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चिकित्सा तत्व

( 1 ) प्रथम तथा चिकित्सा सेवा कार्य है . कदाचित इसे व्यवसाय भाव से न देखा जाय , न इसमें समृद्धि सूचक दृष्टिकोण ही अपनाया जाय । इसे जन कल्याण का श्रेय ही समझना युक्ति युक्त होगा ।
 चिकित्सा शास्त्र विज्ञान की ही एक शाखा है और चिकित्सा कार्य एक कला है जो रुग्नता बोधक लक्षणों को मिटाकर स्वाभाविक शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को पुनः बहाल कर निरोगता लाती है । खोये विकारों का निरकरण कर जीवन को भावी आक्रमण से बचने हेतु जीवनी शक्ति को सबल ( प्रतिरोधी क्षमता से परिपूर्ण ) बनाती है ।
 चिकित्सा की विविध प्रणालियाँ समाज में प्रचलित है जो स्थानीय रुप से उपलका बूटियों ( Indigenousdrugs ) द्वारा परम्परागत विधान से चिकित्सा में योगदान करती है । यह विधान प्राकृतिकगुणों के आधार पर स्थायित नियम और प्रयोग द्वारा सत्यापित होते है जिन्हें विश्वास के साथ अपनाया जाता है ।
 ऐसे ही कुछ अन्य देशी ( क्षेत्रीय ) चिकित्सा विधान विस्तृत रुप से प्रचलन में व्यवस्थित रुप ले रखें हैं जिन्हें वैकल्पिक चिकित्सा प्रणाली के नाम से मान्यता दी जा चुकी है । ऐसी प्रणालियों में औषधीय विधान से अलग प्रक्रिया अपना कर शरीर के अंग विशेष या तन्तुओं पर प्रयोग में लाकर कष्ट निवारण करते हैं । ऐसे विधान ज्यादा यांत्रिक यौगिक , बाहरी प्रयोग , सेक , पट्टी आदि प्रचलित है ।
 ( 2 ) कुछ प्रणालियों अलग – अलग देशो में वहाँ की सास्कृतिक प्रथा के उपहार स्वरुप प्रचलन में हैं । कुछ उनके शास्त्रीय प्रमाण पौराणिक महत्त्व रखते हैं । उनमें भारतीय आयुर्वेद अति प्राचीन तथा समृद्ध चिकित्सा विधान है । पंच भूतों से निर्मित काया में उत्पन्न कफ , पित्त और वायु विकारों की चिकित्सा औषधियों के रस विधान से किया जाता है । सिद्धान्ततः विषस्य विषम औषधम् का सूत्र ही प्रकृति का नियम है ।
 एलोपैथिक दवा का प्रयोग अबतक मानव पर परीक्षित नहीं है । निम्न जीवों जैसे चूहे , खरगोश , कुत्ते बिल्लियो पर परीक्षित ये दवाएं मानव शरीर पर आजमायी गयी है । उन प्राणियों में वाणी और अनुभूति के विकशित न होने के कारण दवाओं के सम्पूर्ण प्रभाव की जानकारी नहीं मिल पाने से चिकित्सा के मूल तत्व रोग लक्षणे की पुष्टि नहीं हो पाती । साथ ही यह चिकित्सा की विपरीत प्रणाली है जैसे अग्नि का राशन जल से होता है । पदार्थों के गुण और प्रभाव प्रयोग के बाद प्रकट होते हैं । प्रथमिक क्रिया का प्रभाव शमन होता है जबकि उसकी द्वितीय अवस्था उसके विपरीत प्रभाव डालती है जिसके कारण औषधि का गौण प्रभाव शरीर के तन्तुओं के ऊपर विपरीत प्रभाव डालता जो दीर्घ कालिक रुप में प्रकट होती है । वह दवाओं का साइड इफक्ट सिद्ध होता है ।
 इन्हीं दोषों को दूर कर आरोग्यकारी प्रणाली के रूप में मनी गयी है । इसमें दवाओं का परीक्षण सिर्फ मानव पर किया जाता है । यह चिकित्सा प्रणाली एक ही ” समः सम शमयति . ” Like Cures the like ” विष ही विष की दवा होगी । अर्थात जो पदार्थ स्वस्थ शरीर में विकार पैदा करे ठीक उसी लक्षण के रोग की चिकित्सा उसी से बनी दवा द्वारा होगी । रोगोत्पादक दवा ही आरोग्यकारी होगी । इसी आधार पर होमियोपैथी नाम करण हुआ जिसका मूल सिद्धान्त Similia Similibas Curantur or Like cures the like कहलाया ।

