Fri. Mar 29th, 2024

प्रभाग-12 बाल काण्ड रामचरितमानस

 राजकुमार राम और लक्ष्मण विश्वामित्रमुनि के साथ चले , जहाँ पवित्र गंगा नदीमिली । मुनि ने पृथ्वी पर गंगा नदी के आने की कथा सुनाई तब दोनों भाई सहित मुनि गंगा में स्थान किये । ब्राह्मणों को दान भी मिला । तब वे जनकपुरी की ओर बढ़े । मिथिला नगरी की शोभा और राजा जनक के राज भवन सहित ग्राम , नगर , बाग – बगीचे , ज्लाशय , हाट – बाजार आदि को देखते हुए एक सुन्दर बाटिका में डेरा डाल दिये । उन्हें देखने के लिए लोग बगीचा में आने लगे । इसकी खबर राजा जनक जी को मिली । तब अपने मंत्री , बहुत से ब्राह्मण , मुनिगण और भाँट आदि विश्वामित्र मुनि से प्रेम पूर्वक मिलने चले । अपने सिर उनके चरणों में नवाए और मुनि ने उन्हें आशीष दिये । अपना सुयश और भाग्य मानकर राजा जनक आनंदित हुए । दोनों ओर से कुशल प्रश्न हुए । इसी बीच राम लक्ष्मण फुलवारी देखकर लौट गये । राम जी को आते ही देखकर सभी उठकर खड़े हुए । विश्वामित्र जी ने उन्हें अपने पास बैठाया । सभी दोनों भाईयों की सुन्दर मूर्ति देखकर प्रसन्न हुए । मन में बहुत विचार कर धैर्य से राजा जनक दोनों राजकुमारों के परिचय जाने , मुनि ने समझाया ये दोनों रधुकुलाधिपति दशरथ के पुत्र है । ये राम लक्ष्मण नाम धन्य भ्राता रुप शील और बल के धाम है । ये राक्षसों से युद्ध जीतकर हमारे यज्ञ की रक्षा किये हैं । राजा प्रेम में विभोर होकर अपने नाम विदेह की गरिमा भूल बैठे फिर प्रेम से राजकुमारों सहित मुनि विश्वामित्र को राज भवन ले गये ।

 राजा जनक के राज भवन में आकर सबों ने भोजन और विश्राम किया । लक्ष्मण जी को लालसा हुयी कि जाकर जनकपुरी घूम आयें । इस उत्कट अभिलाषा को समझकर रामचन्द्र जी ने सानुशासन मुनिवर से आज्ञा मांगी । प्रसन्न मन से गुरुजी ने राम की प्रसंशा की और बोलो –

 जाइ दखि आवहुँ नगरु , सुख – विधान दोउ भाई ।

 करहु सुफल सबके नयन , सुन्दर बदन देखाई ।।

 

 मुनिपद कमल वंदि दोउ भ्राता । चले लोक लोचन सुख दाता ।।

 बालकवृन्द देखि अति शोभा । लगे संग लोचन मनुलोभा ।।

 

 देखन नगर भूप सुत आये । समाचार पुरवासिन्ह पाये ।।

 धाये धाम काम सब त्यागी । मनहु रंक निधि लूटन लागी ।।

 

 निरखि सहज सुन्दर दोउ भाई । दोहि सुफल लोचन सुख पाई ।।

 यवति भवन झरोखन्ह लागी । निरखहि राम रुप अनुरागी ।।

 

 करहि परसपर बचन सप्रीति । सखि इन्ह कोटि काम छवि जीति ।।

 सुरनर असुर नाग मुनि माही । शोभा असि कहु सुभियत नाही ।।

 

 विष्णु चारि भुज विधि मुखचारि । विकट वेष मुख पंच पुरारि ।।

 अपर देउ अस कोउ न आही । यह छवि निरखि पटतरिय जाही ।।

 

 दो ० विप्र काज करि बंधु दोउ , मग – मुनि वधू उधारि ।

 आये देखन चाप मख सुनि हरषी सब नारि ।।

 

 राम को छवि देख किसी एक महिला ने कहा – यह बालक जानकी की शादी के योग्य है । यदि राजा इस बालक को देख लें , तो प्रतिज्ञा तोड़कर इनसे अपनी पुत्री का विवाह कर लेंगे ।

 किसी दूसरी महिला ने कहा – राजा ने इन्हें पहचान लिया है । मुनि के जैसा ही इनका भी सम्मान किया है । ….लेकिन सखि , राजा अपना प्रण तोड़ नही सकते । जैसा होनहार है , वे उसी का आश्रय लेकर चल रहे हैं ।

