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आँसू

संवेदनाओं की झोली में एक अनुत्तरित प्रश्न-4
  आँसू एक परिचयात्मक पाणि – पल्लव
 

आँसू संवेदनाओं की झोली में एक अनुत्तरित प्रश्न   आँसू एक परिचयात्मक पाणि - पल्लव An unanswered question in the bag of tears   Tears an introductory feast - Pallav आँसू लेखक डा० जी० भक्त Author Dr. G. Bhakta book
….. संवेदनाओं की झोली लिए कष्टों का बोझ सहते मानव मूक बनकर झांक रहा है । अपनों की पहचान खो रहा । ऐसा समय आ चुका जब मानवीय संबंध टूट रहा । हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता , रघुकुल का प्रण पालन , यदुवंशियों का कृष्णा प्रेम , गाँधी की अंहिसा को आज भारत क्यों भूला ? उसकी खोज होनी चाहिए ।
 कुछ भूल हो रही । हम भारतीय अबतक संस्कृति रच रहे थे । अब हम उस संस्कृति के भक्षक बन रहे । शुचिता समाप्त हो रही , और क्या – क्या गिनाया जाय । दुःख है- कि ..जो गंदे दिल से उस समस्या को उठाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हो वे ही गंगा को गंदा करार दे रहे । गंगा कभी मैली न रही , वह मैल धोती रही , पतित पावनी रही , स्वर्ग से उतरी थी वह भागीरथी गंगा । आज वह कर्मनाशा बनने जा रही । क्या हम भारतीय भागीरथ नही बन सकते ?
 ..तो क्या लाभ हुआ वेद रचने का जगतगुरु बनने का ।
 पहले शिक्षा सुधारो , मानवता लाओं सामाजिक सरोकार को सुदृढ़ बनाओ , कर्त्तव्य बोध अपनाओं । भाईयों को मत सताओं । प्रेम जगाओं ताकि युद्धास्त्र की जरुरत न पड़े । विश्व के आँसू को शीतल स्पर्श चाहिए , वमों के प्रहार और दाह नहीं ।
 2020 का वर्ष शायद नव भारत के इतिहास में पहला ही वर्ष होगा जब एक ही प्रकार की विपदा सारे विश्व में एक समान से व्याप रही , नाम कोरोना । सचमुच रुलाने वाला , इतना ही नही उससे भी बढ़कर धातक और मानव संस्कृति का भक्षक जो अपने दृष्प्रभावों के कारण दुनियाँ को भारतीय संस्कृति के तत्वों को अपनाने , दुहराने और जीवन में उतारने का संदेश दे रहा । अगर संतोष है तो इतने भरका और सारे विफल प्रयास रहे ।
 ..लेकिन , विश्व के सभी राष्ट्र अपनी महत्त्वाकांक्षा पर डटे नजर आ रहे । वैसे लोगों के पास आँसू के सटीक उत्तर नही । इसलिए अनुतरित रहें । कोरोना पर ही आइए । दुनियाँ के राष्ट्र इसे वैज्ञानिक दृष्टि से झाँक रहे है जो अब तक अपूर्ण है । जिसने अपनी अस्वीकार की नीति में उत्तर दिया कि हमारे पास कोरोना का इलाज या संक्रमण का निक्षेप सम्भव नहीं । एकाएक उदासी छायी जिसको साल भर का समय गुजारना पड़ा । इस आशा में कि वैक्सीन बनेगा आज वैक्सिन पर भी महत्त्वाकांक्षी तनाव है । आँसू रुक न पा रहे । हमारे पास घिसा पिटा उत्तर है । उसे हम आध्यात्मिक रंग देते हैं । भारतीय संस्कृति की दुहाई देते है । उसके महत्त्व को स्वीकारते हैं । नीतियाँ कोई खास नहीं , सब कुछ मौखिक है जैसे हम धर्म प्रधान देश के निवासी होकर धर्म निरपेक्ष है , कह सकते भी है कि मानव होकर हम पशु है । लेकिन आपही बतलायें कि मानव को पशु कहना सहनीय हो सकता है । एक दिन सुन रहा था मिडिया के चैनल पर विमर्श चल रहा था । पहचानता नही , कौन सज्जन थे , होंगे कोई नेता ही , कह रहे थे तुम्हारा भगवान जानवर है , बानर है , इत्यादि । भाई क्षमा करेंगे । आपने किसी विषय को लेकर आवेश में ही भालू है

