कोरोना के प्रवर संस्करण
हमारा ध्यान जब विश्व की सरकारों सहित भारत के संबंध में आता है तो एकल एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के ही चिकित्सक एवं वैज्ञानिक एवं सरकार सक्रियता में उतरते विचारते सेवा में अपनी सोच लेकर ही बढ़ते है , कभी भी सहचर संसाधन की ओर उनकी सेवा , ज्ञान , सिद्धान्त एवं उनकी विशिष्टता सहित अद्यतन उपलब्धियों की ओर नही झाँकते , इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ज्ञान और व्यवहार में सरकार के वेही कदम आजीवन या जबतक सृष्टि रहेगी तबतक उठते रहेंगे वैसे – जैसे कतिपय राजनैतिक दलों को भले ही साम्वैधानिक मान्यता हो , प्रत्युक्त सत्ताधारी उन विपक्षियों के विचार वैशिष्ट्य को ध्यान से हटाकर ही चलना अपना कर्त्तव्य मानते हैं ।
यह इतर विषय है कि सम्पूर्ण विश्व की सरकारें उपरोक्त पद्धति को ही अबतक सफल मानती रही और पाश्चात्य सरकारें उसी को अंगीकार करती रही और भारत भी अपनी सांस्कृतिक गरिमा को पीछे छोड़ उसी के गुणगान में अपना आयुर्वेदिक एवं आज आयुष को प्राथमिकता देने की बात को छोड़े , उसकी ओर ध्यान देने तक से परहेज रख रही है जो आवश्यक न भी माना जाय तो भी इस विकट परिस्थिति में विचारणीय क्यों नहीं ।
जरा हम चिकित्सा शास्त्र के उद्गम के क्रमिक इतिहास के कालखण्ड 1755 से 1843 ई ० के बीच 10 अप्रील 1755 को जन्में जर्मनी के पश्चिमी गणतंत्र डेसडेन की भूमि माइसेन सैक्सोनी पर क्रिश्चियन फ्रेडरिक सम्युएल हैनिमैन ने विश्व के समक्ष 1812 में सफल समाधान का विधान निकालकर उतरे और एलोपैथी के गेलिनियन सिद्धान्त के दोषों को दूर करने एवं ऐसे एन्टागोनिस्टिक सिस्टम ( रोग प्रशामक विधान ) पर निदानात्मक अनुसंधान कर आरोग्यकारी चिकित्सा विज्ञान का स्थापना की जो मानवता की हर संवेदना को स्पर्थ करती एवं रोगों से पूर्ण मुक्ति के साथ स्वस्थ मानवता ( Permanent Restoration of Health ) की अवधारणा तक स्थापित कर डाली जिसका ही प्रतिफल है कि जर्मनी से अमेरिका तदन्तर ब्रिटेन , फ्रान्स होते हुए भारत तक अपना पाँव जमा आज विश्व का दूसरा सर्वाधिक प्रचलित पद्धति के रुप में खड़ा है जो व्यवस्था की प्रतिस्पद्धा की दौड़ में कमजोर पड़ रही है । कहना गलत न होगा कि भारत में ही ” आयुष ” के घटक आयुर्वेद को जो देश की ही सांस्कृतिक पुरातन और ख्याति प्राप्त विज्ञान है जिसके गौरव को ऊँचा उठाने का धूमिल प्रयास के साथ उसे 20 प्रतिशत ही अपनी दवा के प्रयोग करने के लिए कहा जाता है । ऐसा ही कुछ होमियोपैथी के साथ भी प्रश्न जुड़ता – सा दिख रहा है ।
सम्प्रति उल्लेखनीय है कि कोरोना के संबंध में जो वर्ष व्यतीत होने पर भी विवसताएँ बढ़ती नजर आ रही , चिन्ता सता रही , अगर आप आम नागरिकों की अनसूनी को प्रधानता से ले रहे , उसके बीच उपरोक्त होमियोपैथी के प्रति अनसुनी से क्या संदेश मिल रहा ? मैं अपने ही स्तर से होमियोपैथिक क्षेत्र की शीर्ष संस्थाओं , पदो , चिकित्सकों सहित विश्व स्तरीय L.M.H.I. इत्यादि , भारत के H.M.A.I भी अपने को सामने प्रस्तुत नही कर पा रहे । इस पर वे अपने स्तर से न विमर्श करते न संदेश देते न होमियोपैथी मे सन्निहित विशिष्ट गुणों सम्भावनाओं उपलब्धियों का दृष्टांत रखते हुए विश्व को बतला क्यों न रहे कि ऐसी सम्भावनाओं को साकार कर कोरोना से पूरी लड़ाई लड़ने में सहयोग मिल सकता है ?
आज एलोपैथिक मंच से जितने विचार या प्रतिक्रियाएँ समाचार पत्रों से मिल रहे है वे समाधान नहीं बतलाते । ऐसी परिस्थिति में मेरा स्पष्ट कथन है कि दुनियाँ के चिकित्सा वैज्ञानिक एक बार हमें साथ लेकर उन हैनिमैन एवं उसके सहयोगियों के विचारों के सन्दर्भ में शोधात्मक दृष्टिकोण लेकर उतरे तो जिन बिन्दुओं पर उन्हें चिन्ता सता रही है उनका समाधान हनिमैन महोदय के क्रॉनिक डिजीज के सिद्धान्त में मियाज्म ( रोग विष ) पर जमकर विचारा जाय । इसमे मेरा आग्रह होगा कि CCRH के डायरेक्टर , आयुष के पदाधिकारी विश्व होमियोपैथिक लीग और C.C.H. के अध्यक्ष उन्हें खुलकर सहयोग करें तो एक स्वस्थ विचारधारा को गति मिल सकेगी अथवा मार्ग अवश्य ही प्रशस्त हो पायेगा ।
साभार- HOMEOPATHY
for Higher Purposes of
Human Existence
Dr. G. Bhakta
हमारी सरकार को इसे कदापि मर्यादा का विषय न बनाकर मर्यादा के उत्तमोत्तम समाधान का श्रेय मानकर चलना चाहिए ।
Here : – Homoeopathy is a trace we have to go ahead .