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प्रभाग-33 शेषांश, छठा सोपान, लंका काण्ड, रामचरितमानस

विभीषण का राज्यारोहन एवं तीनों वनवासियों का अयोध्या अवतरण

रावण का सब संस्कार पूराकर विभीषण लौटकर प्रभु को सिर नवाये तब भगवान ने लक्ष्मण जी को बुलाकर कहा कि हनुमान, अंगद, जामवन्त, नल, नील, सभी मिलकर के साथ जाकर इनका राज तिलक करो में पिताजी की आज्ञानुसार बनवास के कारण नगर में प्रवेश नही करूँगा। अपनी जगह पर छोटे भाई और वानरों को भेजता हूँ।

तुरंत उस कार्य के लिए सभी ने जाकर राज तिलक का सारा विधान कर विभीषण जी को राज सिंहासनपर बैठा दिया और उनकी स्तुति की। फिर सभी प्रभु रामजी के पास जब पहुंचे तो भगवान ने हनुमान को लंका जाकर विजय की सूचना सीताजी को देकर समाचार के साथ लौट आने की आज्ञा दी उनके नगर में पहुँचते ही स्वागत के लिए निश्चर समाज दौड़े। हनुमान जी की पूजा कर सीता को दिखाया। दूर से ही सीताजी को हनुमान जी ने प्रणाम किया। सीताजी ने उन्हें पहचान लिया और भाई लक्ष्मण सहित सभी सेवकों का कुशल पूछी। सब कुछ से अवगत करा दिया तो सीता जी ने कहा पुत्र में तुझे क्या दूँ तब भक्त हनुमान जी ने कहा- आज संसार में यही एक समाचार है आज इस विजय से निःसन्देह हम सभी कृत कृत्य हो चुके अब हम श्रीराम जी को तो शत्रु पर विजय पाकर भी निर्विकार ही देख रहे है सीताजी बोली कि हे सुत, तुम्हारे सारे सद्गुण तेरे हृदय में बसे और लक्ष्मण और कोशल पति तुम पर प्रसन्न रहें अब जाकर वह उपाय कीजिए कि में शीघ्र उन्हें अपनी नजर से देखूं ।

हनुमान जी ने शीघ्र प्रस्थान किया और प्रभु के पास जाकर समाचार सुनाये तब विभीषण जी को हनुमान जी के साथ जाकार आदर के साथ सीता जी को लाने का आदेश मिला। युवराज विभीषण जी ने जाकर निशिवरियों द्वारा सेवित सीता जी को भली प्रकार से स्नान कराकर वस्त्राभूषण से सुशोभित कर सुन्दर सजी पालकी पर चढ़ाकर विदा किये। पास आने पर रामजी ने कहा कि सीता को पैदल ही आने दो ताकि वानर गण उन्हें माता की तरह देख पायें रामजी ने तो पहले असली रूप को अग्नि में रखा था, उसे वे प्रकट करना चाहते हैं। यह विषय गोपनीय था। सीता जी ने लक्ष्मण जी से धर्म पालन में सहायक बकर अग्नि प्रज्जवलित करने की कही लक्ष्मण जी के लिए यह धर्म संकट था। किन्तु अपने भाई की मर्यादा वश आज्ञा का पालन किये।

सीता जी के मन, कर्म वचन से हृदय में कोई अन्य भाव न हो तो अग्निदेव सबके मन की गति जानते हुए मुझ पर प्रसन्न हो मेरे लिए चन्दन सा शीतल हो जायें।

आज भारत के समक्ष एक पुरानी समस्या खड़ी है। चौदहवी सदी से राम जन्म भूमि अयोध्या नगरी पर तुर्की का कब्जा रहा है। यह प्रश्न सांवैधानिक सह न्यायिक संकट में घिरा है किन्तु राम भक्त भी वोट की माया में घिर कर रामतत्व को स्मरण में नहीं ला रहे आज दिनांक 16.12.2019 से चार ही दिन पहले भारत माता पर अग्न्यास्त्र से घातक प्रहार कर देश सेवकों का घोर संहार किया गया जिसकी यातना देश की करोड़ों जनता झेल रही है। यह परिदश्य विश्व में व्याप्त है। यह स्थिति दानव-मानव का नही आज मानव-मानव में है। हम मानव हृदय को एकता के रंग में नही रंग पा रहे जिसका परिणाम है कि यह देह अपनी आत्मा को पहचान नही रही। राम तत्त्व की बात क्या कहूँ, आध्यात्म का मंदिर हमारा हृदय भारतीय संस्कृति को भूल रहा जिससे उसका काना सूना पड़ रहा है क्या सरस्वती अपने पुत्रों को वह बल, बुद्धि, विवेक और देश भक्ति से भरकर धरती का बोझ हल्का न करेंगी। तो फिर मेरे जैसे अपार लोगों के हृदय को कब शान्ति मिलेगी और हम अपने में राम को प्रतिष्ठत कर पायेंगे? इस युग धर्म का पालन अतिशीघ्र अपेक्षित है।

आशा करता हूँ कि सामने रामनवमी (राम जन्म तिथि) 13 अप्रील 2019 तक राम जनम भूमि का न्याय सुरक्षा और सुप्रतिष्ठा मिल पाये साथ ही अगला नेतृत्व राम तत्त्व का पोषक बनकर उभरे ताकि भारत की भूमि पर उसकी पारदर्शिता परिलक्षित हो पाय।

जब सीता जी अग्नि परीक्षा में सफल पायी गयी, उसी समय देवगण आये प्रशस्ति में वे ऐसे वचन कहे, जैसे वे परमार्थी हों, यहाँ तुलसी दास जी ने उन्हें परम स्वार्थी बताया है ऐसे न रामजी उन्हें ऐसा कहते है आर न में ही कह कह सकता हूँ।

दीनबंधु दयाल रघुराया। देव कीन्ह देवन्ह पर दाया ।।
विश्व द्रोह रत यह खलकाभी। निज अ गयउ कुमारगगामी।।

रामचन्द्र जी विनति करके देवता और सिद्ध मुनि सब जहाँ के तहाँ खड़े हाथ जोड़े रहे तब अत्यन्त प्रेम से प्रलकित शरीर से ब्रह्मा जी स्तुति करने लगे।

उसी समय दशरथ जी का पदार्पण हुआ। उन्हें अपने पुत्र को देखकर नेत्रों में आँसू आ गये। दोनों भाइयों ने वन्दना की और पिताजी ने आर्शीवाद दिये।

इस प्रकार वन्दना करके सुरपति इन्द्र ने पूछा, हे भगवान ! मुझ पर कृपा करके बतलाइए कि मेरे लिए कोई सेवा है?
हे सुरपति । हमारे जितने भालू और बन्दर राक्षसों कीमा से धरती पर पड़े हैं, जो मेरे हित में प्राण गाँवा डाले हैं उन सबो को पुन जीवन दें।
यहाँ पर काग भुशुण्डि जी भी कहते हैं कि है गरुड़ जी प्रभु के इस गूढ़ वचन को ज्ञानी मुनि ही जान सकते हैं यह कहकरतो उन्होंने इन्द्र की बड़ाई की है ये अमृत की वर्षा कर दोनों दलों पर अपनी कृपा की किन्तु जीवित न हो सके कारण यह था कि मरते समय निशावरों ने राम का नाम स्मरण कर ही समाकार हो चुके थे तो ये क्यों जीवन पाते थे तो भव बन्धन से मुक्त हो गये। ये वानर भालू तो देव अंश थे। रघुनाथ जी की इच्छा से जीवित हुए।

