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आध्यात्म बोध -1

सृष्टि विधान के विविध आयाम

डा० जी० भक्त

सृष्टि का स्थूल भौतिक स्वरुप प्रकृति है । इसका आधार पंच भौतिक सत्ता है । इन पाँचों मूल भौतिक स्वरुप की सूक्ष्म सत्ता को पृथ्वी ( भू – तत्त्व ) जल , वायु और अग्नि ये चार दृश्य ( आँख के सामने अथवा ज्ञानेन्द्रियों , जैसे – त्वचा द्वारा स्पर्श या गुण बोध यथा शीत उष्णा को अनुभव से हम जान पाते हैं ) अंतिम पाचवाँ आकाश या खाली स्थान ( वरिमा ) है । वरिमा की जानकारी हमें प्रयोग या तर्क से होती हैं । अतः ये बोध गभ्य हैं । इनके अति सूक्ष्मतम इकाई को तन्मात्रा मानते हैं । तन्मात्राओं के संयोग से मूल प्रकृति की अवस्था एवं गुणों के परिणाम भाव का प्रत्यक्षीकरण हुआ जिसे हम माया कहते हैं । इन अवस्थात्मक एवं गुणात्मक भावों की विविधता ही सृष्टि के विस्तार में एक ही मूल प्रकृति अपनी सत्ता में सब में विद्यमान पायी गई जो मूलतः सूक्ष्म ( अदृश्य ) अपरिमेय और अव्यय निगुर्ण किन्तु सगुण सत्ता में भी भासने लगी जिसे हम अपनी चेतना , विचारों के प्रकाश में अनुभव करते है , उसका नामकरण ब्रह्म रुप में वेदों में पाया गया है ऐसा आर्ष वचन हैं ।

इस चेतना रुपी प्रकाश से जितनी किरणें फूटती आयी वही विचारों की श्रृंखला हमारा ज्ञान बना । वेद शास्त्र उपनिषद ज्योतिष , आयुर्वेद स्तुति , न्याय , संहिताएँ आदि ग्रंथ हमारे आर्ष साहित्य आज भी संचित है , आदिकाल से ज्ञान और विधान की धारा सरिता कहलायी और समष्टि रुप में वही ज्ञान का सागर किवा ज्ञानोदधि बनी ।

किंचित , प्रकृति में नहीं , पर सृष्टि में ज्ञान को इतर ( हटकर ) भावों का संचार फलित होने से नकारात्मक या प्रतिकारात्मक भाव सवेग और उसके परिणाम फलित हो पाये , वे कतिपय अपोषक और विनाशक सिद्ध हो पाये । ज्ञान पाकर हमारी चेतना जब कर्म की दिशा पायी तो प्रकृति में नूतन आयाम फलित हुआ और विकास को गति मिली । हम सभ्यता और संस्कृति अपनाएँ यह क्रम आजतक चलता आ रहा हैं ।

अब हमारे समक्ष सुख – दुख और मोक्ष के मध्य संरक्षण का प्रश्न गहराने लगा है । हम अशान्त हैं । चिंतित है , रुग्न हैं , मुक्ति का साधन खोज रहे परेशान हैं । जब अबतक की जीवन यात्रा हमने स्वयं की तो दुख का सृष्टा तो हम ही होंगे । फिर मुक्ति पर हमारा चिंतन किसी बाह्य ( परायी ) सत्ता की अनिवार्यता क्यों अनुभव कर रहा वह अपने आप में क्यों नहीं खोजता । उसके भी कर्ताधर्ता होने का ज्ञान जब हमें हो पायेगा तो हममे निरोधात्मक विचारधारा पनपेगी । हम उन विपरीत कर्म , विन्यास या व्यापार पर स्वयं रोक लगाये तो हम उन विकारों से मुक्ति पायेंगे जो दुखद और विनाशकारी पाये जा रहें ।

इससे यह भी सिद्ध होता है कि हमारे नकारात्मक संवेग ही हमें क्लेश भोगने को बाध्य करते हैं । उनका निरोध ही हमें कल्याण की ओर पुनः अग्रसर कर पायेंगा । यही हमारा सुरक्षात्मक विधान बन पायेगा । यहाँ जीवन सुखद श्रेय दिलाने का प्रथम ज्ञानात्मक पाठ प्रारंभ होता है जो स्वीकारता है कि हमारी भूल उस कर्म कापरिणम है जिसे हमने अज्ञानता वश आपनाया ऐसा प्रयास स्वीकार कर लें तो हमारी विपरीत प्रवृतियों ( कर्म विज्ञान या हानिप्रद जीवन का दर्द मिटाने का मार्ग अपनाना ) में सुधार सम्भव होगा । वही ज्ञान योग का मूल विषय हैं ।

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