  चिकित्सा का मुख्य नियम हुआ :- 

 1. सम लक्षण सम्पन्न दवा , जिसका प्रमाण उसका मानव पर परीक्षण से किया गया हो ।
 2. एक समय एक ही दवा ( जो सम लक्षण वाली हो ) का प्रयोग हो ।
 3. दवा की सूक्ष्म खुराक दी जाय ।
 दवा की सूक्षमता का मानक पदार्थ को अति सूक्ष्मकणों में विघटित करना है । डेसिमल ( 1:10 ) के अनुपात तथा ( 1 : 100 ) का शततमिक सेन्टिसिमल स्केल में दवाका विचूर्ण ( Powder form ) एवं डाइल्यूशन ( अर्क – Liquid form ) तैयार होता है । इसे क्रमागत रुप में क्रमशः 1x , 2x . 3x …………….. decimal तथा 1 से 3. 6. 12. 30 , 200 , Im , 10m , cm आदि Centicimal स्केल में दवा को प्रयोग में लाया जाता है , जो निरापद और शीघ्र प्रभावकारी के साथ चिरस्थायी होता है ।
 प्रमुखतथा , रोग लक्षणों का सकारण संग्रह , पूर्व इतिहास और तत्सम्बन्धित चिकित्सादि का पूर्ण उल्लेख के अनुरुप दवा का लक्षण समष्टि से तुलनाकर दवा का चयन और नियमानुसार प्रयोग किये जाने पर पूर्ण आरोग्य पाना होमियोपैथी की विशिष्टता है । साथ ही महामारियों के संक्रमण काल में जिस दवा को जेनियस एपिडेमिकस पाया जाता है उसके प्रयोग से वह रोग रोका जाता है साथ ही वह दवा डायनेमिक असर करने के कारण जीवनी शक्ति को सवल बनाती है । उसके लिए अलग से अगर वैक्सिन की आवश्यकता समझी गयी तो उस रोग का ही तैयार नोसोड अथवा आइसोपैथिक प्रोडक्ट द्वारा प्रतिषेधक के रुप में सफलता पूर्वक प्रयोग किया जाता है ।
 उस प्रणाली को विश्व में मान्यता है । प्रसार भी सराहना भी । जो राष्ट्र इसे अपने यहाँ मान्यता दे रखा है उससे सहयोग लेना चाहिए । चिकित्सकों को उसका निदान कर देश का कल्याण करना चाहिए । अपने देश में CCRH , HMAL , आयुष आदि संगठनों संस्थाओं को अवश्य ही आगे आकर परीक्षण कर देश सहित विश में बचाव और आरोग्य में सहायक बनना चाहिए । मैं पुनः आयुष एवं CCRH के माननीय पदाधिकारियों से आग्रह करता हूँ कि इस दिशा में अपनी क्षमता का प्रयोग कर होमियोपैथ की विशिष्टता को विश्व के पटल पर लाने में अवश्य अपनी भूमिका निभायें । प्रचार और प्रसार हो ।
 देश के स्वास्थ्य मंत्री महोदय का वक्तव्य समाचार पत्रों में पढ़कर उनकी संवेदना का आदर करता हूँ , दुख है कि हमारे होमियोपैथी अपनी सेवा देने में किसी कारण वश ( जिससे मैं अवगत नहीं हूँ । सेवा देने में पिछड़ गये , शायद इस नवीन वैश्विक आपदा के संबंध में मार्गदर्शन पाने में देर हुयी , फिर भी सेवा का अवसर दूर नही गया है । मैं एक नागरिक के रुप में विश्व के साथ जागरुकता और सेवा के भाग पर सक्रिय हूँ । विश्व और मानव जाति के प्रति संवेदित होते हुए हिकारी की भूमिका निभाना चाहता हूँ ।
 इसमें शीघ्रता और सकारात्मकता के प्रति भावुक हृदय के साथ ,

 ( डा ० जी ० भक्त )

 अध्यक्ष

 प्रगत वैज्ञानिक चिकित्सीय एवं लिटटरी रिसर्च फाउण्डेशन ( रजि ० ) हाजीपुर ( वैशाली ) बिहार

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