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भाग-2 धर्म एवं अध्यात्म

45. ईश्वर को धर्म से जोड़कर प्रभावी बनाने का प्रयास किया गया । इस व्यवस्था से भक्ति भावना का जन्म हुआ जो हमारे ज्ञान का विषय बना । अध्यात्म प्रकट हुआ ।

 46. हमारा ज्ञान और विज्ञान प्रकृति का ही रहस्योद्घाटन है ।

 47. ज्ञान का वह पहलू जो प्रकृति की एकता और संतुलन का पक्ष रखता है , वह अध्यात्म ज्ञान है ।

 48. प्रथमतया हम अपने शरीर और उसके अवयवों की कार्य प्रणाली को जाने तो प्रकृति की एकता का स्पष्ट आभास मिलेगा ।

 49. इस समष्टि या वैश्विक एकता को विषय बनाकर चलना ही हमारे धर्म की शिक्षा है ।

 50. यहाँ पर धर्म अधूरा है । अध्यात्म ज्ञान के अभाव में धर्म आडम्बर है ।

 51. अध्यात्म से धर्म फलित होता है । धर्म अगर आँख मूंद कर चलने की बात कहता है तो वह पाखण्ड है । धर्म मे जो दृष्टिकोण या ज्ञान का प्रकाश या धर्म का जो निहितार्थ है , वही अध्यात्म है ।

 52. अध्यात्म का प्रतिफलन योग से होता है ।

 53. योग द्वारा हम अपने शरीर के अदेही सत्वों से साक्षात्कार करते हैं । उसके रुप को हम उसके प्रकाश के माध्यम से समझते हैं ।

 54. सतोगुण का प्रकाश धवल ( श्वेत ) होता है , रजोगुण पीला तथा तमोगुण नीला , कालिमायुक्त जमुनिया होता है ।

 55. आनुपातिक स्तर पर इन गुणों को गहरे , मध्यम तथा धुंधले रुप में पाते हैं । आवेश की स्थिति में लालिमा युक्त होता हैं । रंगों की स्थिति उसकी अवस्था का घोतक होती है ।

 56. हर्ष और शोक की अवस्थायें भी अपनी विशेष आभा प्रदर्शित करती हैं जैसे वाघयंत्रों या रेडियो वगैरह में बिजली के इंडिकेटर के प्रकाश स्वर के स्पंदन मात्र से प्रभावित होते हैं । उसी प्रकार स्नायुमंडल के विशेष आवेगों का भी उनकी आभा पर असर होता है ।

 57. आत्मा बिन्दु रुप में शुभ्र प्रकाशमान किन्तु अविचलित आभा दर्शाती है । इससे आत्मा के अविकारी होने का प्रमाण मिलता है ।

 58. शेष मन , बुद्धि , अहंकार और कर्मों के विविध संस्कार भी अपनी आभा लिए चित्तमंडल ( हृदय कोटर के शून्य ) में विद्यमान होते है । ये मध्यम परिणामी हैं । चेतना की खास स्थितियों में ये संस्कार सुसुप्त पाये जाते हैं । तो कभी प्रखर या प्रकम्वित ।

 59. अंतःकरण चतुष्टय आतमा को घेरे हुए हृदय ( चित्तमंडल ) में स्थिर है जिसे हम सहानुभूति केन्द्र कहते हैं । दयार्द्र होकर , अश्रुपूर्ण हो जाना , शरीर में रोमांच होना चित्तमंडल से प्रभावित होता है । यह मन की अवस्था नही है ।

 60. शरीर के अष्टचक्र ( स्नायु केन्द्र ) तथा मस्तिष्क भी त्रिगुणात्मक प्रकृति को दर्शाते हैं । इन चक्रों की कार्य प्रणी के दर्शन मात्र से शरीर क्रिय विज्ञान का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त होता है।

 61. ये मस्तक ज्ञान योग क्रिया से ही फलित होते हैं । 62. योग का मूल उद्देश्य आसन की दृढ़ता प्राप्त करना , मन की एकाग्रता , एवं प्राण वयु का उध्वगमन कर मूलाधार से क्रमशः ब्रह्मांड ( मस्तिष्क ) तक ले जाना है ।

