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बुराईयों को ही प्राथमिकता जहाँ , वह देश है भारत !

डा ० जी भक्त

..जबकि हमारा देश ईश्वर के अवतारों का स्थल माना जाता हैं । जहाँ पर धर्म की संस्कृति पलती हैं ।

जब – जब होहि धर्म की हानि ! बाढ़े असुर अधम अभिमानी !!
तब – तब धरि प्रभु मनुज शरीरा ! हरही सदा सज्जन कर पीड़ा !!

यहाँ सदा से यही परम्परा रही कि पापियों के पाप मंजन हेतु भगवान का धरती पर आगमन हुआ । कदाचित ऐसा भाव मन में आना उचित भी लगता है कि सृष्टि में बुराईयों का विकास भी अपेक्षित हैं , अन्यथा ईश्वर , जिन्हें सदा से निर्गुण ही वेद बतलाता रहा , अगर पाप पल्लवित नहीं होता तो शायद निर्गुण ब्रह्म को सगुण रूप में प्रकट होने का अवसर कहाँ मिल पाता और हम परमेश्वर के दोनों स्वरुपों से अवगत होते कहाँ ।

हम भी तो बुरे ही ठहरे । हममें भी अगर विचारें , तो दोषों की कभी थोड़े हैं और हम सृष्टि के शिरमौड़ माने जाते हैं । सारे ज्ञानी पुरुष लेखक , कवि , विद्वान , संत , उपदेशक , पंडित के दिमाग में प्रथम दृष्टया पाप , दृष्कर्म बुराई , दोषादि पर ही अपना चिंतन केन्द्रित किया , उसका निदान निकाला । इतने वेद , शास्त्र , संहितांए , धर्मग्रंथ , न्यायशास्त्र , उपनिषदादि , विद्यालय विश्वविद्यालयों का अब तक का स्वस्थ चिन्तन बुराईयों के छिलके छिलना ही रहा ।

सृष्टि के चौरासी लाख योनियों में सिर्फ मानव ही ऐसा पाया गया , जिसके लिए दंड , दुःशब्द , अपवाद , निन्दा न्यायालय , कारावास , फाँसी तक की सजा का प्रचलन , विधान करना पड़ा । चोरी – ठगी , लूट , असत्य वचन , लोभ , बेइमानी , स्वार्थ , शोषण , उत्पीड़न घृणा , अपराध , आतंक , हत्या , भ्रष्टाचार आदि सारे के सारे मानव के ही विभूषण बने । हो सकता है इन चौरासी लाख योनियों में कुसंस्कार लेकर पैदा होने वाला मानव ही हो अथवा , चेतन , बुद्धिमान और विवेकी कहे जाने वालों के दिमाग में विकास की पहली अवधारणा में इन सारे दुर्गुणों की ही झलक मिली और अपनाये जाने लगे , तब तो बचपन में बोध उत्पन्न होते ही उन्हें विद्यालय भेजने की आवश्यकता पड़ी , क्योंकि अन्य जीवों ने अपने लिए ऐसा कुछ भी नहीं खोजा न आविष्कार ही किया जैसा मानव ने किया ।

आज मुझे कलम इसलिए उठानी पड़ी कि मैंने भी अपने शिक्षण काल से ही विचारना प्रारंभ किया कि कुछ लिखा जाए । मुझे ध्यान में आया कि व्याकरण पर विचारुँ जिसके अभ्यास से लोग शुद्ध – शुद्ध लिखना और पढ़ना सीखते हैं । यहाँ पर भी वही बात । जब शिक्षक बना तो लड़कों की अज्ञानता मिटाना , लिखावट और भाषा की गलतियाँ पकड़ना , बस यही कार्य । आज सुन रहे कि शिक्षा में गिरावट आयी , सारे विकास पर पानी फिर गया । चोर पकड़िये , अपराधी को पहचानकर सजा दीजिए , बीमार को दवा दीजिए । फिर रोग बढ़ता ही जा रहा हैं । विडम्बना है कि हम सृष्टि के सौभाग्यशाली , प्राणि हैं , अन्यथा हम बुराईयों की खान है । सुधार असम्भव हैं । बुराइयाँ संस्कारगण मानी जाती हैं । कबीर दास जी ने भी हार मानकर यही कहा-

नैहरे से दाग लगाई आयी चुनरी !
नहीं मिले धोबिया , कौन करे उजरी !!

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