जीवन में शिक्षा और शिक्षण की अनिवार्यता
डा० जी० भक्त
सृष्टि के संरक्षण में उसका पोषण जैसे अनिवार्य है , उसी प्रकार जीवन में श्रेय पाने के लिए शिक्षा और शिक्षण । जैसे सात्विक और पौष्टिक के साथ संतुलित आहार आवश्यक है , उसी तरह मूल्य परक शिक्षण पाकर ही जीवन का श्रेय सिद्ध होता है । आज मानव जीवन बहुत आयामी स्वरूप ले रखा है , उसके अनुरूप शिक्षा और शिक्षण भी सतत आयामों में अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों को लेकर असंख्य विधाओं में बँट चुका है ।
बिगत पाँच सितंबर 2021 को अपने देश में शिक्षक दिवस मनाया गया । इस अवसर पर कहा गया कि जीवन में शिक्षक दिवस अपना महत्व रखता है।ऐसा कहकर हमने समाज के बीच शिक्षकों , छात्रों सह सम्पूर्ण शैक्षिक परिवेश को किन भावों के साथ महत्व पूर्ण दर्शाया गया ?
सर्वपल्ली डॉ . राधाकृष्णन भारत के द्वितीय राष्ट्रपति अपने जीवन में शिक्षक की भूमिका भी निभायी थी । उनके जन्म दिवस को ही शिक्षक दिवस का नाम दिया गया । उस अवसर पर चंदा स्वरूप आर्थिक कोष संग्रह कर विशेष अवसरों पर शिक्षकों के सहायतार्थ निधि निर्धारित की गयी , जिसकी परम्परा चली । आज इस शिक्षक दिवस की परम्परा का रूप क्या है और किस तरह मनाया जाता है किन्तु कुछ वर्षों पूर्व यह भी देखा गया कि कन्वेंट विद्यालयों एवं कोचिंग केन्द्रों के शिक्षकों ने अपने स्वागतार्थ आयोजन कर छात्रों द्वारा इस दिवस का अनुष्ठान किया गया । सोचा जाय कि शिक्षक दिवस का निहितार्थ यहाँ किस प्रकार फलित हुआ ?
शिक्षा की यथार्थता और शिक्षण की उपलब्धता एक प्रकार का उपार्जन होना चाहिए जैसा पारम्परिक चिन्तन है- उपयोगिता पूर्ण शिक्षण । हम शिक्षक और हमारे शिक्षार्थी अपने कौशल से कुछ उत्पाद तैयार कर आयोजन में प्रर्दश के रूप में सजा पायें जो उपयोगी सिद्ध हो , साथ ही उनकी कीमत चुका कर लोग कोष एकत्र करें जिसका उपयोग भविष्य में शिक्षकों के कल्याणार्थ किया जाय । क्या हम बतला सकते हैं कि यह दिवस अबतक अपने निहितार्थ को यथार्थता की कसौटी पर खड़ा कर पाया ?
शिक्षा की उपादेयता पर विचारना तो दूर की बात रही , उसके इसरेतर विकल्प पर दिमाग दौड़ाना और विकृति पैदा करना आज नवाचार माना जाने लगा है । इसी नवाचार में स्वतंत्रयोत्तर भारत कहाँ तक विदेशी मैकाले की शिक्षा नीति को पलट एक सकारात्मक , सामाजिक सरोकारों का रक्षक , जीवन सर्जक , मूल्यपरक , मानवीय गुणों से परिपूर्ण आचार और व्यवहार प्रेरक चरित्र का अवगाहन करने वाला ज्ञान मंदिर खड़ा कर पाता , इसके प्रयोगों की लड़ी और विधानों की झड़ी में अवरोधों की श्रृंखला सृजित होने लगी ।
2012 से लगातार अपने देश में शिक्षा की गुणवत्ता गायब होती सुनी जा रही है । कोरोना काल ने शिक्षा की अधोगति पर जो दुर्गति कायम कर रखी , उसमें कौन – सा कीर्तिमान आकाश से टपक पड़ा कि शिक्षक पुरस्कार से पोषित हो पाते ? अगर अधोगति ही उन्नति की परिणति है तो हम सबों को एक स्वर से स्वीकार कर लेना होगा कि हम शिक्षा और संस्कृति के उन प्राचीन आदर्शों को साकार कर रहे हैं जो उनके गायन के सुमधुर लय को प्रस्तुत कर उनकी स्मृति में झलकती है ।
मानव चेतना प्राणी है । हमारे विधालय , महाविद्यालय और विश्वविद्यालय तो ज्ञानोदधि है , लेकिन हम ज्ञान के अवगाहन में किंचित सीपियों को भी न ढुंढ पा रहे बल्कि प्रदुषण के ढेर ही एकत्र हो रहे । आज जरूरत है प्रवृतियों के दास ने बनकर हम प्रगति के पथ अपनाएँ ।