Thu. Nov 21st, 2024

क्या मजाक हैं

हमारा परिवेश और वर्तमान युग का कठोर सच

डा. जी. भक्त

अभिव्यक्ति

कुछ मेरी, कुछ आपकी

क्या लिखूं बहुत लोग लिख गये, लाखों पन्नों में लिख गये चारो वेद व्यास वर्णित मूल महाभारत शृगु संहिता, विश्कोश, सहितायें और संधिपत्र तक अनंतमपार गिराच्छन्द शास्त्रं ।

मैंने देखा प्रकृति का खुला पृष्ठ, धरती वन पर्वत, नदियों, लहलहाते खेत वायु आकाश नक्षत्र और तारे सूर्य-चन्द्र और दिवारात्रि की आँख मिचौनी, बच्चों के कीड़ा कौतुक, पक्षियों के कलख मंद पवन मेघ गर्जन, जल वर्षण और उदधि तरंगों पर मचलते नाविको की किरती भी देखी।

नारद से शुकव्यास रटे पुचि हारे तउ पुनि पार न पाये।”

विद्यालय, महाविद्यालय, पुस्तकालयों को देखा, पाठशालाओं का प्रबन्धन, क्रियाशीलन और पाठ्यक्रम का अनुशीलन भी ऊँची तननिकी शिक्षा की महत्ता और लक्ष्यों की सिद्धि में प्रचलित अर्थवता और आर्थिक शैक्षिक घोटाला भी ।

न्याय व्यवस्था की लचर प्रक्रिया में पलती घोषित होती हमारी स्वतंत्रताके बीते सत्तर वर्षों की कहानी में प्रदूषण को ही प्रखर पाया। लोग कहते है- क्या मजाक है ?

आगे सुनिये।
विनम्र लेखक

जरा सुनिये तो…..

अगर इस ब्रह्माण्ड को रचनेवाले ने पृथ्वी रची, उस पर पेट के बल चलने वाले उरग या उरंगम, ( सरीसृण) की रचना की फिर आठ छः एवं चार पैरों वाले जीव रचे. सौकड़ो पैर वाले भी किन्तु बाद में दो पैर वाले मानव की रचना पर क्यों विचारना पढ़ा ? इस विषय पर मेरा भ्रम इस हेतु है कि मैंने ईश्वर, सृष्टिकर्त्ता को सगुण माना। फिर मेरा तर्क इस प्रकार प्रकट हुआ कि अंदेही से देहधारी का सृजन कैसे सम्भव हुआ। अगर ईश्वर की सत्ता अदेहधारी है तो जैव सृष्टि में ईश्वर का हाथ होना सम्भव नहीं।

इसी बीच मेरे ही जैसे कुतक विचारकों के समक्ष डार्बिन महोदय पहुँचे और कहा मै तुमलोगों के समक्ष अकाट्य सत्य प्रस्तुत करता हूँ। यह सृष्टि नहीं पृथ्वी के गुणों का विकास है। क्रमागत रूप से जैव विकास की घटना को हम उदविकास (Evolution) कहते हैं। यह बात वैसे ही घटी जिस प्रकार पाँच सौ और एक हजार के नोटबंदी के बीच अब भारत में भी बतौर मुद्रा लेन-देन क्रय-विक्रय के प्रचलन का विधान लागू हो रहा है।

आवश्यकता पड़ने पर आविष्कार की कल्पना की जाती है। समस्या आने पर ही समाधान ढूढ़ा जाता है। प्रकृति में जो परिणाम भाव है यह उपादान कारकों के पारस्परिक संघात से स्वरूप लेकर प्रकृति में प्रकट होता है। हम इस प्रकार के हलचल से हैरान होते

और पक्ष-विपक्ष में तर्क देते हैं। प्राकृतिक घटनाएँ हमारे शरीर की इन्द्रियों को सम्वेरित करती है। आँखें देखती है। कान से सुनना, जीम से स्वाद लेना और नाक से गंध प्राप्त करना इसी तरह त्वचा के माध्यम से स्पर्श द्वारा हल्का भारी ठंढा-गर्म मुलायक कठोर आदि का ज्ञान पाते है। हम प्रतिदिन सूर्य को उगते पूरब दिशा में तथा पश्चिम में डूबते बाते हैं। आज भी हम ऐसी ही कह लिया करते है किन्तु पृथ्वी को चलते हुए हम नहीं देख बाते जो सवदिन से मान्य थी वह उलट गयी। जब हमारे सामने यह निर्णय सुनाया गया कि सूर्य स्थिर है पृथ्वी सहित नौ गह सूर्य की परिक्रमा करते हैं। अब जो भौगोलिक प्रक्रिया को तत्वत समझ पाया, वह मान गया कि पृथ्वी अपनी कक्षा में 365 दिनों में सूर्य की परिक्रमा करता हुआ छः ऋतुओं का निमार्ण करती है तथा अपनी भूरी पर 24 घंटो में नाचकर 12 घंटे सूर्य के समक्ष आधा चेहरा तथा शेष आधा पीछे रखकर हमें दिन और रात का अनुभव कराती है। इस प्रकार आँख से देख कर प्राप्त ज्ञानकारी हमारा ज्ञान था किन्तु घटना के सम्पूर्ण पक्ष पर जो जानकारी हमें दी गयी वह विज्ञान कहलाया ।

