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आध्यात्म चिन्तन ईश्वर चिन्तन पर मंथन क्यों ?

डा ० जी ० भक्त

प्रकृति से सृष्टि और सृष्टि का पोषण , पोषण से जीवन और जीवन में अनुभूति , अनुभूति से ज्ञान , ज्ञाननुभूति के बीच स्वीकृति का भावबोध हमें ज्ञान और कर्म की पहचान दिलाता हैं जिसके बीच ब्रह्म की सत्ता पर चिंतन प्रारंभ होता हैं । सत्ता की शक्तिमता में ही प्रकृत्ति में ब्राह्मी शक्ति के व्याप्त पाये जाने का भाव व्यक्त हो पाता है किन्तु यह चिन्तन का ही विषय बनकर रह जाता हैं । उसे तत्त्वतः या गुणात्मक रुप में या सकारात्मक भाव से ग्राह्य तो तत्व ज्ञानी ही समझ सकते हैं इस हेतु यह अगम या अप्रमेय ही मान्य हैं । अर्थात यह अति सरल रुप में समझ से दूर ही भासता हैं ।

तथापि एक शब्द है उपयोग या व्यवहार , जिसमें हम विचार स्थिर कर पाये तो हम उसी ब्राह्मी सत्ता का भोग करते और जीवन जी पाते हैं । जीवन की सारी उपलब्धियाँ दृश्य या भाव जगत में उसी के पर्याय हैं , ऐसा ही स्वीकार्य भी है । अगर जगत प्रकृति और ब्रह्म को एकाकार मान ले तो यह त्रिकोणीय संबंध सनातन सिद्ध होगा । अगर विभेदक माने तो जगत या प्रकृति नाशवान ही ग्राह्य है किन्तु इसमें स्वरुप का प्रत्यावर्त्तन तो प्रत्यक्ष दीखता ही हैं मूल में ( महाप्रलय काल में ) एक ही अदृश्य ( निर्गुण ) सत्ता बनकर कल्पान्त में पुनः परिणाम को प्राप्त होकर नूतन सृष्टि के साथ स्वरुपस्थ ( गोचर ) दीखता हैं । इस विषय पर चिन्तन , मनन , मन्थन के उपरान्त जो निष्पन्न भाव भासता है , वही प्रकृति का दर्शन है वाकी रुप विविध अवस्थाओं के सापेक्ष देखे जाते हैं , वे माया है और वे काल के गर्म में पलते हैं ।

ब्रह्म ( ईश्वर या परमात्मा ) का व्याप्त व्यापी भाव ही पहचान है । या प्रकृति में परिणाम भाव का गुणानुवाद ही माया मानी जाय तो ब्राह्मी सत्ता को समझ पाना सुगम होगा ।

आप कहेंगे कि सृष्टि में ब्रह्म या परमात्मा को जोड़कर इस विषय को जटिल बनाना या ऐसे जटिल विषय को मानस में गम्भीर चिन्तन की परम्परा प्रारंभ करना आवश्यक हैं क्या ? लेकिन हमारी धार्मिक आध्यात्मिक सांस्कृतिक अवधारणा में ब्रह्म को जुड़ना कई ऐसे सम्बद्ध विषयों को सरल रुप में समझने की आवश्यकता पड़ती हैं । ज्ञानियों द्वारा निर्गुण या अप्रमेय शब्द से परिभाषित करने पर उस सत्ता से प्रकृति की विराटता का बोध ईश्वर को एक प्रमेय रुप में ग्रहण कर उसकी निष्पत्ति के प्रमाण की पुष्टि कर पाता है जिसे हृदयंगम करना जीवन एवं इससे जुड़ी सत्ता को जानने में एक पुंजीभूत शक्ति की सोद्देश्य कल्पना खड़ी करता हैं ।

इस हेतु ईश्वर चिन्तन सार्थक हैं वस्तुतः हम उस सत्ता को मन से समझे ( ग्रहण किये ) बिना अपने आप को भी नहीं समझ पाते कि इस सृष्टि में हमारा क्या स्थान है और हमारा जीवन किन कार्यों के लिए हैं ।

यह भी विचारनणीय है कि कर्म का कुछ लक्ष्य होना अपेक्षित है जिसका निर्धारण सृष्टि को गति देता हैं । सृष्टि में मानव का चैतन्य जीव के रुप में पर्दाषण उसी उद्देश्य का लक्ष्य लेकर चला है , ऐसा अभिप्रत है और सृष्टि में मानव के कर्म विन्यास ही ब्रह्म , प्रकृति और सृष्टि की यथार्थता प्रति पादित करते हैं । सृष्टि का चक्र या जीवन क्रम यही दर्शाता हैं ।

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