भाग-2 ईशोपासना
29. उचित है कि मंत्रों का सान्वय , व्युत्पत्ति सहित शब्दार्थ , भावार्थ , निहितार्थ एवं गूदार्थ का मनन और जीवन में ग्रहण हो ।
30. उपदिष्ट मंत्र , या उपदेश विशेष या दीक्षा द्वारा इशोपासना प्रारंभ करते हैं तोउसके निहितार्थ को जीवन में उतारना ही पूजा , अर्चना या उपासना होगी ।
31. शास्त्रों , पुराणों , उनिषदों , भाष्य या टीका ग्रंथों आदि का नियमित स्वाध्याय करने तथा वर्णित कथानक का अध्ययन कर अपने जीवन को तद्रूप ढालने का अभ्यास एवं अपने कर्मों में उन आदर्शों को फलित करने में भी सच्ची उपासना है ।
32. ये सुनकर या पढ़कर वही कथा दिनभर दूसरों को कहते चलना न उनका कर्म है न जीवन में उसका उत्कर्ष , तो ऐसे जन कथावाचक , ढोंगी या पाखण्डी हैं ।
33. सिर्फ स्वांग रचना साधक की पहचान नहीं , साधना की ओट में स्वार्थ साधना वंयकवृत्ति होगी जो वर्तमान में प्रखर दिखती है ।
34. हृदय में इतना मात्र स्वीकार करना कि इस जगत का कोई एक सर्व शक्तिमान मालिक है जो मुझ सहित सब में एक – सा काम करता है । सरल अर्थों में इतना ही मात्र मानना , उसके प्रति श्रद्धा एवं विश्वास के साथ एकात्मभाव से जुड़ जाना , निशिवासर जीवन के हर प्रयत्नों व्यवहारों में एक ही भाव का निर्वहन करते हुए जीवन यापन करना ही धर्म , अध्यात्म , पूजा , आराधना या उपासना का स्वरुप है ।
35. जो जीवन में एक ही किसी आदर्श को अपनाकर उसी को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर जीता है , वह भी ईश्वर का ही संदेश पालन करता है ।
36. कोई सत्यवादी बनकर , कोई आज्ञाकारी बनकर कोई सच्चा सेवक बनकर जगत में अपना आदर्श कीर्तिमान बनाकर इतिहास में अमर बन गया । आज वह ज्ञान के आकाश में नक्षत्र – सा – प्रकाशित है ।
37. दया , क्षमा , त्याग , बलिदान , परोपकार , अतिथि सेवा कष्ट निवारण आदि कार्यों को अपना धर्म मानता हुआ जो अपनी सेवा बरतता है वह भी ईश्वर का ही दास है । इसी प्रकार जो पर्व , त्योहार , पूजा , यज्ञ अनुष्ठान , तीर्थ , देव कथा , भगवत् भजन आदि में अनुराग रखता है , भाग लेता है , कथा सुनता और प्रसाद ग्रहण करता है । वह आजीवन सच्चाई के साथ जीता हुआ ईश्वर का सच्चा पुजारी है । ऐसीही दुनियाँ के विचारकों की मान्यता है , लेकिन भारत की यह संस्कृति है ।
38. भारतीय संस्कृति में उदाहरणों और आदर्शों की अपार श्रृंखलायें खड़ी है जो साबित करती है कि यहाँ का आदर्श ही समष्टि का कल्याण है । जो हृदय से समस्त प्राणियों में ईश्वर का ही रुप मानकर प्रेम भाव रखता है , उसे कष्ट नहीं पहुँचाता तथा उसके दुःख को दूर करने का व्रत लेता है , वह ईश्वर का सच्चा भक्त है ।
39 हर धर्म , हर पंथ , हर सम्प्रदाय एक ही ईश्वर को स्वीकार करते हैं । अपने कर्मों का श्रेय उसी ईश्वर को देते हुए विश्व के कल्याणार्थ ” परकार्यहितेरता ” ऐसा भाव लेकर समाज और संसार को देखते है , वे ईश्वर के ही उपासक हैं ।
40. हर धर्म के कुछ निर्धारित आदर्श हैं । ग्रंथ और उपदेश है जो उनके प्रवर्तकों द्वारा दिये गये संदेश माने गये हैं । उनके अनुयायी उन्हीं आदर्शों का पालन करते हैं ।
