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 एक भ्रान्ति पूण सोच क्रॉनिकल एप्रोच

 वैज्ञानिकों , राजनयिकों एवं चिकित्साविदों की ओर से कोरोना के अपर संक्रमण या उनके क्रमिक आक्रमण के प्रारुप एवं प्रभाव पर आकलन के जो आसार व्यक्त किए जा रहे है वे औचित्य एवं चिन्तन की अपेक्षा नहीं रखते । इन दोनों बिन्दुओं पर पूर्वानुमान मानव मे अप्रत्याशित भय उत्पन्न कर रहे है । अपेक्षित है कि उन प्रावस्थाओं पर सार्थक और सकारात्मक निदान ढूँढे जायें ।

 इन खोज – ढूंढ और उद्विग्नता पूर्ण आभास कमजोर जीवनी शक्ति वालों के लिए खतरा है । यह सर्वार्थ सत्य है कि मानव ही नहीं , अन्य मानवीय सम्पर्क में पलने वाले जीव औघोगिक कचड़ों , प्रदूषणों , ऊर्जा के अनावश्यक निच्छेप एवं प्रसार के साथ प्रतिरक्षा के क्षेत्र में चल रहे प्रयोग और अन्तरिक्ष के अभियान भी अप्रत्यक्ष रुप से मानव परिवेश को उत्पीडित करने लगे है जिसे विश्व के वैज्ञानिक स्वीकार कर रहे हैं । एलोपैथिक चिकित्सा का करीब 17 सौ वर्षों से चले आ रहे रोग प्रशमण भी मानव को क्रॉनिकली कमजोर और कष्ट साध्य एवं परिवर्तित ( Modified ) स्वरुप में प्रकट होने लगे है । उनके लक्षण , शारीरिक तन्तुओं के विकार और उनके अन्तर्गत फलने वाले उद्भेद ( Erruption Vegetation , Unnecessary Growth , Tissue change Plasmatic , Mineral additions of chemicals of drugs and addicts ) सड़न ( Ulcarations and its varried phages ) आज काल के जाल बन रहे । जिसे आज कोरोना सोचने पर बाध्य कर रहा है । हम जिन विज्ञान के क्षेत्र पर भरोसा करते थे कि मानव समुदाय जीवन के उच्चतर से उत्तमतर दिशा में बढ़कर मानव जीवन के उद्देश्यों और लक्ष्यों का उत्कर्ष प्रदान कर सकते हैं , वहीं पर देश के चिकित्सा विज्ञान के प्रख्यात वैज्ञानिक इन घातक प्रभावों ( Scourges and gallopping incidents ) से अपने क्षेत्र को भी सुरक्षित नहीं बचा पाये तो हम इन वैज्ञानिक सत्यों को कैसे भुलाए या विश्वास जताएँ ।

 आखिर ऐसा होता क्यों है ? आपको सोचना पड़ेगा गम्भीरता से । सरकार एक सत्तात्मक शक्ति एवं नियंत्रणात्मक साम्वैधानिक अधिकार प्राप्त व्यवस्थात्मक घटक है जो जनतंत्रात्मक स्वरुप में खड़ी है । वह विशेषज्ञ कदापि नहीं है । यहाँ तक कि न शिक्षा मंत्री ही व्यवहारतया शिक्षा विशेषज्ञ है न कि स्वास्थ्य मंत्रीचिकित्सा विशेषज्ञ , किन्तु व्यवहार में सरकार का व्यवस्था पर भारी पड़ना कितना आवश्यक और उचित है इस पर न्यायालयीय विमर्श ने जो हस्तक्षेप किया , उस पर ध्यानाकर्षण आवश्यक है या नही ? वैज्ञानिक तकनिकी , औघोगिक व्यवसाय का विस्तार स्वास्थ्य पर कितना प्रभावी हुआ , इसका प्रमाण अभी भी विश्व के पास होता तो अबतक कोरोना की दवा खोज ली गयी होती लेकिन हम रोकथाम के विज्ञान में डुबकी लगा रहे प्रतीक्षारत बैठे है कि हमारे लक्ष्य का मोती किस गोते की अभीप्सा रखता है ।

 यह पूर्ण वैज्ञानिक और शास्वत तथ्य है । इस पर श्विव को विचारना है । जीवन की रक्षा का प्रश्नप है , अर्थव्यवस्था और सत्ता बचाने की प्राथमिकता कानहीं । मानव समुदाय के बीच से भो सोचा जा सकता है । वैज्ञानिक और विशेषज्ञ सत्ता के बीच से नहीं आत , उसे समाज खड़ा करता है ।

 डा ० जी ० भक्त

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