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 ब्राह्मी सृष्टि

 ऋषियों ने आदि सृष्टि पर जो विचार धारा अपने चिन्तन में खड़ा किया वही हमारे जीवन में ज्ञान की शुरुआत हुयी । सृष्टि को लेकर जब चिन्तन प्रारंभ हुआ तो ब्रह्म रुप अगोचर भाव की कल्पना हुयी । किन्तु सृष्टि जो स्थूल रचना है या देखने में आती है उसका कारक एक अदृश्य सत्ता हो , ऐसा भ्रमात्मक लगता है किन्तु ब्रह्म और सृष्टि को दो सत्ता के रुप में झाँकना या स्थापित करना यह प्रमाणित करता है कि कर्ता का गुणात्मक स्वरुप ही माया रुप में सृष्टि बनी एवं प्रकोप हम ब्रह्म को सृष्टि के साथ एकाकार मान लेते हैं ।

 अब हम देख रहे हैं कि सृष्टि में गुणात्मक परिवर्तन भी लक्षित है जिससे विभिन्न स्वरुप विभिन्न रूपों को धारण कर पाया , जिसे हम मात्रात्मक रुप में तीन प्रकार में आंकलन कर पायें , जिसकी संज्ञा त्रिगुण ( सत् , रज और तम ) उत्तम , मध्यम एवं हीन करके जाना । अर्थ यह हुआ कि गुणवत्ता की क्रमश कमी से प्रकारान्तर से तीन प्रकार के गुण अपनी मात्रात्मक उपस्थिति से रुप परिवर्तन कर प्रकृति का स्वरुप विधान और निधान होते पुनः अवसान भी फलित हुआ । ब्राह्मी सृष्टि नामकरण करने से प्रकृति में विविध पदार्थों को भिन्न आकारों में फलित होते , बनते – बिगड़ते देख कर उसे निर्जीव और शेष को सजीव माना ।

 प्राकृतिक घटनाओं को घटते देख आश्चर्य , भय , कष्ट और आनन्द का अनुभव कभी सोचने , बिचारने , भागने , छिपने , सुरक्षा करने , अपेक्षित हित का आभास होने पर उसका साथ , संयोग , प्रयोग और उपयोग का लाभ मिला । ज्ञान और सोच का प्रत्यक्ष लाभ पाकर मानसिक विकास प्रारंभ हुआ । अब मानव में जीवन एक अवसर का सृजन करने लगा । धीरे – धीरे सामाजिक जीवन का स्वरुप खड़ा हुआ । जैविक सृष्टि और कृत्रिम निर्माण की गति और मति से मानव प्राकृतिक ही न रहा बल्कि वह प्रकृति से जुड़कर अपनी पृथक भूपिका प्रारंभ की । इस प्रकार मानव प्रकृति का साहचर्य पाकर कालान्तर में प्रकारान्तर से सजा – धजा पारिवारिक जीवन तक की यात्रा पूरी कर पाया ।

 प्रागैतिहासिक युग में मानव कई चरणों में विकास पाया । पहले वह अन्य जीवों की तरह शिकारी था । फिर वनस्पतियों , वृक्षों के दाने , फल आदि खाने लगा तो उसमें जानवर पालने और खेती करने की कला विकसित हुयी । अब शिकारी मानव चरबाहा और कृषक बना । इसी प्रकार आग और चक्का का आविष्कार से लेकर मिटी के वर्त्तन और पत्थर के औजार उसके विकास की श्रृंखला में प्रस्तुत हुए ।

 यहाँ तक कि सृष्टि में प्रस्तर युग तक की यात्रा में मानव की प्रथम सभ्यता का रुप निखरा । यहीं से मानवीय चेतना में ज्ञान और कर्म की श्रृंखला प्रस्तुत हुयी । चेतना का प्रसार मानवीय शोघ और प्रयोग विधान के द्वारा ज्ञान में समृद्धि ला सका , तो मानव की कार्य प्रणाली उसकी संस्कृति बन कर उभरी , जिसमें दिव्य चेतना , बौद्धिक क्षमता और प्रज्ञा का पल्लवन मानवता के रुप में ख्याति पाया । तब वह बौद्धिक युग का पदार्पण कहलाया ।

 सम्प्रति ब्रह्म सत्ता पर विषद विवेचन वेद प्रणयन की प्राथमिक कड़ी बनी , जिससे चारों वेद रचे गये ऐसी मान्यता है । इसे भाव रुप में ब्रह्म निरुपन कहना भी उपयुक्त होना चाहिए । ब्रह्म निरुपन , परामात्म बोध या ब्रह्म विधान मानव के द्वारा सृष्टि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना ही ईश्वर की स्वीकृति या भक्ति है । सृष्टि का भग्वद त्रयी भाव ही इसमें निहित ज्ञान , कर्म और भक्ति है । इसे सम्पूर्णता में ग्रहण करना ही जीवन दर्शन है ।

 यद् वेद विदो वदन्ति ।

 ( डा ० जी ० भक्त )

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