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प्रभाग-31 कुंभ करण वध, छठा सोपान लंका काण्ड रामचरितमानस

जागा निसिचर देखिअ कैसा । मानहु कालु देह धरि वैसा ।।
कुंभ करण बूझा कह भाई । काहे तब मुख रहे सुखाई ।।

कथा कही सब तेही अभिमानी । जेहि प्रकारसीता हरि आभी ।।
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे । महाँ – महाँ जोद्धा संहारे ।।

दुर्मख सुररिपु मनुज अहारी । भट अति काय अकंपन भारी ।।
अपर महोदर आदिक वीरा । परे समर महि सब रणधीरा ।।

दो ० सुनि दसकन्धर बचन तब कुंभकरण विलखान ।
जगदम्बा हरि आनि अब सठ चाहत कल्पान ।।

भल न कीन्ह तै निसिचर नाहा । अब मोहि आई जगायसि काहा ।।
अजहु तात व्यागि अभिमाना । भजहू राम होइहि कल्याना ।।

है दससीस मनुज रघुनायक । जाके हनुमान से पायक ।।
अहह बन्धु तै कीन्ह खोटाई । प्रथमहि मोहिन सुनायहि आई ।।

कीन्हेहु प्रभु विरोध तेहि देवक । सिव विरंचि सुर जाके सेवक ।।
नारद मुनि मोहि ज्ञान जो कहा । कहतेउ तोहि समय निरवहा ।।

अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई । लोचन सुफल करौ मै जाई ।।
श्याम गात सरसीरुह लोचन । देखौ जाई ताप त्रय मोचन ।।

दो ० राम रुप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक ।
सवन मांगेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ।।

महिष खाई करि मदिरा पाना । गर्जा वज्राधात समना ।।
कुंभकरण दुर्मद रन रंगा । चला दुर्ग तजि सेनन संगा ।।

देखि विभीषण आगे आयउ । परेउ चरण निज नाम सुनायउ ।।
अनुज उठाई हृदय तेहि लायो । रघुपति भक्त जानि भन भायो ।।

तात लात रावन मोहि मारा । कहत परम हित मंत्र विचारा ।।
तेहि गलानि रघुपति पहि आयउ । देखि दीन प्रभु के मन भायउ ।।

सुनु सुत भयउ काल वस रावन । सो कि मान अब परम सिखावन ।।
धन्य धन्य तै धन्य विभीषण | भयउ तात निसिचर कुल भूषण ।।
वंधु वंश तै कीन्ह उजागर । भजेहु राम शोभा सुख सागर ।।

दो ० वचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रघुवीर ।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउ काल वस वीर ।।

वंधु वचन सुनि चला विभीषण । आयउ जहॅ त्रैलोक विभूषण ।।
नाथ भूधराकार शरीरा कुंभकरण आवत रणधीरा ।।

एतना वचन सुना जब काना । किलकिलाई धाए बलवाना ।।
लिए उठाई विटप अरु भूधर । कटकाई डारहिता उपर ।।

कोटि कोटि गिरि शिखर प्रहारा । करहि भालु कपि एक एक बारा ।।
मुरयो न मनु तनु टरयोनटारयो । जिमि गज अर्क फलनि को भालो ।।

तब मारुत सुत मुठिका हन्यो । परयो घरनि कि व्याकुल सिर धुन्यो ।।
पुनि उठि त्यों मारचो हनुमंता । धूर्मित भूतल परयो तुरंता ।।

पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि । जहँ – तहँ पटक पटक भटडारेसि ।।
चली बलि मुख सेन पराही । अतिमय त्रसित न कोउ समुहारी ।।

दो ० अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव।
व कॉर दावि कपि राज हुँ चला अमित बल सीव ।।

उमा करत रघुपति नर लीला । खेल गरुड़ जिमि अहिगन मिला ।।
भुकुटि मंग जो कालहि खाई । ताहिकि सोहई ऐसी लड़ाई ।।

जग पावनि कीरति विस्तारहि । गाई- गाई भवनिधि नर तरिहहि ।।
मुरुछा गयी मारुत सुत जागा सुग्रीवहि तब खोजन लागा ।।

सुग्रीवहु दसन कै मुरुछा बीती । निवुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीति ।।
काटेसि दसन नासिका काना । गरजि आकाश चलेउ तेहि जाना ।।

गहेउ चरण गहि भूमि पछारा । अति लाछव उठि पुनि तेहि मारा ।।
पुनि आयउ प्रभु पहि बलवाना । जयति जयति जयकृपा निधाना ।।

इस प्रकार गम्भीर युद्ध चलता रहा । मायावी राक्षस की युद्ध कला अवर्णनीय है , तो वानर भालू की उनसे पीछे नहीं उनपर तो श्री रामजी की प्रभुता का प्रसाद है । वे तो लीला धारी हैं । खेल खेला कर मारने वाले और पुनः अपनी शरण मे पाकर उद्धार करने वाले भी । बारी – बारी से नाक , कान , भुजा , सिर और अन्त में शरीर भी दो खण्डों में काट डाले । वही दुर्द्धर्ष कुंभकरण भाई के लिए प्राण तो गँवाया किन्तु भगवान के सम्मुख अपना पराक्रम दिखलाते हुए उसका तेज प्रभु के शरीर में समा गया और सिर एवं भुजाएँ रावण के पास ।
धीरे – धीरे पृथ्वी पर से दनुजों का भार घटता जा रहा है । दिनानुदिन सेना घटती जा रही है । आज की लड़ाई लम्बी चली थकान अधिक किन्तु श्री राम जी की कृपा से उत्साह बढ़ता जा रहा है । रावण की हिम्मत डोल गयी । कुंभकरण का सिर हृदय से दवा विलाप कर रहा है ।

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