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प्रभाग-11 बाल काण्ड रामचरितमानस

 सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी की स्तुति पूरी होते ही आकशवाणी हुयी । “ साधक सिद्ध और देवगण डरे नहीं , आपलोगों के लिनए ही भगवान हरि नर देह धारण करेंगे । वे सूर्य वंश में अवतार लेंगे । कश्यप और अदिति ने जो महान तप कर वरदान प्राप्त किया उसके अनुसार वे अयोध्या के राजा दशरथ और कौशल्या नाम के दम्पति के घर अवतार लेंगे । नारद जी का बचन सत्य करने चार भाई बनकर परम शक्ति के साथ जन्म लेंगे । धरती के सारे दःख हरण करेंगे । हे देव समुदाय ! आप निर्भय हों ।”

 आकाशवाणी सुनकर देवताओं का हृदय हर्षित हुआ । ब्रह्मा जी ने धरती को समझाया । वह हर प्रकार से भय रहित हो गयी । ब्रह्माजी भी अपने निवास को गये , साथ ही देवताओं को आदेश दिये कि वे वानर के रुप धारण कर धरती पर निवास करें । इस प्रकार रामावतार की भूमिका प्रकट हुयी ।

 अब राम जन्म की कहानी सामने आती है । अयोध्या नगरी में रघुवंशी राजा दशरथ हुये । उनकी चर्चा वेदों में भी हो चुकी है । वे धर्मात्मा गुणवान और भक्ति से भरे थे । उसी तरह उनकी तीनों रानियाँ भी थी । एक बार उनके मन मे चिन्ता हुई कि मैं पुत्र विहीन हूँ । वे तुरन्त गुरु वशिष्ठ के पास जाकर उनसे सबकुछ विनय पूर्वक कहे । गुरुजी ने बहुत समझाया , धीरज बंधाया कि आपको चार पुत्र होंगे । वे चारों तीनों लोकों में प्रसिद्ध , भक्तों के भय हरण करने वाले होंगे , उन्होंने शीघ्र श्रृंगी ऋषि को बुलाकर पुत्रेष्टि यज्ञ काराया । यज्ञ की आहुति पाकर अग्निदेव प्रकट हुए और यज्ञ का प्रसाद रुप चरु रानियों के बीच बाँटने का आदेश दिया । तदनुरुप उनके चार पुत्र हुए । कौशल्या से राम , कैकेयी से भरत और सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुधन दो पुत्र हुए । लक्ष्मण हमशा राम की सेवा में रमे रहे । उसी प्रकार भरत के साथ शत्रुधन ।

 भगवान रामचन्द्र को ईश्वर का सगुण अवतार होने का प्रमाण उनके जन्म काल की कथा है । भगवान विष्णु का चतर्भुज रुप पीताम्बर धारी , शंख चक्र – गदा – पदमधारी माँ कौशल्या के समक्ष प्रकट होकर उस बात का प्रमाण देते है कि मैं वास्तव में वही हूँ जो आपकी गोद में जन्म लिया है । कौशल्या जी ने अपने पुत्र के स्वरुप में प्रभु को पाकर प्रसन्न तो हुयी किन्तु वह शिशु रुप में उन्हें देखना चाहती है कि मातृत्व और बात्सल्य की अनुपम कड़ी तो शिशुलीला है । तब अगम , अगोचर , भक्त वत्सल भगवान रोने लगे और पुत्र बंधन में बँध गये । सम्पूर्ण लौकिक संस्कार किये गये । जन्म की औपचारिकताएँ पूरी की गयी । हर्ष मनाया गया । उनके रुप का वर्णन करते तुलसी दास नही अधाते । वे यहाँ तक कह गये कि रामचन्द्र का नेत्र लाभ लेने सूर्य सहित सभी देवगण अयोध्या आये । भगवान सूर्य तो उनकी छवि निहारते एक मास तक यही ठहर गये । यह रहस्य भरी घटना उनके भक्त ही समझ सकते हैं ।

 राजा दशरथ के गुरु वशिष्ठ से अपने चारों पुत्रों का नाम करण कराया । गुरु वशिष्ठ जी के शब्दों में –