जब शंकर जी विनय करके वहाँ से विदा लिए तो समय पाकर विभीषण जी पहुंचे तथा विनय पूर्वक भगवान से प्रार्थना की आपने कुल सहित रावण की सेना का वध किया तीनों लोक में अपनी कीर्तिका विस्तार किया। मेरे जैसा दीन, पापी, बुद्धिहीन और नीच जाति जानकर बहुत प्रकार से कृपा की अब जरा मेरे घर पर चलकर उसे पवित्र करें। स्नान कर आराम कीजिए युद्ध का थकान मिटाइए गृह कोष, सम्पति आदि का निरीक्षण कर हे कृपालु प्रसन्नता पूर्वक दीजिए हर प्रकार से अपना बनाइए और मुझे भी साथ लेकर अयोध्या पधारिये उनकी वाणी सुनकर भगवान के नेत्र अश्रु पूर्ण हो गये बोले है भाई, तुम्हार घर और खजाना सब मेरा ही है में इसे मान रहा है किन्तु अब कुझे भरत की दशा याद आ रही है वह तपस्वी का वेष धारण कर दुर्बल शरीर लिए मुझे याद कर रहा है। ऐसा उपाय करो कि मैं जल्दी उनका मुख देख सकूं। यदि अवधि बीत जाने पर जाता हूँ तो भाई को जीता न पाउँगा रामजी ने विभीषण से भाव पूर्ण शब्दो में कहा- हे विभीषण ! तुम कल्प भर राज्य करो मन से मेरे नाम का निरंतर स्मरण रखना, फिर तुम मेरे उस धाम को पाओगे जहाँ सब संत जाते हैं राम जी की वाणी सुन भगवान के चरण पकड़ लिए यह दृश्य देख सभी प्रसन्न हुए विभीषण जी घर और रत्न एवं वस्त्रों से मरकर पुष्पक विमान लाकर प्रभु के समक्ष खड़ा किया फिर हँसते हुए रमजी ने कहा है सखा । तुम इस विमान पर चढ़कर आकाश से वस्त्र और मणियों की वर्षा कर दी जिन्हें जो जो वस्त्राभूषण पसंद आये, उन्हें ग्रहण किये जब वानरों ने मणियों को मुख में डालकर फेंक दिया तो भगवान एवं उनके भाइ हँसने लगे। यहाँ पर उनका स्वभाव बढ़ा कौतुकी लगा । जिन भगवान को ऋषि ध्यान लगाते अगोचर अनादि आदि नामों से पुकारते है वही इन कपिगन के साथ विनोदी की तरह मिलते है। शंकर जी बतलाते हैं कि हे पार्वती । जो यज्ञ, जप, तप, व्रत और विविधनियमों से भगवान नहीं मिलते वे सिर्फ निष्काम प्रेम से ही मिल रहे हैं।

जब सारे वानर भालूगण विविध प्रकार के वस्त्राभूषण पहन कर आये बहुत प्रकार के उपहार आदि लिए देखकर प्रभु को खुशी हुयी। वे हँसने लगे। चे दया से द्रवित होकर कहने लगे, तुम लोगों के ही बल पर मैंने रावण को मारा। विभीषण को राजा बनाया। अब तुम सभी अपने अपने घर जाओ यहाँ मेरे नाम का स्मरण कर निर्भय रहना। भगवान के वचन सुनकर प्रेमाकुल होकर बोले हे प्रभु! आप जो कुछ कहते है उससे आपकी शोभा ही बढ़ती है लेकिन हमें मोह होता है। आप तो त्रिलोकी नाथ है और हम सब को दीन जानकर कृतार्थ किया है। आपके द्वारा प्रसंशा सुनकर तो हमें लज्जा होती है, क्या कभी मच्छर गरुड़ का भला कर सकता है ? राम जी का मुख देखकर सभी प्रसन्न है। किसी को घर जाने की इच्छा नहीं करती।

