गुल , गुलशन , गुलजार और गुमान
इस अखिल विश्व की असीम विविधताओं और बहुआयामी विधानों के बीच , मानव जीवन को चपलताओं , भावनाओं , एवं गतिविधियों से प्राप्त उपलब्धियों के उपयोग की मीमांशा से तीन दृश्य सामने आते हैं । सुख – दुख का अनुभव , संतुष्टि और गौरव उसी को मनस्वियों ने धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष की संज्ञा दी है । एक छोटे से पौधे ( तृण ) से लेकर विशाल वृक्ष तक की कहानी में विकास , फूल खिलना , फल लगना और दाने ( भोज्य या उपयोगी फसल ) प्राप्त होते है । इस प्रकृति की यही उपयोगिता है । सृजन समृद्धि और अवसान के साथ जैव संस्कृति की भूमिका में मानव एक अलग भाव लेकर जन्मा । उसके मनन चिनतन में आत्म गौरव और मुक्ति जनित दो भाव दिखे । मानव का कर्त्तापन ( कत्तृत्त्व भाव ) की पहचान को हम अहंकार ( गुमान ) मानते हैं क्योंकि मनुष्य की भूमिका में सृष्टि नहीं आती , बल्कि जीव और वनस्पति सभी प्रकृति पर आधारित है । इसी कारण वश जगत में एक निर्गुण ( अदेही ) ईश्वर की अवधारण सकारण साबित होती है । यह चिन्तन से सिद्ध है किन्तु इन्द्रियों से अलक्षित । जो इन्द्रियपरक है वह प्रकृति मात्र ही है , ईश्वर नहीं । ….. तो क्यों न उस निर्गुण , अदेही ब्रह्म को प्रकृति रुप ( व्याप्त – व्यप्ति संबंध ) स्वीकार करें । प्रकृत्या यही सत्य भासता है ।
गुल या पुष्प ( फूल गुलशन ) या उपवन ( पुष्प वाटिका – फुलवारी ) गुलजार ( भरापूरा , शोमायमान ) दृश्य मानवकृत हो या प्राकृतिक , कोई अन्तर नहीं रखता । ऐसा नहीं दीखता कि प्राकृतिक पुष्पोद्यान मानवीय पुष्पवाटिका से कम शोमायमान है । हमने फूल के पौधे उगाये , लगाये , सींचे , सजाये , जब वाटिका फूल से निखर उठी तो हम प्रफुल्लित और गौरवान्वित हुए । हमें अपने प्रयासों पर गर्व हुआ न कि उसके निर्माण पर । अतः हमारा गर्व काल्पनिक है । हमें उस सृष्टिकर्ता के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए जिसने विविध रंगों , आकारों के सुन्दर सुवसित पुष्पों से प्रकृति को सजाया । हम अपनी खुशियों , सुखानुभूतियों का श्रेय ईश्वर ( सृष्टिकर्ता ) को देकर ही ब्रह्म ( ईश्वरीय ) सत्ता को स्वीकार करते है । हम उस पर अभिमान न करें । इस गुमान ( काल्पनिक अभिमान ) के द्वारा हमें नास्तिक के रुप में देखा जा सकता है । हमारी पहचान आस्तिक के रुप में न होगी ।
गुमान या मिथ्याभिमान मानव को श्रेविहीन बनाता है । आस्था ही हमें ईशावास की संज्ञा दिला पाती है । श्रद्धा और विश्वास की संज्ञा दिला पाती है । श्रद्धा और विश्वास ही हमें अपने अन्दर स्थित ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति दिलाने वाले भाव हैं ।
( याभ्याम् विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वातः स्थमीश्वरं ( रामचरित मानस मंगलाचरण )
मानव सृष्टि का शिरमौड़ है । बुद्धि , विवेक , अभिव्यक्ति , भाषा , वाणी , ज्ञान , विज्ञान , सूझ , दया , प्रेम , सेवा , परोपकार , दान , धर्म , आध्यात्म , न्याय , पराक्रम आदि गुणों के कारण मानव को पहचान और सम्मान मिला है तथापि वह ईश्वर नहीं , लेकिन ईश्वरत्त्व के भाव गुण और व्यवहार जैसा पुराणों में दर्शाया गया है उसका प्रतिफलन मानव में सम्भव है । उन्हें देवोपम की संज्ञा दी जाती है । ईश्वरत्व के मुख्य तीन तत्त्व , सृष्टि , पालन और संहार मानव में परिलक्षित नहीं पाये जाते । उपरोक्त तीनों के कारक के रुप में मानव की भूमिका या श्रेय , माता – पिता और पालनकर्ता के रुप में पाते है तो कभी किसी की मृत्यु भी मनुष्य , जन्तु , वाहन आदि के कारण होने से मानव पर ही आपेक्ष आता है । तो क्या मानव वही ब्रह्मा विष्णु या शंकर होंगे ? हाँ , एक महत्त्व की बात है कि मानव जब अपने पराक्रम के बल पर यशस्वी और महान बनता है तो उसमें देवत्व भासता है । लोग विविधकालों में वैसे पुरुष को भगवान मान चुके है जो आज भी स्मरणीय एवं पूज्य हैं । वे मिथ्याभिमानी नही थे ।
आज का भौतिकवादी युग प्राचीन युग से अधिक बहुआयामी वैज्ञानिक , तकनिकी , प्रौधोगिक एवं अल्ट्रामोडर्न स्वरुप में काम कर रहा है । मानव अब अतिमानव की संज्ञा पाने वाला है किन्तु आज का मानवतावाद सत्तात्मक संग्राम के इर्द – गिर्द आतंकवाद का सहोदर बन गया है । अतिवादी अहंकारी और विध्वंसक भूमिका विश्व शान्ति या प्रेम को पनाह नहीं में पा रहा ।
राजतंत्र का एकाधिकार , निरंकुशता एवं विलासिता से उबा समाज जब जनतंत्र पाया , तो सत्ता पाने की मानोकांक्षा , सत्ता भोग , और प्रतिस्पर्धा से जनसमर्थन में कमी आयी । जनकल्याणकारी सत्ता या जन आकांक्षाओं का पोषक के रुप में काम करने वाली सरकार नहीं दे पायी । राजनीति से धर्म को अलग कर राज धर्म का रजोगुण विशुद्ध न रहा । वह लोभामिमुख ही न रहा लोभ की पराकाष्ठा पाकर भ्रष्टाचार बन गया । आज राष्ट्रीय मर्यादा का क्षरण हो रहा है । फिर भी वे अपने नेतृत्त्व में ऊपर उठता हुआ ही बतला रहे हैं । विकास के साथ हमारी मर्यादा का हास क्या साबित करता है ? यही न कि उस विकास का मानवता को कोई श्रेय नहीं जा रहा ।