 कोई कहती है , यदि विधाता चाहें , जो सबको उचित फल देने वाले कहे जाते है , तो यह वर जानकी को अवश्य ही मिल जाता , इसमें कोई संदेह नहीं ।

 अगर दैव योग से ऐसा संयोग बन जाय तो सब लोग कृत – कृत्य हो जाय । हमें तो इतनी आतुरता इसीलिए हो रही है कि उसी नाते भी तो ये जनकपुर कभी – कभी आते रहा करेंगे । अगर ऐसा नहीं हुआ तो हे सखी ! सुनों , कभी हमें इनका दर्शन सुलभ हो पायेगा ? ऐसा तो तभी होगा यदि हमारे पूर्वजों ने बहुत पुण्य किया हो ।

 किसी ने ऐसा कहा कि यह विवाह तो सबके लिए हितकारी होता लेकिन शंकर भगवान का धनुष कितना कठोर है और यह बालक कोमल शरीर वाला किशोर !

 …..सभी देखकर असमंजस में पड़े है । वह सब सुनकर दूसरी सखी बोली इनके संबंध में लोगों का कहना है कि ये देखने में तो छोटे है किन्तु , इनका प्रभाव बहुत बड़ा है ।

 परसि जासु पद पंकजधूरी । तरी अहल्या कृतअध भूरी ।।

 सो कि रहहि विनु शिव धनु तोरे । यह प्रतीत परिहरिअन भोरे ।।

 

 जेहि विरंचि रचि सिय सँवारी । तेहि श्यामल बरु रचउ विचारी ।

 तासु वचन सुनि सब हरषानि । ऐसेइ होउ कहहि मुदु वानी ।

 

