव न देखाये वचन सप्रेम राम मन भाए ।।
 कह मुनि सुनहू मानूकुलनायक । आश्रम कहउँ समय सुखदायक ।।
 
 चित्रकूट गिरि करहू निवासु । तँह तुम्हार सब भॉति सुपासु ।।
 शैलु सुहावन कानन चारु । करि केहरि मृग विहग विहारु ।।
 
 नदी पुनीत पुराण वखानो । अत्रि प्रिया निज तप वल आनी ।।
 चलहु सफल श्रम सबकर करहू । राम देहू गौरव गिरि वरह ।।
 
 दो ० चित्रकूट महिमा अमित कही महामुनि साई ।।
 आइनहाय सरित वर सिय समेत दोउ भाई ।।
 
 रामजी के कथनानुसार नदी का घाट बहुत सुन्दर था । वही पर उन्होंने लक्ष्मण जी से कहा कि ठहरने की व्यवस्था की जाय । लक्ष्मण जी ने आकर देखा और रामचन्द्र जी को बतलाया । उनके मन को वह स्थान अच्छा लगा । जब दवताओं को उनके पसन्द की जानकारी मिली तो देवताओं के प्रधान शिल्पी विश्वकर्मा जी वहाँ पहुँचे । अन्य सभी देवता कोल भील के वेष में आकर घास और पत्ता से दा सुन्दर पण कुटी का निर्माण किये जिनमें एक छोटा और दूसरा बड़ा था । वही पर रामचन्द्र जी सीता और लक्ष्मण के साथ सुख से रहने लगे । चित्रकूट पर्वत के वन्य क्षेत्र की शोभा और जन्तुओं पक्षियों का परिवार देख सभी प्रसन्न रहने लगे । विविध चिन्तन , स्नेह , संयम , सुरक्षा के साथ समय गुजरने लगा । इसी बीच कभी अयोध्या कभी वहाँ की प्रजा , माता पिता और भाई की याद आती ।
 गोस्वामी तुलसीदास जी ने बनवास का वर्णन किया । इसके बाद सुमन्त्र जी के अयोध्या पहुँचने का वृतान्त आता है ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *