कोरोना विश्व को रुलाया
आज दिन – दिन नये परिदृश्य नज़र आ रहे | नयी समस्याएँ खड़ी हो रहीं , परेशानी में डाल रहीं , कहीं तो पूर्ण असमंजस की स्थिति आ रही | चिंताएँ बढ़ती जा रहीं | लेकिन हमें धीरज से काम लेना है | तालेबंदी को ही सुरक्षा कवच मानकर उसका पालन करते रहना है । ईश्वर का गुणगान कर हृदय में साहस जुटाइए । संकल्प पर दृढ़ रहकर अपना कर्तव्य निभाइए | साहसी को विजय सदा हाथ आती है ।
संक्रामक रोगों का इतिहास पुराना है । संख्याएँ या सूची भी लंबी रही है । मानव अपने प्रयासों से पार पाता रहा | उसका कारण जीवाणु , विषाणु या कीटाणु रहा | वह गंदगी में जन्म लिया | किसी निम्न जन्तु या मच्छर – मक्खी के शरीर में तो कोई गाय , ऊँट , घोड़े , गधे आदि में विकसित होकर उसके वाहक बने , हवा , जल और खाद्य सामग्री भी ।
. . . . . लेकिन एक बात कहूँ ? . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . इसका वाहक प्रबुद्ध मानव है । गंभीरता के साथ विचारना है । हमलोगों का कदम ठीक है | इसे निभाना हमें पूरी तत्परता के साथ है | मानवता , देश भक्ति और विश्व के कल्याण का ख्याल रखकर |
ऐसा मानकर चलना होगा की इसके पीछे मानवीय भूल है किंतु समय और सच्चाई की राह पर हमें दुराव न लाकर भाव प्रथम प्राथमिकता में मानव की रक्षा ही होनी चाहिए | ऐसे तो इसे विश्व युद्ध की संगया दी जेया रही है या उससे तुलना की जा रही है किंतु हम सत्य और अहिंसा के ही मार्ग पर चलकर इस युद्ध को जीतना है । भूलें होती हैं । मानव चेतता है । फिर शांति स्थापित होती है । सरकार सोच रही है । अर्थ निवेश कर रही है व्यवस्था में जुटी है । विशेषग्य समाधान में जुड़े हैं । हमें सहयोग करना है । हम इसके लिए कम नहीं एक अरब से अधिक है । संसाधन भी जुटाए ही जा रहे हैं ।
स्वतंत्रता मिलने से लेकर आज तक हमने कतिपय स्थलों पर दुषण को भी भूषण मानकर अपने स्वार्थों को सँवारा और विज्ञान का भरोसा थामें शक्ति जुटाने की ही प्रतिस्पर्धा जुटाई और उसके ही पीछे पड़े रहे । आज हमें धर्म और आध्यात्म याद आ रहे हैं | आहार – विहार , अमीष – निरामिष , की ओर भी सोच दौड़ा रहे हैं । स्वतंत्रोत्तर अवधि में हमने क्या पाया , क्या खोया इसपर आए दिन सोचना पड़ेगा की हमने अपनी संस्कृति की गरिमा को दिवालियापन का जामा क्यों पहनाया ? शिक्षा की गुणवत्ता क्यों घटी | इस बार के पहले देश में 12 बार शिक्षा समितियों और आयोग बने | सबकी सिफारिशें मूल्य पारक शिक्षण के पक्ष में एवं उसका आधार भारती संस्कृति को मानकर बढ़ने का था तो आज देश में भ्रष्टाचार क्यों सममा | भक्तों के उपदेश लाखों रुपये प्रति घंटे के खर्च पर सुने जाते हैं | धर्म को आडंबर बनाकर सुखोपयोग का साधन बना | शिक्षा व्यवसाय बनी और मेडिकल में नामांकन . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . तो क्यों न कोरोना पर त्राहिमाम ।
पाठकों को इसे पढ़कर झिझक न होनी चाहिए इसमें मैं भी दोषी हूँ । मुझे ऐसा कुछ देश से साझा करना था तो मुझे पहले ही करना चाहिए था इसे तो स्वीकार करना ही है । हम कोरोना से युद्ध लड़ रहे हैं । ठीक शब्दावली रची गयी है | कोरोना हमारा अर्जित संस्कार है | इससे लड़ना है तो हमारे साधन ( युद्ध के शस्त्र ) भी शुद्ध हो ; तब इस लड़ाई में हमारे संस्कारों का भी शोधन हो पाएगा नहीं तो वहीं दवा होगी जो दो विश्व युद्धों का परिणाम झेलकर भी दुनिया प्रतिक्षण युद्ध का ही सपना संजोए जी रहा है ।
सखा धर्ममय जे रात जाके ।
जीत न कहं कताहूं रिपु ताके | |
आज हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी इस युद्ध के सेनापति हैं | अच्छा नेतृत्व मिल रहा है । फिर भी इससे अधिक की अपेक्षा है | पहले भगवान हमें इससे छूटकारा तो दे।