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भाग-1 राष्ट्रधर्म एवं राजभक्ति

 1. राजनयिकों , प्रशासनिक पदाधिकारियों , कर्मचारियों और लोक सेवकों का दायित्व राज धर्म हैं जबकि राजभक्ति में नागरिकों का दायित्व जुड़ता है ।

 2. मूलतः नागरिक की तरह वे भी उसी जनसंख्या से आने के कारण आम नागरिक ही है किन्तु उन्हें साम्वैधानिक रुप से कुछ विशेष दायित्व दिये गये हैं ।

 3. इस प्रकार से राजभक्ति और राज धर्म सुनने में एक – से लगने पर भी उन में थोड़ी भिन्नता है ।

 4. इनमें से कोई सनातन नहीं है । मानव धर्म ही सर्वोच्च हैं ।

 5. समय की मांग और महत्त्वाकांक्षा से जुड़ा विषय राजनीति है । यह सत्यवादिता या पितृभक्ति जैसा सनातन धर्म नहीं , यह विचारधारा मात्र है ।

 6. जन आकांक्षाओं को प्राथमिकता देने से यह राज धर्म है साथ ही राज्य जैसे संगठन के कल्याणकारी लक्ष्यों के प्रति निष्ठा राजभक्ति के रुप में मान्य है । ये मान्यतायें कालक्रम में परिवर्तनीय है ।

 7. सकल कालदर्शी विधान का कल्पन , आकलन , नियमन और संदर्शन सनातन नहीं हो सकते । कुछ लिखित तो कुछ अलिखित मानव धर्म से व्याख्यायित होंगे ।

 8. स्वतंत्र भारत का राजनैतिक संविधान 1950 में निर्मित हुआ । 1952 से क्रियान्वित हुआ । 1947 के 15 अगस्त से 26 जनवरी 1950 तक की राज व्यवस्था ब्रिटिश सत्ता के ही पथ पर लुढ़कती रही होगी । संविधान की रचना के नीति निर्देशक तत्वों का निर्धारण युगीन और अतीत के राजदर्शन , का समन्वय हुआ । उसमें अमेरिका और फ्रांस के संविधानों का भी सार संचित किया गया । अतः भारत का संविधान कदापि मौलिक संविधान नही माना जा सकता । अतः उसमें परिवर्तन की व्यवस्था होते हुए भी पूर्णतः नमनीय नही , किंचित अनमनीय संविधान करार दिया गया ।

 9. मानव धर्म में लोचकता है वह सार्वकालिक और सर्वदैशिक आदर्श का पालन करता है लेकिन हमारा राजनैतिक विधान इन दोनों आदर्शो का अतिक्रमण करता है ।

 10. हमारे संविधान निर्माताओं ने कमजोर और पिछड़े वर्गों के हितों के रक्षार्थ , हरिजन आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के विकासार्थ आरक्षण और विशेष सुविधाओं का विधान किया जो कालवद्ध था । स्पष्ट प्रमाण है कि लक्षित विकास अबतक अधर में लटका है ।

 11. इस विधान का लाभ राजनयिकों को मिला किन्तु लाभुक अपनी पुरानी स्थिति में ही पाये जा रहे और लाभ उठाते रहे ।

 12. राजनीति चलती रही । न राज धर्म फलित हुआ और न राजभक्ति जगी ।

 13. देश स्वतंत्र हुआ । सिर्फ सत्ता का हस्तान्तरण । वह भी मुख्यतः उन्हीं लोगों के हाथों गया जो पहले से अंग्रेजी सत्ता ने सक्रिय थे ।

 14. उनमें तथा देश के तथाकथित राजनयिकों में राज सत्ता की महत्त्वाकांक्षा बढ़ती गयी किन्तु जन अआकांक्षाओं की अनसुनी की गयी या उदासीनता ही लक्षित हुयी ।

