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 जीतेगा भाई जीतेगा

 चुनाव का डंका पीटा जा चुका । समाज में सरगर्मी छा गयी है । उसी डके की चोट पर चुनाव जीता जायेगा । तो क्या प्यारी कोरोना का रोना चलता रहेगा ? आखिर सनेटाइजर , डिस्टेंसिंग और मास्क को क्या टास्ट सौपा गया है । ये तो अचूक नुस्खे हैं । और फिर पुलिस सुरक्षा दल जो तैनात रहेंगे । क्या इस चौवन्द व्यवस्था में जनमत न जुट पायेगा ? आखिर जीतना किसे हैं ?

 जनतंत्र विजय का हुंकार भरने वाला ” जीतेगा भाई जीतेगा ‘ हिन्दी भाषा में कितना रोमांचक एवं आशावादी नारा है जन – जन में विश्वास प्रोत्साहित करने वाला । भले ही यह विजय का उदघोष सिद्ध न हो , किन्तु समय के गर्म में आशा की किरण तो फैलाता है । आशावादिता एक बड़ी शक्ति है । इसमें गति का आहान है । आस्था की पहचान है । क्षमता का जयगान है । शोर्य का अतिम अरमान है । या भावना का स्वर्णिम विहान है ।

 यह सिर्फ नारा नहीं ह्रदय का आवेग है । जीवन का स्फूर्त आनन्दातिरक है । जागृति का उद्रेक है । युवा मानस का भावावेश है । किशोर उम्र का जोश है । दवी जुवानों का उद्घोष है । महत्त्वाकांक्षा के टूटने का आक्रोश है । विजितात्मा का संतोष है , या आत्म दृष्टि का उन्मेष ?

 उपर्युक्त विविध भाव तरंगों में आंकी गयी मानसिकता के उद्गार डूबते – उतारते जनमत का आंकड़ा जब निःशेष लक्षित होता है तो भाई साहब की जीत तिरोहित होती – सी लगती है । क्या ये दुर्घष नारे हमारे अन्तर्मन के विक्षोभ है ? आत्म वंचना के दबे छदम हास में उल्लास को छिपाये अपने जनमत को कोसते हुए हम अचानक बोल पड़ते हैं-

 ” देश का नेता कैसा हो ……….. ” जैसा हो ” रंगमंचीय सर्ववेदना की कराह जय नेपथ्य के नैराथ्य का घोतक होता है तो गठबन्धन की आस फलती है । सत्ता के दुर्गम पथ पर अनवरत डटे रहकर जब हताशा का संवरण किया तो क्या कहा मुझे तो अपनो ने लूटा , गैरों को क्या दम था ?

 मेरी कश्ती वहाँ डूवी जहाँ पानी ही कम था । ” हमारी अभिवयक्ति में होली का वह हास है जो खर्चे की तगी मे गुलाल का रंग । हमारी सत्यता दर्शातीजिह्म काँपने लगती है याणी लटपटाने लगती है । नेता जी और बबुआ के मतो का अन्तर बड़ा कम रहा , अगले चुनाव में वह अवश्य जीतेगा । बस । हेतु – हेतु मदभूत । अरे , वह कभी हारने वाला था , सबों ने दारु – मूर्गा खाकर धोखा दे दिया । इस जनतंत्र को हड़पने का क्या अभियान है । क्या दारु ? अरे , सब चलता है । जब पैतीस लाख का आंकड़ा फेल खा गया तब न उसे सत्तर लाख तक बढ़ाये जाने पर भी आयोग ने नरमी बरती आखिर उनपर ही तो जनतंत्र की साख बनी हुयी है ।

 कब तक चलेगा यह तंत्र मंत्र और यंत्र , मुझे तो घड़यंत्र जैसा ही लगता है । वोट तंत्र अब नोट तंत्र बन गया है । चारो ओर मार पड़ रही है । कितने करोड़ पकड़े जा चुके . देश ही नही , विदेशी मुद्रा भी । आखिर यह लहर अब सुनामी बन गयी है लेकिन यह देश के लिए भारी भूकम्प है । उसे रोकने के लिए मात्र आचार संहिता से काम नही चलेगा । अभियान भी छोटा है । नोटा क्या ? वह भी खोटा है लोग कहा उसे अपना रहे ? ये राजनैतिक दल बीच – बीच में छोक लगाते हुए भी शरमाते नहीं थोड़ी चाशनी छिड़कने की शिरकत कर ही बैठते हैं . अपनी जीत तो सुरक्षित करनी ही है ।

 कुछ लोग सुधार तो कुछ बदलाव की कवायद करते हैं , कोई जातीय ध्रुवीकरण तो कोई अल्पसंख्यक और कमजोर वर्गों के तुष्टीकरण की हिमायत । लेकिन , दुविधा मे दोनों गये माया मिली न सम । साइनिंग इंडियामी बेरहम निकला । अब सभी दल अपनी अपनी लहर चला रहे हैं । जिनमें कदाचित रुग्न मानसिकता की झलक सी लगती हो , सभी दल अपना अपना जनमता भी आक रहे हैं । उनका ग्राफ बढ़ रहा है तब तो आज भी उनके यहाँ आफिस खुला हुआ है उम्मीदवारों के लेन – देन का ।