 63. योगीगण अपनी ज्ञान साधना के क्रम में इनके दर्शन प्राप्त करते हैं । शरीर रचना और क्रिया विज्ञान के जानकार चिकित्सक इन बातों को भौतिक दृष्टि ( नेत्र ) से जान पाते हैं जबकि साधक इसे योग साधना से प्राप्त चक्रों के प्रकाश से इनका साक्षात्कार करते हैं ।

 64. योग का प्रतिफलन अष्टांग योग के नियमित अभ्यास से होता है ।

 65. हमारी चित्र वृत्तियाँ एकाग्रता आने में बाधक होती हैं जिसे योग द्वारा ही निरुद्ध किया जा सकता है ।

 66. योग के आठ अंग क्रमशः यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , ध्यान धारणा और समाघि नाम से जाने जाते हैं ।

 67. यम नियम मनुष्य को ( साधक को ) निष्ठावान और चरित्रवान बनाते हैं । अहिंसा , सत्यवादिता , चोरी नही करना अधिक धन संग्रह का भाव नही रखना तथा ब्रह्मचर्य पालन ” यम ” कहलाते हैं ।

 68. ” नियम हमारी दिनचर्या है । शोच , संतोष , तप , स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान हमारा प्रतिदिन का अभ्यास होना चाहिए । इससे शारीरिक , मानसिक और नैतिक शुद्धता आती है ।

 69. अगर बाल्यकाल से ही बच्चों को ऐसा वातावरण और सीख मिले तो मानव धरती पर स्वर्ग लादे ।

 70. प्राचीनकाल के गुरुकुलों के आचार्य या ऋषि – महर्षि अपने विद्यार्थियों और अन्तेवासियों को योग से ही शिक्षा की शुरुआत करते थे ।

 71. राजकुलों में शिक्षा की परम्परा थी । प्राचीनकाल में राजा अपनी राज सभा में कुल गुरु ( ऋषि ) को रखते थे । राजकाज और न्याय की नीति संगत व्यवस्था दी जाती थी ।

 72. ब्राह्मण जाति शिक्षा प्राप्त करती थी । उनके उपदेश ही जन सामान्य के लिए शिक्षा मानी जाती थी । जनता रुचि पूर्वक ब्राह्मण द्वारा उपदिष्ट बातों को आचरण में लाती थी । जनता को इसके माध्यम से दो बातें समझायी जाती थी । धर्म विहित मार्ग पर चलने से पाप का भय नहीं रहता तथा मनुष्य परम पद ( स्वर्ग ) पाता है ।

 73. भारत वर्ष में धर्म की धूम मची रही ।

 74 , दान , धर्म , त्याग , दया , एवं क्षमा की पराकाष्ठा रही ।

 75. धर्म के मामले में भारत की धरती पर ध्वजा लहराता था । उस समय की राजनीति को राजधर्म की संज्ञा प्राप्त थी ।

 76. जबसे ( प्लूटो के द्वारा ) विश्व ने राजनीति से धर्म को अलग किया , राजनीति में ( राजनैतिक जीवन में ) विकृति आने लगी ।

 77. तथापि यहाँ के लोगों में धार्मिक आस्था आज भी बनी हुयी है ।

 78. भले ही हमारी आस्था में पाखण्ड घुस चुका है जो धर्म को कमजोर किया है ।

 79. भारत में आज भी धर्म के नाम पर अनेक मतवाद एवं सम्प्रदाय खड़े हो चुके हैं परन्तु योग की शिक्षा से लोग दूर हैं ।

 80. यही कारण है कि समाज सदाचार खो रहा है । उसके दैनिक जीवन से सदाचार मिट – सा गया है सिर्फ पर्व त्योहारों , उत्सवों , देव पूजन के समय या विशेष अनुष्ठानों पर ही सदाचार अपनाया जाता है ।

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