41. भौतिकवादी जगत की सुख – सुविधायें , सम्पदा और व्यस्तता , चहल – पहल से प्रभावित मानव समुदाय आज दुतगामी है या भोग विषयक कर्मों में सलग्न होने से सदाचार खो चुका है । ऐसे कम ही लोग है जो धर्मार्थ या जन कल्याणार्थ जीवन जीते हैं । उन्हें स्वार्थ से समय बचता ही नहीं । कुछ अपनी संस्कृति को संक्षिप्त या दिखावटी आयाम देकर मिश्यांडवर का व्यवसाय बना डाला है । आज का धर्म और अध्यात्म उद्योग को प्रश्रय दे रहे है किन्तु उनका आत्मिक जीवन खोखला और रुग्न हो चुका है । मानवाचरण पर कलंक का टीका लग रहा है ।
42. ऐसा छद्म आचरण मानवता में एक भूल , भ्रम या कुत्सित भाव की उत्पत्ति मानी जा सकती है । मान को अपने मस्तक पर धर्म की उत्पत्ति मानी जा सकती है । मानव को अपने मस्तक पर धर्म की बिन्दी साटने की जरुरत नहीं । धर्म का स्वांग रचना ईश्वर के साथ चोरी है । शरीर में इन्द्रियाँ , इन्द्रियों का अपना धर्म , अपना कर्म , कर्म का उद्देश्य और जीवन का लक्ष्य पवित्र होना चाहिए । उसके साथ सदाचरण का भाव ही जीवन में ज्योति , समृद्धि , सम्मान , पहचान , यश और मुक्ति दिला सकता है ।
43. धर्माचरण को सदाचरण से तौलें तो हमारा जीवन एक आदर्श कीर्तिमान स्थापित कर सकता है ।
44. इशोपासना कर्म पथ का बाधक नहीं , कर्म शुद्धि और समृद्धि को प्रोत्साहित करने वाली है । आज धर्माचरण या ईश्वर पूजन का नकारात्मक भाव के रुप में ग्रहण किया जाना या उपलब्धि को नगण्य या भ्रामक ( अंध धारणा ) समझने का यह तात्पर्य नहीं कि ईश्वर नाराज हो गये है यह खोखला विश्वास है बल्कि मानव ही कर्त्तव्य च्युत होकर अपना पतन एवं धर्म पर लांछन लगाता है ।
45. व्यवहारतया धर्माचरण विवादास्पद इस कारण है कि उसे एक प्रथा के रुप में अपनाया जा रहा है । उसके पीछे व्यक्ति विशेष का कोई चिन्तन या लक्ष्य नही हैं ।
46 , जिन्होंने धर्म को लक्ष्य बनाया वे अतीत में जीवन्त विचर रहे हैं । अमर है लेकिन वर्तमान में तो लक्ष्य विहीन होकर आडम्बर ही पाल रहे है या उसकी आड़ में अन्य कुत्सिव व्यापार ।
47. यह न ईश्वर द्वारा धर्म या पाखण्ड का व्यवसाय खड़ा किया गया । वह तो त्रिगुणतीत हैं , निर्विकार हैं । हमें विचारना है कि हम धर्म के प्रति कितने सकारात्मक और निष्ठावान
48. हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि ईश्वर हमारे कर्मो का फल नहीं देते । हमारे कर्म ही हमें पुरस्कृत या लांक्षित करते हैं ।
49. हमारी ईन्द्रियों की रुग्नता , असंवेदनशीलता और अकर्मण्यता में हमारा चिन्तन ही मूल कारण बनता है , अतः सद्विचार , सुचिंतन और सदाचार ही हमारी सकल सिद्धि के दाता माने जाते हैं ।
50. हमारे अतीत की गरीबी में आदर्शो की समृद्धि और मन में संतुष्टि थी और उस परिस्थिति से विकास पायें । आज की समृद्धि में स्वार्थ चेष्टा , लोभ और भ्रष्टाचार फैला है । सामाजिक जीवन कलंकित हुआ है । राष्ट्रीय और वैश्विक धरातल पर हम बौने बने जा रहे है।