 उस समय दोनों भाई पूर्व दिशा में गये जहाँ धनुष यज्ञ की वेदी बनी थी । उसके चारो ओर बैठने की सुन्दर और अद्भुत व्यवस्था थी । नगर के बच्चे मीठी वाणी में कहकर उन्हें यज्ञशाला की रचना बताने लगे । इसी बहाने प्रेम वस उनके सुन्दर शरीर को स्पर्श किया । उनके मन आनदित हुए दोनों भाइयों को देखकर । दोनों के बीच इतना प्रेम उमड़ा कि सभी अपने घर बतलाने लगे । कोई उन्हें अपने पास बुलाता तो वे उधर जाकर उनकी व्यवस्था की सराहना करने लगते । जो प्रभु अपनी माया से पलक गिरने के एक चौथाई समय में कितने ब्रह्माण्ड रच डाले , वही जनकपुर में कौतुक भरी रचना को देखते आश्चर्य से सराहना करते है । इस तरह रामचन्द्र जी के मन में गुरुजी का भय भी है कि अधिक देर बीत गये हैं । वह भी बड़े कौतुकी लगते हैं । मीठी – मीठी बातों से बहलाकर उन बचों को बरवस लौटाया । अपने गुरुजी ( विश्वामित्र ) के साथ उनका रहना , उनके कथनानुसार चलना , विविध पुराणों की कथा सुनना , फिर अपनी दैनिक प्रातश्चा कर फूल लकड़ी जुटा कर पूजा की तैयारी करना , संध्या वंदना आदि उनकी नरलीला के अनोखे चरित्र रहे । दोनों भाई मानो अपनी सेवा से उनका प्रेम जीत चुके हैं । उनके सोने पर दोनों भाई उनका पैर दवाया करते थे । जब तक उनकी आज्ञा न होती तब तक वे उनका पैर दबाते ही रहते । दोनों भाई रात्रि शेष रहते मूर्गे की आवाज सुनकर जग जाया करते थे । शौच स्नानादि का नित्य निर्वाह कर गुरुजी को सिर नवा उनकी आज्ञा से फूल लाने उस दिन निकले । मन हुआ कि आज राजा जनक की ही पुष्प वाटिका का दर्शन लाभ भी ले लिया जाय । सुन्दर बाग और अनुपम जलाशय का दर्शन कर बहुत प्रसन्न हुए । चारों ओर देखकर मालियों से फूल लेने की अनुमति पाकर फूल तोड़ने लगे । उसी समय सीता सखियों सहित गिरिजा पूजन के लिए आयी । उसी तालाब के पास गिरिजा भवानी का मंदिर था । तालाब में मज्जन कर सखियों सहित सीता गौड़ी मंदिर में प्रवेश की । बड़े प्रेम से अपने मनोनुकूल पूजाकर वरदान मांगी । उसमें से एक सहेली सीता से बिछड़कर फुलवारी देखने चली गयी थी । वह उन राम लक्ष्मण दोनों भाईयों को देखी और तुरंत सीता के पास मन मे प्रसन्नता और आँखों में आँसू लिए पहुंची तो सबों ने उसके अतिशय हर्ष का कारण पूछा । वह बतलायी कि बाग देखने दो राजकुमार आये हैं । वे किशोर उम्र के एक श्याम तो दूसरे गोरे वर्ण के हैं । उनकी सुन्दरता का क्या कहूँ , वाणी को दष्टि नहीं तो दृष्टि को वाणी भी नही , व्यक्त कैसे करूँ सखि ! चतुर सहेलियाँ ऐसी वाणी सुनकर बहुत प्रसन्न हुई । सीता को भी सुनकर बेचैनी सी लगी । उनमें से एक सखी बोली । ये सखी ! वे राजकुमार हैं , कल ही वो सुनी कि मुनि के संग ये आये हैं जिन्होंने अपने – अपने रुप का सम्मोहन नगर के हर नर – नारी पर डाल रखी है । कहते हैं कि राजकुमार देखते ही बनते हैं , सबके देखने योग्य हैं । उनकी वाणी सीता को बहुत अच्छी लगी , उनके मन में दर्शन की व्याकुलता जगी । तब उस सहेली को आगेकर चल पड़ी । इस पुरानत प्रेम के रहस्य को कोई नहीं जाना । कुछ यादकर सीता के मन में पवित्र प्रेम की झलक मिली । वह भयभीत मृगशावकी की तरह सहभी इधर – उधर दृष्टि दौड़ाई । उधर कंगन और पायल की मधुर झंकार सुनकर रामचन्द्र जी लक्ष्मण से अपना मनोभाव साझा की । लगता है कि कामदेव संसार को जीतने हेतु संकल्प के साथ डंके पर आघात किया है । ऐसा कहते हुए अपनी दृष्टि घुमायी कि आँखे चार हो गयी । दोनों ( राम और सीता ) के नेत्र एक दूसरे को देखते हुए ऐसे स्थिर हुए मानो संयोगवश ” निमि ” ( जनकजी के पूर्वज ) अपनी जगह छोड़ डाली हो ( हट गये हों ) । वहाँ पवित्र मन से रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण से कहा कि यह राजा जनक की पुत्री है जिसके लिए यह धनुष यज्ञ ठाना गया है । गौड़ी पूजन की दृष्टि से नारियाँ उसे लायी है जो अपनी सुन्दरता से पुष्प वाटिका को प्रकाशित कर रही है । फिर तुलसी दास के शब्दों में –

 जासु विलोकि अलौकिक शोभा । सहज पुनीत मोर मन लोभा ।।

 सो सब कारण जान विधाता । फरकहि सुमद अंग सुनु भ्राता ।।

 

 रघुवंसिन्ह कर सहज सुमाउ । मनु कुपंथ पगु घरई न काउ ।।

 मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी । जेहि सपनेहु पर नारि न हेरी ।।

 

 जिन्ह के लहहि न रिपुरन पीठी । नही पावहि परतिय मनुडीठी ।।

 मंगन लहहिन जिन्ह के नाही । तेनर वर थोड़ जग माही ।।

 

 इस प्रकार आपस के वार्तालाप में रामचन्द्र जी मग्न हैं किन्तु मन सीता जी के रुप में खोया हुआ है । सीता चारों ओर झाँक रही है कि राजकुमार कहाँ गये । ऐसी चिन्ता मन में हो रही है जहाँ मृगनयनी सीता अपनी दृष्टि डालती है कि श्वेत कमलों की कतार सामने खड़ी हो जाती है अर्थात ओझल हो जाती है । उसी समय सखियाँ लताओं की ओर से राम के दर्शन कराये । रुप देखते ही उनके मन ललचा गये । उन्हें ऐसी खुशी हुयी मानो अपनी सम्पत्ति पहचान ली ।

 लोचन मग रामहि उर आनी । दीन्हें पलक कपाट सयानी ।।

 जब सिय सखिन्ह प्रेम वश जानी । कहि न सकहि कुछ मन सकुचानी ।।

 

 दो ० लता भवन ते प्रकट मये तेहि अवसर दोउ भाई ।

 निकसे जगु जगु विमल विधु जलद पटल विलगाई ।।

 

