आधुनिक जीवन में श्रीमद्भगवद्गीता
( निष्पति व निवृत्ति )
निष्पत्ति भाग-1
गीता तो स्वयं समस्त ज्ञान का सार रुप है , किन्तु गीता का सार क्या है- इसे समझना भी जरुरी है । इस श्रीमद्भग्वद्गीता के अध्ययन एवं नियमित पाठ से हमें क्या लाभ मिलता है ? गीता में वर्णित विषयों का अभ्यास किन – किन पुरुषों के लिए किस रुप में किया जाय ? गीता में क्या दुरुहता है जिससे हमें विरोधाभास पैदा हो जाता है ? इस जगत का निःशेष ज्ञान क्या है ? वास्तविक ज्ञान क्या है ?
ऐसे तो प्रश्न बहुतेरे हैं । सिद्धान्त रुप में जानने के बहुत से विषय हो सकते हैं किन्तु व्यावहारिक लाभ के जो पहलू हैं , उन्हें ही आत्मसात करना बुद्धिमानी है । जनसामान्य के व्यावहारिक जीवन को उन्नति शान्ति और समरसता प्रदान करने वाली नीतियाँ ही उसे ज्ञान , अस्तित्त्व और आत्म सुख दिला सकती है । अतः उन्हीं मौलिक किन्तु शास्वत विषयों को ध्यान में रखकर अध्ययन करने से या नियमित पाठ करने से सभी प्रश्न हल हो जाते हैं । केवल प्रश्न का हल जानना मात्र ही आवश्यक नहीं हैं । व्यावहारिक जीवन से प्रश्नों का निदान हो जाना परम गति है ।
उपरोक्त प्रश्नों के आधार पर जो मैंने निर्णय लिया है उसके अनुसार गीता में निम्न तथ्य दृष्टिगत होते हैं :
1. गीता तत्त्व ज्ञान अर्थात जगत की यथार्थता का बोध कराती है ।
2. गीता कर्म की व्याख्या करती है ।
3. गीता ज्ञान तथा कर्म का अन्तर ( मर्म ) बतलाती है ।
4. गीता कर्म एवं योग का रहस्य बतलाती है ।
5 , गीता में सन्यास योग तथा कर्म योग की विशेष व्याख्या की गयी है ।
6 , गीता में विविध कर्मों के फलों का विश्लेषण है ।
7. गीता में ब्रह्म के स्वरुप का दर्शन है ।
8. गीता में सगुण एवं निर्गुण रुपों की व्याख्या है ।
9. गीता प्रकृति के त्रिगुणात्मक रुप का रहस्य बतलाती है ।
10. गीता मोक्ष की व्याख्या करती है ।
उपरोक्त तथ्य तो ज्ञानार्जन से सम्बन्ध रखता है । अब व्यवहार यानी कर्म क्षेत्रमें गीता की क्या उपादेयता है- इस पर भी ध्यान दें ।
ज्ञान क्या है ? तत्व और गुण क्या है ? कर्म , निष्काम कर्म और पाप कर्म क्या है ? रोग दोष क्या है ? कामना क्या है ? शरीर इन्द्रियाँ एवं मन का संबंध क्या है ? समत्वबुद्धि , चित्त की स्थिरता , ध्यान , भक्ति , त्याग , देव पूजा , वेद , देवता , परमेश्वर क्य है ? योग साधन कैसे हो सकता है ? सर्व साधारण इस आत्म तत्त्व को कैसे प्राप्त कर सकता है ? ऐसे महत्वपूर्ण विषयों का स्पष्ट एवं सुन्दर वर्णन गीता में उपलब्ध है ।
आपको अबतक सन्देह लगा ही होगा गीता कि में नौकरी , गृहस्थी , ठीकेदारी , राजनीति आदि विविध पेशों का जिक्र नहीं किया गया । विज्ञान , फैशन , यातायात , व्यवसाय , उद्योग , बेरोजगारी , प्रशासन , आदि का वर्णन नहीं है । उपरोक्त सभी कर्म विन्यास तथा सतोगुण , रजोगुण , तमोगुण के प्रकाश में स्पष्ट रुप से दर्शाएँ गये हैं । साधन की शुद्धि को परिवार कल्याण एवं विश्व शान्ति का पहलू बतलाया गया है ।