प्रभु की प्रेरणा से सभी बानर भालू अपने मन में हर्ष विषाद के साथ उनके रूप को हृदय में रखकर अनेकों प्रकार से विनय करते हुए घर चले अन्य नील, नल, अंगद, जामवन्त, हनुमानादि वीर समूह प्रेम के वशीभूत कुछ कह न पाये मात्र उनके मुँह पर एकटक ताकते रहे। उनके अतिशय प्रेम को पाकर सबा का विमान पर चढ़ा अपने मन में विप्र की वन्दना करते हुए उत्तर दिशा की ओर बढ़ने का आदेश किया। विमान के उड़ते ही जय रघुवीर की ध्वनि गुंजने लगी। ऊँचे सिंहासन पर सीता सहित रामजी विराजमान हुए। पत्नी सहित श्रीराम जी वैसे लगते है सुमेरु पर्वत के शिखर पर मेघों के बीच विजली प्रकाशित हो विमान धीमी गति से जा रहा है। देवतागण हर्षित हुए और फूला की वर्षा हुयी। चारों ओर प्रकृति सुन्दर लग रही थी शुभ शकुन दिख रहे थे।

भगवान सीता को रण क्षेत्र का परिदर्शन कराते चल रहे है जहाँ-जहाँ जिन राक्षसों का वध किया उसे बतलाते समझाते हुए चल रहे हैं। इन्द्रजीत कुम्भकर्ण रावण, मेघनाथ के मरने का स्थान दिखलाये फिर सेतु बाँध दिखलाये। रामेश्वरम मंदिर में स्थापित शंकरजी को दोनों ने मिलकर प्रणाम किया। जहाँ-जहाँ जंगल में भगवान ने विश्राम और वास किया वे सभी स्थान दिखलाये सब कानाम बतलाये फिर विमान दण्डक बन पहुँचा जहाँ उन्होंने अगस्त आदि मुनियों से मिले थे। उन सबों का आशीष ग्रहण कर चित्रकूट पहुँचे। वहाँ के मुनियों को सन्तुष्ट कर वहाँ से विमान तेजी के साथ चला। पहले यमुना, फिर गंगा के दर्शन किये सीता जी ने गंगा को प्रणाम किया। प्रयाग तीर्थ त्रिवेणी संगन और अयोध्या के दर्शन किए। अयोध्या में प्रवेश करते हुए राम, लक्ष्मण एवं सीताजी ने प्रणाम कर बहुत आनन्द अनुभव किया। त्रिवेणी में स्नान कर विप्र को दान दिए ।

उसके उपरान्त प्रभु ने हनुमान जी को अयोध्या जाकर ब्राह्मण के वेश में भरत जी के पास जाकर उनसे मिल कुशल पूछकर लौट आने का संदेश दिए। उनके अयोध्या जाने के बाद रामजी भारद्वाज मुनि के आश्रम में पधारे दहा रामजी की पूजा की गयी। फिर स्तुति की और आशीष दिये। ऐसा मुनि ने भगवान को इष्ट नाव से निभाया। मुनि को प्रणाम कर फिर विमान पर चढकर चले निषाद राज ने जब रामजी के आगमन की खबर: पायी तो नाव नाव कहकर लोगों को जुटाया जब गंगा नदी पारकर प्रभु की आज्ञा से विमान तट पर उतरा तो सीताजी ने गंगा जी की पूरी अभ्यर्थना गंगा माता ने उन्हें अखण्ड दाम्पत्य का आशीष दिया। इसी बीच निषाद राज दौड़ते हुए पहुँचे उनके पैरो पर गिरे। राम जी ने उन्हें सप्रेम उठाकर गले लगाया।

लियो हृदय लाइ कृपा निधान सुजान राय रमापती ।
बैठारि परम समीप बूजी कुशल सो कर विनती।।
अब कुशल पद पंकज बिलांकि विरचि शंकर सेव्यजे।
सुखधाम पूरण काम राम नमामि राम नमामि ते।।

सब भाँति अधम निषाद सो हरि भगति ज्यो उर लाइयो।
मतिमंद तुलसी दास प्रभु मोह यस विसराइयो ।
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद हित प्रद सदा।
कामदि हर विज्ञान कर सुर सिद्ध मुनि गावहि मुदा ।।

दो० समर विजय रघुवीरह चरित जे सुनहि सुजान।
विजय विवेक विभूति नित तिन्हहि देहि भगवान।।
यह कलिकाल मलायतन मन मरि रेख विचार।
श्री रघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार।।

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