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प्रभाग-04 बाल काण्ड रामचरितमानस

 यह हर तरह से मान्य है कि मानव चेतन प्राणि होकर भी पाप परायण है क्योंकि उसका विवेक मारा गया है । स्वार्थी मानसिकता ने उसे पाभर बनाया है । समर्थ ( आर्थिक रुप से योग्य ) पुरुष रोग और भोग से ग्रसित हैं । रुग्न अशान्त है । दीन जन उपेक्षित , असरक्षित और अक्षम हैं । दोनों का कल्याण भौतिक रुप से हो या नैतिक रुप से हो , सद्गुणों का विकास हो , मन में शान्ति और संतोष विराजमान हो , समरसता और स्नेह का वातावरण बने । त्याग की भावना जगे । सत्य और अहिंसा के पथ पर जीवन अग्रसर हो । स्वस्थता एवं उत्तम सोच जीवन का भूषण बने । सुख – दुख के बीच सामन्जस्य स्थापित हो । जन – हित का श्रेय ही आत्महित का साधन बने । ऐसी व्यवस्था अगर राजनीति से सुलभ हो तो इसके लिए नैतिक शिक्षा , वेदांग का अध्ययन और सच्चरित्रता का पालन तथा अपने दायित्त्व का बोध आवश्यक होगा ।

 यह भी सच्चाई है कि मानव इहलोक से अपने कर्मानुसार ही निर्वाण पाता है तथा उसका अजित संस्कार ही पुनर्जन्म का निर्धारक होगा तो कर्म परिष्कार भी सद्गति का विषय बनेगा जो आध्यात्म योग का विषय है । उसके लिए मानव को एक ऐसे क्षेत्र में प्रवेश की आवश्यकता होगी जहाँ मानव को सतपथ का दैनिक निर्देशन प्राप्त हो । ऐसा अष्टांग योग विधान बतलाता है या हमारा वेदशास्त्र , सदग्रंथ मार्गदर्शन देता है , उसका निदिध्यासन चलता रहे । गोस्वामी जी का रामचरित मानस ऐसा ही कथा प्रसंग सामने लाने जा रहा है जो अपनी काव्य धर्मिता में राम को पूर्ण रुपेण प्रतिष्ठित करता है ।

 अगर मानव मात्र का सृष्टि से एकात्मभाव स्थापित हो और आस्था का तार इतना दृढ़ ( स्थिति प्रज्ञन ) हो कि टूटने न पाये तो हम उसे अनपायिनी भक्ति कहेंगे , जो ऋषि – मुनीषियों की साधना में भी दुर्लभ रहा है । उसे भक्त जन ही प्राप्त कर सकते है । यह मानस की वह स्थिति होगी जिसमें न रोग व्यापगा न शोक , न ग्लानि न पश्चाताप । इस भावना के प्रवाह , प्रचार और प्रसार का साधन सत्संगति , सुमति , सद्ग्रंथों का श्रय , ईश्वर भक्ति और पुण्य में रति होगी , हम राजनीति को त्याग कर राज भक्ति की ओर बढ़े । प्रजा पालक बने तो जगत का कल्याण हो । यह भी सोचना आवश्यक है कि कर्तव्य बोध के साथ युग बोध और युग धर्म का भी पालन हो । जब कलियुग हर प्रकार से अकल्याणकारी और जधन्य अधम हैं तो हम सोलहवीं शदी में जिस धर्म की स्थापना चाहते थे उससे भिन्न युग धर्म लाये । इस सन्दर्भ में हमें त्रिकालदर्शी नहीं त्रिकालधर्मी बनने का यश प्राप्त करना चाहिए , यहाँ तो वत्तमान हीं पिछड़ रहा है ।

 हम मन से खिन्न , बुद्धि में जड़ता , देह में आलस्य , ज्ञान में अविवेक , चिंतन में अस्थाचित्व लाकर युगान्तकारी व्यवस्था नहीं ला सकते । मन से सजग , बुद्धि से प्रखर , स्थिर मति , भाव में भक्ति , धर्म में रति , तब मिले सद्गति । माया से मोह भंग ही राम तत्त्व पाने का प्रथम सोपान है । इसे हम वैराग्य कहते हैं । जबकि हम स्वयं माया के सर्जक और उपासक दोनों ही बने है । आशा और लिप्सा की जगह आत्मा में मन की स्थिति दृढ़ कर विश्व के साथ वरतना ही शुद्धता और अशुद्धता है । सन्त कथन है कि हम देह को महत्त्व Page 6 न दें , उसमें आत्मा का निवास मानकर उसका कल्याण चाहें । जब हम देह या इन्द्रियों के हित पर केन्द्रित होते है तो हमारा प्रेम नश्वर से होता है । आत्मा परमात्मा का अंश होने से वह भी अविकारी और निर्गुण है तो अमरता पाने के लिए आत्मा का पोषण या विस्तार अपेक्षित लगता है । जिस तरह आत्मा अदृश्य होकर अस्तित्त्व में है उसी प्रकार जीवन विकार रहित होना चाहिए । यही भाव जब हमारे हृदय में बसेगा तब हम बाह्याभ्यंतर शुचिता पा सकेंगे । ग्रंथों में धरती , गौ , वेद , संत , सुसंगति , गंगा , कपास , औषधि आदि में निहित कल्याणकारी गुणों की गरिमा पर दृष्टिपात किया गया । “ मति की रति गति भूति भलाई ” की तरह ” सुरसरिसम सब कर हित होई ” की भावना ही राम चरित मानस का श्रेय है । अतः उसी परम तत्त्व का अवगहन करते हुए जीवन जीने का नाम सदगति है । सन्त शिरोमणि कवि कुलसीदास ने राम चरित्र को तीर्थ बना डालने का प्रयत्न किया है जो धर्मो का सार रुप समन्वय है जिस पर कथा प्रबन्ध निरुपित हुआ है । इस भाव की प्रतीति विश्वसनीय और युक्ति युक्त कल्याणकारी है ।

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