गीता में कर्त्तव्य विमूढ अर्जुन को कृष्ण जैसा गुरु कर्म क्षेत्र में समझा रहे हैं । क्या समझा रहे हैं ? गीता । आज समाज में असंख्य जन कर्त्तव्य विमूढ़ हो रहे हैं । उनका गीता मार्गदर्शन करे- यही गीता की सच्ची उपयोगिता होगी । हमारे युवक किस तरह कृष्ण के अमृत तुल्य वचन को अपने जीवन में जोड़कर जन्म को कृतार्थ कर सकेंगे ? गीता मानव समुदाय की हर ईकाई के लिए मार्गदर्शक एवं सहायक है । ज्ञान पक्ष हमें दिशा बोध कराता है तथा कर्म पक्ष कुपरिणाम रुप दुःख से बचाकर सफलता की दिशा में उत्तरोत्तर अग्रसर कर सुख की ओर ले जाता है । अगर कोई सबसे सहज एवं सरल तरीके से पवित्र जीवन यापन करना चाहे तो उसके लिए भी गीता में साधन सुझाया गया है । अगर कोई महापापी पुरुष अपने पाप कर्मो से छुटकारा पाना चाहें तो उसका भी मार्ग निर्देश हुआ है । अगर अति दीन मानव सुख और आत्म तोष चाहे तो उसका भी निदान किया गया है । किसी जटिल कर्म में लगा मनुष्य का चित्त कर्म से बिचलित हो रहा हो तो उसका भी उपाय है । किसी तुच्छ कर्म में संलग्न मानव अगर आत्मोन्नति चाहता है तो उसके लिए भी सुझाव है । कर्म मार्ग , ज्ञान मार्ग , देव मार्ग , पितर मार्ग , योग या भक्ति , सिद्धियाँ साधना , कुछ भी हो , सब वर्ण , सब जाति , सब समुदाय , सब इकाई , सब पेशा , सब आदर्श , सब अवस्था , सब स्थान , सब समय , सब उम्र , और भोग में गीता में सुझाये गये उपदेश अपने में सम्पूर्णता लाने के लिए उपयुक्त है तथा अन्त में सभी परिणाम एक जगह पहुँचते हैं । एक – एक आदर्शपूर्णमानव को जन्म देता है या प्रतिफलित करता है । एक – एक परिणाम अमृत है ।
हम आज विश्व में अशान्ति , असंतोष तथा अव्यवस्था देख रहे हैं । हमारे सामने युग निर्माण का प्रश्न है । हम अपनी नयी पीढ़ी के युवा युवतियों तथा छात्रों पर भरोसा रखते है हमें उनके अन्दर युगचेतना भरनी है । युग बोध तथा आत्म बोध पैदा करना है । समाज को एक निष्पक्ष प्रशासक की आवश्यकता है जो शोषण मुक्त समाज की रीढ़ बन सके । हमें एक धर्मनिष्ठ न्यायधीश की आवश्यकता है जो समाज को समुचित न्याय दे सके । एक कर्त्तव्य निष्ठ सेवक की आवश्यकता है जो जन समुदाय को सुविधाएँ प्रदान कर सके । सुयोग्य चिकित्सक , अभियन्ता , शिक्षक , पदाधिकारी एवं नेता की जरुरत है जो स्वस्थ , सुदृढ , सुशिक्षित , अनुशासित एवं सद्भावपूर्ण समाज का सृजन कर सके । एक संवेदनशील नम्र , दयालु और इमानदार उद्योगपति , व्यवसायी तथा पूँजीपति की आवश्यकता है जो उत्पादन को बढ़ाकर जन – आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति कर सके । एक कर्मठ , शालीन , परिश्रमी और सहनशील , किसान एवं मजदूर की आवश्यकता है जो उत्पादन को बढ़ाकर जन – आवश्यकताओं को प्रचूरता से पूर्ति कर सकें । एक दूरदर्शी वैज्ञानिक , लेखक , समाजशास्त्री की जरुरत हैं जो समाज को चिर सुख और शान्ति का साधन जुटा सके । एक सुशिक्षिता , सुशीला , सेवा परायण एवं कुशल कन्या की आवश्यकता है जो आगे सफल गृहिणी बनकर घर को सुखों का भण्डार बना सके । एक स्नेहमयी माता की आवश्यकता है जो गुणवान पुत्र तथा गुणवती पुत्रियों का जन्म देकर पृथ्वी का भार हल्का करें ।
ये सारी जिम्मेदारियाँ स्वरुप में जटिल एवं साधन में सहज है । सबका मार्ग एक ही है । आगे आइये । मन में निश्चय कीजिए । आप किसी उच्च विद्यालय में प्रवेश पाये विद्यार्थी हैं । एक गीता की पुस्तक अन्य पुस्तकों के साथ – साथ खरीद लीजिए । एक – एक श्लोक दो पंक्तियों वाली रोज याद कीजिए । सँधियाँ तोड़ ढालें । अनन्वय करके उच्चारण करें , फिर एक साथ उच्चारण करते हुए याद कर जायें पुनः शब्दार्थ समझें और अनुवाद पढ़ जायें । न समझ में आवे तो बार – बार पढ़ें । समय कम ही दें । एक दिन में न हो तो दूसरे तीसरे दिन भी प्रयास करें । सात सौ श्लोक है- नवम वर्ग उतीर्ण होते – होते गीता सम्पूर्ण रुप से याद हो जायेगी ।
अनुशासन बरतें । घर पर भी माता – पिता तथा श्रेष्ठ जनों का आदर करें । आज्ञा का पालन करें । उनकी बातों को सुनों छोटे – छोटे कामों में स्वयं मदद करें । अच्छे आचरणों को सीखें । मितव्ययी बनें । मित भाषी बनें , मिता हारी बनें । सादगी अपनाएँ । सिलेवश के अनुसार अपनी रुटीन तय कर लें । उतने घंटे नियमित रुप से अध्ययन करें । शिक्षकों तथा अभिभावक से समय – समय पर आवश्यक मदद लें । अपने कर्तव्य का ख्याल सबसे पहले करें । समय का महत्त्व दें । आलस्य त्यागें ।
स्वच्छता पर ध्यान दें । किन्तु मुख्य कार्य का समय इसमें न खर्च करें । दूसरों की नकल न करें । अपने परिवार की आर्थिक स्थिति , तथा रहन – सहन के स्तर पर ध्यान अवश्य दें । कुछ घरेलू कार्य पर भी ध्यान रहे । आत्म निर्भरता की चाह हमेशा हो । व्यर्थ चेष्टाओं में समय बर्बाद न करें । शारीरिक व्यामाम कर । अपने व्यवहार से दूसरों को संतुष्ट रखें । दूसरों के बुरे आचरणों पर ध्यान न दें । बड़ों का कृपा पात्र बनें । उनका स्नेह ग्रहण करें , उनके दुर्व्यसन नहीं ।
सच्चाई , सहनशीलता , सुअभ्यास , सुबाणी , सुशब्द , सुतर्क और सुशीलता को सम्बल बनाएँ । महान व्यक्तियों को कहानियों से शिक्षा लें । संस्कृत के शुभासीत् , नीतिश्लोकादि का मनन करें । किसी की बात सुनने के बाद ही बोले । अनावश्यक चर्चा में समय न लगाकर धार्मिक या नैतिक शिक्षा से युक्त पुस्तकों का स्वाव्याय करें ।