ऐसा कहा होगा जैसे मैं कुछ मर्माहत होकर ही कलम को कष्ट उठाने के लिए वाध्य कर रहा हूँ । मेरा घिसा – पीटा उत्तर आँसू के संबंध में है सामाजिक अपसंस्कृति ………… | और यही अपसंस्कृति कोरोना के आदिर्भाव की पृष्ट भूमि में है । उसका एक उदाहरण आतंक वाद है और स्मार्ट संस्कृति का आहान । जिसे हम त्यागना नही चाह रहे तो वह अपना प्रभाव जमाना नहीं छोड़ रहा । इसी की रस्साकशी में दुनियाँ दवी हुयी लाचार मरनासन्न है

” ना जाने कित मारि है , क्या घर क्या परदेश ।”

 देख न लिया , परदेश से मारे घर आये , यहाँ भी वही पाये- कोरोना , हाय । तने तो सिर्फ रुलाया होता तो भी ठीक था लेकिन मार डाला , दुनियाँ मे तो लाश को भी सम्मान मिलता है । लेकिन कोरोना वाले शवों को कोई छूता नहीं । …….. | इसलिए आँसू ….. जिसे हम मानवीय सम्वेदना का प्रतीक मात्रकहकर सम्बोधित कर रहे है , वह अनुत्तरित है ।