 भाई मेरा तो विचार थोड़ा अलग है । आप शायद मानेंगे नही . अबतक भी कभी ये राजनीति वाले हमलोगों की सुनना शायद आवश्यक नहीं समझते । लेकिन आप उसे जनता का घोषणा – पत्र मानें । यह तो राजनेताओं की भूल है कि वे मतदाता सूची पढकर उसकी गिनती को ही जनतंत्र मानते हैं जिसका 45 से 55 प्रतिशत औसत मतदान पर उनकी राजनीति बनती है । उन्हें अबतक स्वतंत्रता के 170 वर्षों की आयु में जनता से साक्षात्कार न हो सका । शायद यही कारण है कि चुनाव अभियान के दरम्यान उनकी मतदाता को सहलाने की नीति से दिल बहलाने वाले परिणाम मिलते हैं ।

 से सारी बातें राजनीति का उन्माद साबित होती है और नैतिकता का पराभव ही दीखता है । चाहिए :-

 ( 1 ) समदर्शी सोच , विविधताओं में ऐक्य भाव , भ्रातृत्त्व और जनोत्कर्ष का लक्ष्य त्याग , बलिदान और राष्ट्र भक्ति ।

 ( 2 ) अहंकार छल – छदम , आलोचना , आरोप प्रत्यारोप , अलगाव की नीति , अदूर दर्शिता और अपव्यय से बचना ।

 ( 3 ) जनसम्पर्क , मुद्दों का ख्याल , जन आकांक्षाओं का ध्यान , सुदूर , सुविधाविहीन दुर्गम , उपेक्षित क्षेत्रों में पहुंचकर , उनकी दशा और मानसिकता सेपरिचित होना , भावनात्मकत रुप में उनके हृदय से जुड़ना और उत्साहित करना , साथ ही अपने संकल्पों द्वारा उनसे आत्मीयता स्थापित करना ।

 ( 4 ) जन – उपेक्षा , स्वार्थ , अवसर वादिता , शोषण , अत्याचार भ्रष्टाचार , दुर्व्यवस्था , दीर्घ सूत्रता , आत्मश्लाधा , वशवाद , जातिवाद एवं बल प्रदर्शन का दफन नितान्त आवश्यक है ।

 ( 5 ) राष्ट्र की आवश्यकता और विकास पर पहल को राजनैतिक दल अपने सिद्धान्तों से ऊपर समझें ।

 ( 6 ) सैद्धान्तिक , मतभेदों में राष्ट्रहित को न भुलायें । राष्ट्र की जनता को सम्बन्धों , जातियों और सम्प्रदायों में न बाँटे ।

 ( 7 ) भारत के गरीबों को नजदीक से देखें और उन्हें ऊपर उठायें । हाशिये पर जीने वाली जनता के बीच भी जायें और समय गुजारें । उससे आप उनके शासक ही नहीं , भगवान भी बन सकेंगे ।

 ( 8 ) देश की आत्मा से जुड़े । अलगाव वाद से राष्ट्र की आत्मा आहत होती है । वह भाषणों से नही , सुधारों से संन्तुष्ट होगी ।

 ( 9 ) आज का जनतंत्र भारत माता के खून से खेल रहा है । आसुरी उन्माद देश की आत्मा को भयाक्रान्त और दुविधा मे डाल रहा है ।

 ( 10 ) इधर 2020 की बिहार विधान सभा के लोक सभा समर – सागर के मतों का अवगाहन प्रारंम्भ है । कोई अपना जनमत 70 % से कम में नही आँक रहा । जनता भ्रमित है । कुछ नया सोच सकती है ।

 जो राजनीति में आकर देश की सेवा करना चाहते हैं उन्हें अपने अभिक्रम पर ( तन , मन और धन से ) जिस क्षेत्र से अपनी सेवा अर्पित करना चाहते हो , पाँच से 10 वर्षों तक निःस्वार्थ सेवा का सकारात्मक एवं प्रत्यक्ष कीर्तिमान स्थापित कर क्षेत्र की जनता का विश्वास प्राप्त करें , ताकि जनता स्वयं उन्हें अपना उम्मीदवार बनाकर अपने ही मतों से उन्हें लक्ष्य तक पहँचा सके । मैंने विगत 2013 में बिहार के मुख्यमंत्री , भारत सरकार , और देश की पूरी आवादी के बीच अपने इस आशय का लेख हिन्दी में हिन्दी के समाचार पत्रों को भेजकर अवगत कराने का बार – बार प्रयास किया है । जनतंत्र का सफल बनाने , सुखी सम्पन्न बनाने और अपने नाम बनाने , सुखी सम्पन्न बनाने और अपने नाम विजयश्री को जोड़ने के लिए यही मेरा सुझाव है ।

 जीवन के क्षेत्र में जीत एक पुरस्कार है उस साधना की योजना मंगल के रुप में चरितार्थ होती है । तदनुरुप ही हम जनतंत्र में जनमत की आशा रख सकते हैं ।

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