कर्त्तव्य बोध और सामाजिक सरोकार की शिक्षा
डा० जी० भक्त
आज के सामाजिक जीवन मानव से जो अपेक्षाएँ हो सकती है उसके प्रति व्यक्ति की ज्ञानात्मक तैयारी की शिक्षा विद्यालयों की शिक्षा में शैक्षिक पाठ चर्या से सम्भव नही। उसके बचपन की पारिवारिक पाठशाला में माता-पिता सह पास पड़ोस के लोगो की सेवा आपके बचपन को सजाने संवारने एवं विकास करने में जो भूमिका रही उसपर स्वयं चिन्तन करने से होना सम्भव है।
आप किशोर या युवा उम्र के है और मानस में सोचने, विचारने, अवलोकन और अनुभूति से जानने में सक्षम पाते ह तो अपने या किसी भी परिवार के शैश्व काल के क्रिया कलापों से परिचित अवश्य होंगे। जरा सोचें कि जन्म काल से लेकर ज्ञानवोध होने की उम्र तक उस शिशु का किस प्रकार पालन हुआ, वात्सल्य पाया, अपने समग्र विकास हेतु वह जिन आयामों से गुजरकर आज बड़ा हुआ उसमें माता-पिता या पड़ोसियों द्वारा जो कुछ उनके हित में आया उसके प्रति आपको अपनी सूझ में क्या चुका सकते है?
बड़ा महत्त्वपूर्ण है कर्त्तव्य बोध का प्रतिफलन हम विचारे वो अवश्य हमें यह पसन्द आयेगा :-
(1) माता पिता का आदर (2) अभिवादन (3) आज्ञापालन (4) सेवा एवं ( 5 ) सद्भाव या सामाजिक सरोकार को श्रेय देना।
आज समाज धनी हो या गरीब, शिक्षित हो या अनपढ़, स्वार्थ के साथ ममत्व एक बहुत बड़ा बाधक है जनकल्याण में अपनी कमाई हो या विरासत में मिली सम्पत्ति, लोभ वश मनुष्य उसका दास बना हुआ सम्बन्धों में प्रगादता बनी रहे, उससे कोई तात्पर्य नहीं रखता। स्वार्थ सिद्ध नहीं होने पर प्रायः मित्रता टूटने लगती है। यह भाव मानव में कल्याण कारी नही बन सकता हमारा सद्भाव चराचर जगत, प्रकृति, जीव और पंचभूतों तक से बना रहे, ये सभी ब्रह्मरूप हैं या इन्ही में ब्रह्म व्याप्त है। जब हमें यह बोध दिल में स्थान पा ले स्थायी होकर हमारे कर्म से जुड़ जाये। कभी टूटे नही, यह कर्त्तव्य बोध या कल्याण कारी मार्ग है। विश्व प्रेम उसी से सार्थक बनता है।
विश्व के कल्याण में ही हम सबों का कल्याण है। सभी प्रकार के दोष दुर्गुण जो पाप कर्न, अपराध, भ्रष्टाचार आदि नाम से जान जाते है वे कभी श्रेय नहीं दिला पाते। उससे प्रकृति में हलचल, असन्तुलन व्याप्त होता है। उस विनाशकारी प्रभाव से हम भी तो प्रभावित हुए बिना नही रह सकते है।
अगर हम ईश्वर में विश्वास रखते है या नहीं भी रखते है तो भी आप विचार सकते हैं कि यह धरती जो अन्न, जल, खनिज और हवा तथा सूर्य, चन्द्रमा की किरण और बादल की वर्षो जिस प्रकृति से पाते है और उन्ही से हमारा जीवन जुड़ा है तब तो हमें उस प्रकृति से भी प्रेम भाव स्वीकारना होगा। अतः हम एक ही साथ ईश्वर प्रकृति एवं जीव जगत सहित अपने माता-पिता दादा-दादी, नाना नानी सभी वृद्ध विधवा, अनाथ एवं विकलांगों दीन दरिवयों के साथ अपना कर्त्तव्य निभाया। इससे ही ईश्वर भक्ति सिद्ध होगी।