इनके नाम अनेक अनूपा । मैं नृप कहव स्वमति अनुरुपा ।।

 जो आनन्द सिन्धु सुख राशि । सीकट ते त्रयलोक सुपासी ।।

 सो सुख धाम राम अस नामा । अखिल लोक दायक विश्रामा ।।

 विश्व भरण पोषण कर जोई । ताकर नाम भरत सम होई ।।

 जाके सुमिरन ते रिपुनासा । नाम शत्रुधन वेद प्रकाशा ।।

 दो ० लक्ष्मण धाम नाम प्रिय , सकल जगत आधार ।

 गुरु वशिष्ठ तेहि राखा , लछिमन नाम उदार ।।

 गुरु जी ने अपने हृदय में विचार कर ऐसा नामकरण करते हुए कहा हे राजन ! तुम्हारे ये चारों पुत्र वेद के तत्त्व हैं । मुनियों के धाम , भक्तों के सर्वस्व , और शिवजी के प्राण हैं , उन्होंने बाल लीला के रस में सरावोर हो सुखमय माना है । चारों पुत्रों का अयोध्या की भूमि पर पदार्पण एक महान घटना है किन्तु असाधारण । अपने अलैकिक कैतुक के रुप में बचपन से निभाते हुए लोक का हित सहित मनोरंजन तथा सुखद भविष्य का संवरण करते प्रतीत होते हैं साथ ही माताओं सहित पिता श्री दशरथ के हृदय को शान्ति प्रदान करते हैं ।

 यह भी बताया गया है कि एक बार माता कौशल्या अपने पुत्र राम को नहला और श्रृंगार कर पालने में सुला दी । अपने कुल के इष्ट देव की पूजा के लिए स्वयं स्नान करने चली गयी । पूजा कर नैवेध चढ़ाई । फिर वहाँ घर में भोजन बनाने चली गयी । जब पाकशाले से लौटी तो देखा कि पूजा घर में बाल रुप में नैवेध का भोग कर रहे हैं । दौड़ती हुयी कौशल्या जी पालने के पास गयी तो वहाँ बच्चे को सोते पायी , फिर पूजा गृह में जाकर देखी कि वे भोजन कर ही रहे थे । बार – बार उसी स्वरुप को देख माता भयभीत हो गयी । शरीर कांपने लगा । दो जगहों पर अपने दो बालक देख माँ ने सोचा कि यह मेरा मतिभ्रम है या और कुछ । इस पर बाल रुप भगवान मुस्कुराये और अपने अखण्ड अद्भुत रुप का दर्शन कराने लगे । प्रभु की इस बलवती माया को देखती कर जोड़े खड़ी दर्शन करती रही । मन में तो प्रसन्नता था किन्तु कुछ बोल न पाती थी । मूंदी आँखों उन्होंने प्रणाम किया । अपनी माँको आश्चर्य चकित देख प्रभु रुप पुनः शिशु बन गये । यह दर्शन अलौकिक था । अब तो वह चिन्तित थी । डरी सी थी । मैं इन जगत पिता को पुत्र माना ? तब उन्होंने अपनी माँ को सब रहस्य बताया तथा अगाह किया कि इसे किसी से प्रकट नहीं करना । फिर वे शिशुवत हो गये । यह ईश्वर की अनन्तता का दर्शन था जिसे सत्रुपा ने भगवान से वरदान मांगा था ।

 इतना ही नहीं , जैसे – जैसे भगवान चारों भाई सयाने होते गये इतना कीड़ा – कौतुक , मिलन व्यवहार , क्रिया कलाप , सबके सब अनोखे और हृदय को अपरिमित आनन्द और शान्ति देने वाले रहे । इसी बीच गाधि सुत विश्वामित्र ने अयोध्या जाकर श्री राम और लक्ष्मण को अपने यज्ञ की राक्षसों से रक्षा हेतु दशरथ जी याचना की । वहाँ जाकर रास्ते में तारका और सुवाहु का बध किया । उसे देखकर विश्वामित्र मुनि भी अपनी आँखें भगवान की कीर्ति का साक्षात दर्शन किया । आश्रम पहुँचकर राम लक्ष्मण मुनि की सेवा करते हुए ज्ञान निधि का श्रवण करते यज्ञ की रक्षा करने लगे । एक बार राक्षस मारीच अपने सहयोगियों सहित मुनि पर धाबा बोला । रामचन्द्र जी ने अपने वाण से उसे इस तरह मारा कि सौ योजन दूर समुद्र के पार फेंका गया । इस प्रकार कुछ दिनों तक ऋषि आश्रम में रहकर ब्राह्मणों और मुनियों पर कृपा की । उनसे पुराणों की कथाएँ सुनी , यद्यपि ये पहले से ही उसे जान रहे थे ।

 पुनः विश्वामित्र जी ने उनसे कहा कि चलो एक और कार्यक्रम दिखलाते हैं । दोनो राज कुमारो को लेकर जनकपुर में सीता स्वयंवर दिखलाने चले । रास्ते में एक सूना – सा आश्रम दिखा वहाँ एक पत्थर पड़ा हुआ था । विश्वामित्र मुनि ने उससे संबंधित सारा वृतान्त कह उनसे कहा कि यह पड़ी हुयी पत्थर शिला आप के चरणों की धूलि की प्रतीक्षा कर रही है । सचमुच कृपा निधि की चरण धूलि पाकर अहिल्या जो अपने पति गौतम मुनि के शाप से पत्थर बन गयी थी , मुक्त होकर भगवान के दर्शणों से कृतकृत्य हो गयी ।

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