आचार संहिता और जन जागरुकता की शिक्षा
जनतंत्र की धरती पर जन जागरुकता जगाने का अभियान कब तक चलता रहेगा ?
सुनने पर दुखद अनुभव होता है जब चुनाव के लिए आचार संहिता लागू हो जाती है , उस अवधि में सरकार चुनाव की तैयारी के विधान रुप मतदाताओं के बीच जागरुकता अभियान में अपनी उपलब्धियाँ और विकास कार्यों की गिनती प्रस्तुत करती है । मुझे समझ में नहीं आता कि मेरी समझ कमजोर है , या इस देश के नागरिक जनतांत्रिक धारा से सुदूर कहीं पलायन कर चुके है अथवा उनकी स्मृति मारी जा चुकी है किंवा सरकार को विश्वास नहीं हो पाता कि उनके देशवासी तक उनके कीर्तिमान की जानकारी अबतक पहुँची अथवा नहीं ?
इन सारी परिस्थितियों में हम अपने को नहीं न कहीं कमतर अवश्य पा रहे हैं । …. जबकि चुनाव की घोषणा के बाद सतासीन या विपक्षी सभी प्रत्याशी के रुप में ही उतरते है जिन्हें पहले से इस प्रणाली की जानकारी होती है । यह भी जानकारी पूर्व से ही आज के समाचार सम्वाद के युग में इतना सरल और तत्क्षण प्राप्त हो जाने का प्रमाण है । सभी शिक्षित है । साधन सम्पन्न हो चुके हैं । चुनाव के मुद्दों की सफाई और रंगाई तो चलती ही रहती है ।
अगर इसकी आवश्यकता समझी जाय तो मात्र नये उम्मीदवारों के संबंध में अन्यथा दलबदलुओं के संबंध में अथवा नये गठबन्धन की स्थिति में । .तो इसके लिए इतने हो – हल्ले , प्रचार अभियान , गान – फरमान , खर्च और दौड़ – धूप की परेशानी में पड़ने का आखिर फल क्या होता है इसे गिना पाना , उसका परिणाम देखना , नियम – नीति को ताक पर रखकर बंदगी सलामी से सरदर्द अरजना , धूल उड़ा कर एलर्जी पैदा करना , जुलुस के नाम पर कोरोना को झुलाना , शोर से श्रवण शक्ति को कमजोर करना क्या जनतंत्र और जनमत पर पड़ते प्रभावों का प्रतिशत घटा पायेगा ? हमने 73 वर्षों ( मानें तो पूरी जिन्दगी बिताने ) के अनुभव अपने को जनतंत्र के आलोक में किस मील के पत्थर पर खड़ा पा रहे है ? आखिर हम जनतांत्रिक मूल्यों पर कबतक खड़ा उतरने की प्रत्याशा पाले रखें ?
( डा ० जी ० भक्त )