 15. प्रमुख राष्ट्रीय पहलू आज भी उपेक्षित है और देश का अहित हो रहा है ।

 16. आधुनिक आर्थिक युग में विश्व की राजनीति से राजधर्म कमजोर हुआ । राजभक्ति न जनता में आसकी और राजनैतिक व्यवस्था में राष्ट्रभक्ति रही नही , शोषण और लूट का बोलवाला रहा ।

 17. औद्योगिक जगत सत्ता के साझेदार बने , तब से राष्ट्रहित समाप्त होता गया और पूँजीवादी व्यवस्था का नग्न नृत्य शुरु हुआ ।

 18. जनतंत्र का जन्मदाता देश जनतंत्र को कमजोर होता देख रहा है ।

 19. राजधर्मिता का प्रशिक्षण स्थानीय स्वशासनों , जन वितरण , व्यवस्था में , पैक्स तथा एन ० जी ० ओ ० के माध्यम से होने लगा और आर्थिक लूट और बन्दस्वॉट का अशोभनीय हश्य सामने आया ।

 20. संविधान में सत्ता को निरंकुश होने से बचाने एवं अकुशल शासन को बदलने की पंचवर्षावधिक योजना बनी , किन्तु सत्ता के लोलुप और सुख भोगी अगली जीत सुनिश्चित करने हेतु अपना अर्थ , बल और जनमत संग्रह का नयातंत्र विकसित कर चुके ।

 21. राजनैतिक रस्साकशी में राजधर्म की जगह सत्ता का स्वार्थ ही प्रखर साबित हुआ । फलतः क्षेत्रीयता की राजनीति आयी और राष्ट्र का विखण्डन प्रारंभ हुआ । अखिल भारत अब खण्डिन होने की दिशा में बढ़ रहा है ।

 22. आज राजधर्मिता में कही कोई निर्माणत्मक या सुधारात्मक कार्यक्रमतो दिखता नहीं , जनमत का प्रदर्शन , सभा में भीड़ जुटाना , रैलियाँ , लोक लुभावन घोषणाएँ और वोट खरीदने की नीति , झूठे वायदे और तुष्टीकरण के आर्थिक प्रयोग एवं आरक्षण ।

 23. नेताओं और मंत्रियों के भाषण में मुख्य विषम आरोप प्रत्यारोप ही , न कोई ठोस योजना , न कार्यक्रम ।

 24. सरकारी विकास के आँकड़े असंतोष जनक एवं विरोधाभासी रहे ।

 25. राज्य और राष्ट्रीय कोष का बुरी तरह दुरुपयोग और विकास कार्य बाधित ।

 26. राजकीय उत्सवों , विदेशी राजनयिकों के स्वागत , राष्ट्रपति , प्रधान मंत्री के कार्यक्रमों , मंत्रियों के दौड़े पर अपार खर्च , बहुतेरी राजकीय व्यवस्था , विभाग , निगम आदि जो भूमिका विहीन साबित हो रहे है उनके ऊपर अनावश्यक आर्थिक बोझ , आर्थिक घोटालों की क्षतिपूर्ति का न होना , उसकी जाँच पर अपरिमित व्यय तथा समय और संसाधन की क्षति अपराधी से पूर्ति नहीं कराये जाने की स्थिति में राजकीय कोष की हानि , राजस्व और दण्ड राशि की चोरी और देश का धन विदेशों में गोपनीय ढंग से छिपाना आदि ऐसे कृत्य है जो राष्ट्र को कमजोर , बदनाम और गलत परम्परा की शुरुआत कर इतिहास को कलंकित करता है ।

 27. जनतंत्र में राज्य की सत्ता मालिक नहीं साम्वैधानिक प्रतिनिधि मात्र है ।

 28. जनतंत्र में जनता को सुखमय जीवन जीने और विकास का अवसर दिये जाने की जिम्मेदारी है । पदाधिकारियों , राजनेताओं को आलिशान सुख का साधन मुहैया कर विषमता लाने की बात जनतांत्रिक आदर्श नहीं ।

 29. यही मुख्य कारण है कि आज जनता इस जनतंत्र के प्रति आस्था नहीं रखती । ।

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