 केहरि कटि पर पीत घर , सुषमा शील निधान ।

 देखि भानकुल भूषणहि विसरा सखिन्ह अपान ।।

 

 चौ ० सकुचिसीय तब नयन उधारे । सन्मुख दोउ रघुसिन्धु निहारे ।।

 नखसिख देखि राम कै शोभा । सुकिरि पिता पनु मनु अति छोभा ।।

 

 इस प्रकार जब सखियों ने सीता को प्रेम के वश बढ़ते देखा तो सभी भयभीत होकर कहने लगी बहुत देर हो गयी । अब चलना चाहिए । कल इसी समय आयेंगी । ऐसा कहकर एक सखी मन में हॅसी । इस गूढ वाणी को रहस्यमय समझ करसीता संकोच में पड़ गयी । देर हुयी जानकर वह भयभीत हुयी । अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चली । मनोभावना और व्यावहारिकता में एक सहज दूरी होती है । मृग , पक्षी और नृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार – बार मुड़कर झांकती ह । दिल से राम की मूर्ति जाती नहीं । प्रेम बढ़ता जा रहा है ।

 जानि कठिन शिव चाप विसूरति । चली राखि उर श्यामल मूरति ।।

 प्रभु जब जात जानकी जानी । सुख स्नेह शोभा गुण खानी ।।

 

 परम प्रेम मय मृदु मसि किसी । चारु चित्र मिति लिखी दीन्ही ।।

 गयी भवानी भवन बहोरि । बन्दी चरण बोली कर जोरी ।।

 

 कविवर तुलसी दास ज्ञान और भक्ति के रस में पगे हुए पंडित है । साहित्य रचना में सफल मनोवैज्ञानिक चित्रकार भी । राम सीता के प्रेम मिलन का जो शाब्दिक चित्रण गोस्वामी जी से हो पाया है । वह मर्यादित और पारंपरिक रहस्यों से परिपूर्ण है । जानकी जी का माँ गिरिजा से अनुनय विनय :-

 जय जय गिरिवर राज किशोरी । जय महेश मुख चन्द्र चकोरी ।।

 जय गजवदन षडानन माता । जगत जननि दामिनी दुति गाता ।।

 

 नहि तब आदि मध्य अवसाना । अमित प्रमाउ वेद नहि जाना ।।

 भव – भव विभव कारिणी । विश्व विमोहिनी स्वबसविहारिणी ।।

 

 दो ० पति देवता सुतीय महु भातु प्रथम तब रेख ।

 महिमा अमित न कहि सकहि सहस शारदा सेष ।।

 

 सेवत तोहि सुलभ फल चारि । वरदाभिनी पुरारी पियारि ।।

 दवि पूजि पद कमल तुम्हारे । सुर नर मुनि सब हो हि सुखारे ।।

 

 मोर मनोरथ जानहुँ नीके । वसहु सदा उरपुर सबही के ।।

 कीन्हेउ प्रगट न कारण तेही । अस कहि चरण गहे वैदेही ।।

 

 विनय प्रेम वश भई भवानी । खसी माल मूरति मुसकनी ।।

 सादर सिय प्रसादु सिर घरेउ । बोली गौरि हरषु हिय भरेउ ।।

 

 सुन सिय सत्य असीस हमारी । पूजहि मन कामना तुम्हारी ।।

 नारद बचन सदा सुधि साधा । सो वरु मिलहि जाहि मनु राजा ।।

 

 गिरिजा भवानी को अपने पक्ष में पाकर सीताजी के हृदय को उल्लास सहज शब्दों मे तो नही कहा जा सकता , सुन्दर सुमंगल के मूल लक्षण के रुप म उनके बाये अंग फड़कने लगे ।

 मुनि नारद ने सीता की हस्तरेखा देखकर कहा था यह जिसे वरन करना चाहेगी वही मिलेगा । पार्वती जी ने यह कहा कि नारद वचन सदा से पवित्र और सत्य रहा है , वही होगा ।

 सीता के सौन्दर्य की सराहना रामचन्द्र जी ने भी की । गुरुजी के समीप भी जाकर उन्होंने कुछ छिपाया नहीं । उनका सरल स्वभाव छलहीन ही रहा । फूल जो वाटिका से लाये थे , वह गुरुजी को दिया । उन्होंने पूजा कर श्री रामचन्द्र जी दोनों भाईयों को आर्शीवाद स्वरुप कहा – ” सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारें ” ।

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