 उत्तर सुनिये ,

 आदिकाल से राजतंत्र रहा , उसका भी अन्त हुआ , कौन – कौन तंत्र न आया । किसकी पराजय न हुयी , आज विश्व में पुजातंत्र है । यह क्यों बना था ? शायद उसे सबसे उत्तम राज व्यवस्था मान ली गयी थी अब उसके पास से जनमत पिछड़ रहा । जनतंत्र कमजोर पड़ रहा । गठबंधन की आशा लेकिन विलय नहीं , विचारधारा से समझौता कहाँ मेरी कल्पना जिसे मै भी आज उसे आदर्श तो नही किन्तु आदर्शवादी ही कहूँगा । आदर्श चिन्तनों का इतिहास वैदिककाल में जो जन्म लिया आज तक हमारे पुस्तकों में तो है ही सिर्फ आचरणों में और माने तो अब चिन्तनों में भी नहीं है । हमारे प्राथमिक शिक्षण से भी अनुशासन , नैतिकता , कर्तव्य बोध और सामाजिक सरोकार जैसे सामाजिक तत्त्व गायब है और वैश्विक धरातल पर राष्ट्रीय मर्यादा का क्षरण इसी के कारण हो रहा है ।
 दूसरा बिन्दु है प्रेम और दया का , जो आँसू का उमूलन कर सकता है । जन – जन में एकी भाव को हृदय में स्थान देना , जहाँ न क्रोध होगा , विरोध , न क्रोध , न हिंसा न कोई कष्ट या विशाद ही ।
 तीसरा होगा भय निवारण । क्यों न हम अपने मन से ही भय हटा दें । विडम्बता है कि हम जिन्हें अपने मतों से विजयी बनाकर भेजते हैं वे हमारे दरवाजे पर किसी आयोजन में निमंत्रित होकर भी आते है तो गाड़ी के साथ , शस्त्रों के साथ । गाड़ी पर सवार होकर । ठीक है उनका क्षेत्र बड़ा और व्यस्तता अधिक होने के कारण तीव्र सवारी की अनिवार्यता रहेगी किन्तु दरवाजे पर कभी किसी आपदा विपदा में भेट करने नेता सहज नागरिक रुप में , भाव में , भाषा में , विचार में हृदय से एक भाव लिए मिलते पाये गये ?
 देखने को मिला था एक आदर्श तथ्य व्यवहारिक रुप में । अखिल भारतीय होमियोपैथिक महा सभा का द्विवार्षिक अधिवेशन मुम्बई में हो रहा था मैं बिहार राज्य से एच ० एम ० ए ० आई ० का राष्ट्रीय प्रतिनिधि बनकर भाग ले रहा था । समापन समारोह का सम्बोधन करते हुए तात्कालीन राष्ट्रपति महामहिम ज्ञानी जैल सिहजी मंच पर अपने गार्डो से घिरे थे । उन्हें 45 मिनट का समय सम्बोधन के लिए निर्धारित था । समय पूरा होते उनके गार्ड घड़ी की ओर तीन बार इशारा किये । इस पर महामहिम जी ने कहाँ- मैं अपने देश के अन्दर अपनी धरती पर हूँ । मुझे हक है अपने देश की जनता के बीच खुलकर समय देने की । मैं कुछ कह रहा हूँ तो अपनी प्रिय जनता के बीच सौभाग्य मानता हूँ । मैं
भी वहाँ स्वतः उपस्थित सुन पाया । कृतार्थ हुआ ऐसे पुरुष के प्रासंगिक वाणी में सम्बोधन से । अगर यह जन नेतृत्व में सहज देखा और पाया जाय तो आँसू का धरती से उत्सादन हो जाय ।
 ऐसा अगर सार्थक परिलक्षित हो तो ” क : रोना ” : कोरोना अर्थात रोना क्या ? कोरोना कोई अर्थ नही रखता , ऐसा दृष्टि गोचर होगा किन्तु हमने क्या देखा –
 चिकित्सकों को ही अपने रोगी के सम्पर्क से कोरोना के संक्रमण का भय सताने लगा । अपने कर्त्तव्य से पिछड़ने लगे । इससे बढ़कर कर्म और धर्म का तिरष्कार क्या होगा ?
 अब मेरी अंतिम – सलाह होगी कि जन सेवा को सदा श्रेय दिया जाय । उसे दूसरे शब्दों में हम शील सौजन्य कहते है । मानव होकर मानव का सम्मान करना ही परम भक्ति था कृतज्ञता का भाव रखना पूजा स्वरुप होगा । यहीं पर ” सिया राममय सब जग जानी ” का निहितार्थ फलेगा और मानव जन्म चरिचार्थ होगा ।
 अपरंच , मैं आप पाठकों से निवेदन करूँगा कि यह लघु रचना जो आज से 10 वर्ष पूर्व पूरी हुयी थी वह किसी प्रकार खो गयी । इसकी पीड़ा मुझे ही पीड़ित कर रखी । मैं इसे प्राप्त करने में अबतक अपने को असफल पाया । उसका विस्तार इससे ज्यादा था , मैं उस तैयार कर मन से संतुष्ट हुआ था । पुनर्रचना का ख्याल बार – बार मुझे मन पर चोट डालता रहा जिसे आज लिखकर कर्त्तव्य पूरा कर पा रहा हूँ । उसमें अन्तर्निहित भावों की श्रृंखला के संबंध में मैं स्वतः क्या कहूँ किन्तु इसकी परिपति भी मुझे पसन्नता दिला रही साथ ही आशान्वित भी हूँ कि आप इसे अवश्य सहारना के साथ जीवन में जोड़ने के प्रयास के साथ अन्यों को प्रेरित – प्रोत्साहित कर पायेंगे । निवेदन के साथ संवेदन भी एक सजीव शब्द चित्रण है जो साहित्य को ही अलंकृत नहीं करता बल्कि ऐसे समाज का संगठन करता है जो राष्ट्र का प्राण बनता है । मै हत भाग्य हूँ कि ऐसी भाषा को सामने तो रख पाया हूँ किन्तु यह प्रश्न ही बनकर रह न जाय । अगर इस निवेदन के शब्द का व्यक्तिकरण सम्भव न हुआ , यह जिम्मेदारी देश की आने वाले पीढ़ी के लिए चुनौती ही रह जायेगी जिसे मैं अबतक अनुत्तरित शब्द से दुहराता रहा हूँ ।

( डा ० जी ० भक्त )

लेखक
हाजीपुर ( वैशाली )
तदनुसार भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी
रविवार की रात्रि
दिनांक 16 अगस्त 2020 ई ०

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