अब हम कह सकते हैं कि ज्ञान हमारी इन्द्रिय गत प्रक्रिया के बाद स्थापित तथ्य विज्ञान अध्ययन की समग्र प्रक्रिया के बाद स्थापित तथ्य है उसी प्रकार सार्वजनिक जीवन के प्रचलन, व्यवस्था, संस्कृति, नियम और विधान भी अपनी पूर्व की कमियों और आनेवाले जीवन में पाये जानेवाले परिवर्तनों को निरापद और अस्थायी स्वरूप में पाने की चाहत (लक्ष्य और उद्देश्य scope and Dimeution) में आंका जाता है। ऐसा परिवर्तन हमारे परिवेश और जीवनशाली में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में अपेक्षित पाया जाता है। कालक्रम में ऐसी घटना घटकर एकवार उसे न्यणाधिक स्वीकार करना या किया जाना दोनों ही प्रभावी होता है। इसे हम क्रान्ति की संज्ञा देते हैं।

हाँ. ऐसी क्रान्ति चाहे जनहित में जनता द्वारा लाये गये बदलाव के कारण हो या राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा अथवा राष्ट्रीय हित में हो किसी आपतित समस्या या संकट की घड़ी में लिये गये निर्णय के ही कारण हो, समरस या कठोर हो, ग्राह्य हो या जन विरोधी मी आज की जनतांत्रिक व्यवस्था में दलीय तनाव, सत्ता पलट आर्थिक और नैतिक कारणों से प्रभावित सत्ता राष्ट्रीय संकट की स्थिति में लाये गये परिवर्तन पर जनाक्रोश, विरोध और प्रतिकार की स्थिति से नकारा नहीं जा सकता।

किसी भी राष्ट्र में हम समाज या सत्ता विरोधी गतिविधियों की सक्रियता से इन्कार नही कर सकते। उसके स्वरूप को वैचारिक स्वरूप पर दो कारणों से जोड़ा जा सकता है। प्रथम कारण असन्तोष और दूसरा प्रतिरोध ये दोनों विषय मानवाधिकार को सुदृढ़ स्वच्छ 1 और प्रभावी बनाया जाना, जन भावनाओं के प्रति संवेदित होना, न्याय व्यवस्था और प्रक्रिया के हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाय एवं सामाजिक सरोकार को सफल आयाम दिया जाय। मेरे विचार से आतंकवाद, नक्सलवाद एवं आन्तरिक अशान्ति चाहे जैसा रूप में हो उपरोक्त दो ही प्रमुख है। माना कि कोई आतंकी या अन्य उपद्रवी संगठन अपने निहित स्वार्थवश दूसरों को काफी कीमत चुकाकर अपने इस पेशे में खींच लाता है वह या तो प्रवृत्या वैसा ही है अथवा लोभवश जाता होगा। दोनों ही स्थितियों में आपराधिक गतिविधियों भली प्रकार से सोचा जाय तो न अपने हित में है न समाज न राष्ट्र किसी के लिए घातक, अप्रतिष्ठा जनक, दंड, ग्लानि के साथ अपना नाम इतिहास के काले अध्याय में अंकित कराता है।

और यह स्थिति तब देखने को मिल रही, जब देश की परिस्थिति वह नहीं जो स्वतंत्रता के पूर्व रही। जब देश में अपेक्षाकृत अर्थ, संसाधन, रोजगार, जीवन शैली, शिक्षा और तथा कथित स्वायत्तता (अपना शासन) मिली। अगर हम जनतंत्र को अपने देश में कमजोर और शासन व्यवस्था को अपर्याप्त मानते हैं तो वह दोष पूर्णतः देश के नागरिकों का है क्योंकि वे ही सत्ता के जनक हैं, मतदान तो वही करते और सरकार बनाते हैं आप कहेंगे चुनावी प्रक्रिया में दल, उम्मीदवार आयोग और मतदाता सभी दोषी हैं।

..तो फिर पवित्र और सुदृढ जनतंत्र का प्रश्न किससे पूछा जाता है ? क्या यह मजाक है ?. -जरा सुनिये तो सही ।

हम
भारतीय है तो हम अपनी संस्कृति का ख्याल रखे।
विकसित है, तो अपनी पहचान बनायें।
समृद्ध है जो समाज का कष्ट मिटायें।
शिक्षित है तो शिक्षा को और सुदृढ़ बनायें।
उसमें उपयोगिता एवं गरिमा सृजित करें।

By admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *