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प्रभाग-21 तृतीय सोपान अरण्य काण्ड रामचरितमानस

  चित्रकूट से प्रत्यागमन के बाद एक शुभ दिन देख कर रामचन्द्र जी की चरण पादुका सिंहासन पर बिठाकर राज तिलक कर दिया गया । भरत जी ने नन्दी ग्राम में धरती खोदकर कुशासन पर जा बैठे और मुनिवेश में ही नियम व्रत और सादगी निर्वाह करते हुए यथाज्ञा गुरु का आशीष पाकर राज काज चलाने लगे ।
 उधर रामचन्द्र जी लक्ष्मण जी एवं सीता जी क साथ पर्णकुटी में वैराग्य , भक्ति और ज्ञान की प्रति मूर्ति बनकर विराजमान हैं । अवध समाज रामचन्द्र जी से बिछड़ कर मन से बेचैन हैं तथा चुपचाप चले जा रहे हैं ।
 देवतागण भी रामचन्द्र जी की दशा पर पुष्प बरसाकर राक्षसों द्वारा किये गये उत्पातों की अपनी – अपनी व्यथा सुनाई । भगवान ने उन्हें आश्वासन दिया । वे सभी प्रसन्न हुए । उनको भरोसा प्राप्त हुआ , कोई कष्ट या डर न रहा । वनवासी राजकुमार सहित सीता वन में अब अपनी आगे की आत्रा पर विचार कर रहे हैं । भगवान शंकर पार्वती जी से उनकी यात्रा वृत्तान्त सुना रहे हैं ।
 हे पार्वती ! श्री रामचन्द्र जी मे गुण रहस्य भरे हैं । ज्ञानी पुरुष और मुनि जो उनहें समझ लेते हैं उनमें संसार के सुख – दुख से वैराग्य प्राप्त होता है किन्तु धर्म में रुचि नहीं लेते , वे उनके बारे में जानकर भी मोह को प्राप्त होते है । अबतक हमने अवधपुरी वालों और भरत जी के परस्पर प्रेम का वर्णन अपनी बुद्धि से विचार कर कहा । अब मैं उनके उन पवित्र गुणों का वर्णन करूँगा जैसे वे वन में कर के देवताओं मुनियों सहित सामान्य भक्तजनों को सुख पहुँचा रहे हैं ।
 यहाँ इन्द्र पुत्र जयन्त का वृत्तान्त , अत्रि , सरभंग , सुवीक्षण , अगस्त आदि का मिलन , सीता अनुसूइया संवाद और नवधा भक्ति की सीख , सीताहरण और शबरी जटायू की भेंट एवं मोक्ष के साथ नारद के प्रति राम का उपदेश आदि का वर्णन सहित किष्किन्धा गमन का वृत्तान्त आता है ।
 शंकर जी कहते है कि भगवान राम स्फटिक शिला पर बेठ सुन्दर फूलों के आभूषण अपने हाथों से बनाकर प्रेम पूर्वक सीता जी को पहना रहे थे , उसी समय देवराज इन्द्र पुत्र जयन्त ने आकर सीता के पैर में चौंच मारा । ऐसा किया । रामचन्द्र जी ने सींकी का टुकड़ा उठाकर उसे वाण की तरह निशाना बनाकर फेंके जो जयन्त को दूर तक पीछा करता रहा । वह थक कर जब पीछे मुड़कर झांका , तो वाण इसके थोड़े ही पीछे था । भयभीत होकर वह भागता ही पृथ्वी मंडल से हार कर पहले देवतओं के पास जाकर सुरक्षा की भीख मांगी , किन्तु राम विमुख उस दुष्ट को किसी ने नहीं अपनाया । तब वह अपने पिता के पास जाकर अपना कौंवा का रुप त्याग उनकी शरण मांगा तो वे भी न सुने । इसी बीच उसे नारद मुनि मार्ग में ही मिले । उन्होंने जयन्त को रामजी के पास ही लौटकर शरणागत होने की सलाह दी । दूसरा आश्रय हो क्या सकता था । रामजी का स्मरण कर उड़ता आ उनके पैरों पर जा गिरा । त्राहिमाम कहकर उसने विनती की । कहा- हे प्रभु ! मैं आपका बल और प्रताप नहीं जाना था । मुझे क्षमा करें । उसकी आर्त वाणी सुनकर एक आँख लेकर छोड़ दिया । शंकर जी ने पार्वती जी से कहा , उसका अपराध बड़ा था , परन्तु दीन दयालु प्रभु ने मात्र एक ही आँख लेकर उसे क्षमा कर दी । जो मूढ राम के विमुख होकर चलता है वह पापी उन्हें छोड़ किसी की शरण नहीं पाता । सर्वत्र ही उसे निरादर मिलता है ।
 रामचन्द्र जी ने जब तक चित्रकूट में अपना निवास रखा , तरह – तरह की लीलाएँ करते रहे । फिर विचार किया कि यहाँ रहते बहुत दिन बीत गये । बहुतेरे परिचित लोगों की भीड़ जमने लगी , तब उन्होंने आगे प्रस्थान करने की सोची , फिर सभी मुनिगण को विदाकर अत्रि मुनि के आश्रम की ओर तीनों मूर्ति चेल । भगवान के आगमन से मुनि बड़े प्रसन्न हहुए और बढ़कर सादर अपने आश्रम में लाकर पूजा कर उन्हें फल पुष्पों से स्वागत किया ।
 दो ०- प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि ।
 मुनिवर परम प्रवीण , जोरि पानि अस्तुति करत ।।
 
 अत्रि मुनि ने उनके गुणों का वर्णन करते हुए विनम्र पार्थना की और अपने हृदय में रामचन्द्र जी को निवास करने का आग्रह किया । तब रामचन्द्र जी ने सीताजी से मुनि पत्नी अनुसूइया जी से मिलने की आज्ञा दी । शीलवती सीता ऋषि पत्नी के पाँव पकड़ प्रणाम की । प्रसन्न होकर उन्होंने सीता जी को आशीष देकर पास बिठाया । सुन्दर वस्त्र और आभूषण से उनका स्वागत कर नारीधर्म की शिक्षा दी । कही- हे राजकुमारी ! माता – पिता और भाई तो सभी नारियों के लिए हितकारी हैं , ही किन्तु उनकी एक सीमा है । पति मोक्ष रुप , ससीम सुख देने वाला होता है । वह स्त्री पानिनी है जो ऐसे पति की सेवा त्यागती है ।
 धैर्य , धर्म , मित्र और पत्नी इन चारों की परीक्षा विपत्ति आने पर ही होती है , जब वहाँ उसकी सेवा आवश्यक पायी जाती है । वृद्ध , रोगी , मूर्ख , निर्धन , अन्धा बहरा , क्रोधी और अत्यन्त ही दीन क्यों न हो , ऐसे भी पति का अपमान करने से वह स्त्री लोक और परलोक में कष्ट और निन्दा झेलती है । शरीर , मन और वचन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए बस यही एक धर्म है , एक ही व्रत और नियम है । संसार में पतिव्रता नारी चार प्रकार की है । ऐसा वेद पुराण सभी कहते है । उत्तम नारी वह है जो जानती है कि मेरे पति को छोड़ दूसरा कोई पुरुष सपने में भी नही ह । दूसरी वह है जो दूसरे के पति को अपने भाई पिता तथा पुत्र जैसा समझती है । तीसरी जो दूसर के धर्म पर निम्न कोटि का विचार कर या अपने कुलकी मर्यादा समाप्त होने के कारण बचकर चलती है उसे वेद निकृष्ट नारी कहता है । चौथी , जो अवसर न मिलने या किसी के भय के कारण पतिव्रत निर्वाह करती है , वह अधम नारी कहलाती है । जो पति को छोड़कर अन्य से जुड़ती है वह तो सौ कल्पों तक रौख नरक झेलती है । जो क्षणिक सुख के लिए सौ करोड़ जन्मों के दुःख की परवाह नहीं करती , वह दुष्ट नारी मानी जाती है । किन्तु जो छल छोड़कर पतिव्रत धर्म ग्रहण करती है वह बिना ही परिश्रम परम गति को प्राप्त करती है । फिर पति के विपरीत चलने वाली भावी जीवन में कहीं भी जन्म ल , भरी जवानी में विधवा हो जाती है ।
 तुलसी दास जी का कहना है कि स्त्री जन्म से ही अपवित्र है । ऐसा तो मेरा विचार अब तक नहीं है । किन्तु पति की सेवा करके वह अनायास शुभ गति को प्रापत कर लेती है । इसे स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं दिखती , क्योंकि सेवा भी भक्ति है । तुलसी का पौधा जिसकी तुलना विन्दा नामक स्त्री ( पतिव्रता ) राजा जालन्धर की स्त्री से की गयी ( पति व्रत भ्रष्ट होने पर भी ) पति में अनन्य भक्ति के कारण उसे पवित्र माना गया । पुराण के वृत्तान्त से वह आज भी हरि ( श्री विष्णु भगवान ) के लिए पिय बनी हुयी है ।
 सुनो सीते ! तुम्हारा ही नाम लेकर अब स्त्रियाँ पातिव्रत धर्म का पालन करेगी । तुम्हे तो श्रीराम जी प्राणों से प्रिय है । इस हेतु यह कथा संसार के हित के लिए कही गयी हैं सीता इस प्रसंग से प्रसन्न हुयी | तदन्तर अत्रि मुनि से रामचन्द्र जी ने वन की ओर बढ़ने की आज्ञा मांगी । मुनि बोले :-
 केहि विधि कही जाह अब स्वामी । कहहु नाथ तुम्ह अन्तरयामी ।।
 अस कहि प्रभु विलोकि मुनि धीरा । लोचन जल बह पुलक शरीरा ।।
 
 मुनि पद कमल नाई करि सीसा । चले बनहि सुर नर मुनि ईशा ।।
 आगे राम अनुज पुनि पाछे । मुनिवर वेष बने अति कांछे ।।
 
 मिला असुर विराघ मग जाता । आवत ही रघुवीर निपाता ।।
 तुरतहि रुचिर रुप तेहि पावा । देखि दुखी जन धाम पठावा ।।
 
 पुनि आये जहें मुनि सर भंगा । सुन्दर अनुज जानकी संगा ।।
 कह मुनि सुनु रघुवीर कृपाला । शंकर मानस राज मराला ।।
 
 जात रहउँ विरंचि के धामा । सुनेउँ श्रवन वन ऐहहि रामा ।।
 चितवत पथ रहउँ दिन राती । अब प्रभु देखि जुरानी छाती ।।
 
 नाथ सकल साधन मैं हीना । कीन्ही कृपा जानि जन दीना ।।
 
 ऋषि सरमंग ने बड़े रहस्यमय ढंग से भगवान से विनय किये कि आपके द्वारा यह दर्शन जो मुझे प्राप्त हुआ वह मैं आपका एहसान नही मानता , यह तो आपने अपने प्रण की रक्षा की है । अब मैं जो कहूँगा , कृपा कर आप वैसा करे कि जब तक मैं अपना शरीर त्यागकर आपसे आपके धाम पर नजा मिलू तब तक आप यहीं विराजते रहें ।
 ऋषि सरभंग ने योग , यज्ञ , जप , तप , व्रत जो कुछ किया था सब भगवान को समर्पित कर उनसे भक्ति का वरदान लेकर चिता पर सारी आसक्ति त्याग बैठ गये । उन्होंने सीता सहित लक्ष्मण और राजमी के श्यामल शरीर को अपने मन में बिठाकर सगुन रुप में रहने की विनती कर उनकी कृपा से वैकुंठनिवासी बन गये । भगवान से तो पहले ही भक्ति का वरदान पाहीं चुके थे इस हेतु वे भगवान में लीन नहीं हुए । मुनि सरभंग की दुर्लभ गति को देख सभी मुनि श्रीरामचन्द्र जी की स्तुति करते हुए शरणागत बत्सल , करुणा कंद रामचन्द्र जी की जय जयकार मनाये ।
 चौ ० पुनि रघुनाथ चले वन आगे । मुनिवर वृन्द विपुल संग लाये ।।
 अस्थि समूह देखि रघुनाथा । पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ।।
 
 जानत हूँ पूछिए कस स्वामी । सवदरसी तुम्ह अन्तर जानी ।।
 निशिचर निकर सकल मुनिखाए । सुनि रघुवीर नयन जल छाए ।।
 
 दो ० निसिचर हीन करउँ महि , भुज उठाई पन कीन्ह ।
 सकल मुनिन्ह के आश्रमहि जाइ जन सुख देहि ।।
 
 उन्हीं मुनियों के बीच अगस्त्य के ज्ञानी शिष्य सुतीक्षण भी थे जो श्री रामचन्द्र जी के ऐसे चरण सेवक रहे जिन्हें स्वप्न में भी अन्य दवता पर थोड़ा भी भरोसा नहीं था । वे जब भगवान के आगमन की बात सुने तो व्याकुल की तरह दौड़ते हुए मन में सोचा कि क्या दीन बन्धु भगवान मेरे जैसे भक्त पर भी कृपा करेंगे ? मेरे हृदय में ऐसा विश्वास नही होता कि क्या रामजी लक्ष्मण सहित मुझे अपने सेवक के रुप में समझकर मिलेंगे क्योंकि न मुझमें भक्ति है न वैराग्य और न ज्ञान ही । न सतसंग न योग , जप , तप , यज्ञ न चरणों में दृढ अनुराग ही , फिर भी उस करुणा निधान की एक विशेषता है कि जिसे कोई अन्य का सहारा नहीं , उसके लिए वे अवश्य ही प्रिय होते हैं । जो आज इस संसार के बन्धन से छुड़ाने वाले प्रभु के मुख कमल को देखकर मेरे नेत्र सफल होंगे । भगवान के इस प्रेम में मग्न उस ज्ञानी मुनि कीदशा का हे पार्वती ! मुझे कहते नहीं बनता , कभी नाचना , कभी गाना , कभी मुड़कर देखना , कभी रास्ता भूल जाना आदि की सुधि भूल बैठे थे । पहले तो पेड़ की ओट में छिपकर प्रभु ने उनकी अविरल भक्ति को देखा , फिर भव का भार हरण करने वाले भगवान प्रकट हुए तो पाया कि मुनि रास्ते मेंउस प्रकार अचल और पुलकित मन से बैठे हुए है , जानकर भगवान उनके निकट आ गये । भक्त की दशा देखा प्रसन्न हुए । अपना राम रुप त्यागकर उनके हृदय में अपना चतर्भुज रुप प्रकट किया । रामचन्द्र जी ने मुनि को जगाया , किन्तु घ्यान में मग्न होने से जग न पाये । जब सुतीक्षण जी को ज्ञान हुआ तो उन्ह अपने आश्रम में ले जाकर भाँति – भाँति से पूजा की । फिर कहा- हे प्रभु ! मैं आपकी स्तुति कैसे करूँ । आपकी महिमा अपार है । मेरी बुद्धि मंद है । सूर्य की तुलना जुगनू कैसे कर सकती है ?
 फिर अपनी ओर से स्तुति कर प्रभु से अपेक्षा रखते हुए निवेदन किया कि लक्ष्मण और सीता सहित रामचन्द्र जी मेरे हृदयाकाश में चन्द्रमा की भाँति निवास करें । भगवान एवमस्तु कहकर कुंभज ऋषि के पास चले । सुतीक्षण जी ने कहा कि मुझे भी गुरुजी को देखे और उनके आश्रम में गये बहुत दिन हो गये ।
 कृपा हो तो मैं आपके साथ चलूँ । कृपा सिन्धु भगवान अपने साथ सुतीक्षण जी को ले चले । वहाँ पहुचकर उन्होंने अगस्त मुनि से जाकर कहा कि कोशलपति राम आपसे मिलने आय हैं । उनके साथ छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता जी भी हैं । आदर और विहवलता से तुरंत भगवान दोनों भाईयों से मिले । वहाँ पर अन्य मुनिगन भी उपस्थित थ , जिन्होंने भगवान को पाकर सुख पाया ।
 तब कौशलपति भगवान राम ने मुनियों के सम्मुख बैठकर कहा कि मै आप सवों से कुछ छिपाना नहीं चाहता । मैं कौन से उद्देश्य लेकर यहाँ आया हूँ वह तो आप सवों को खुलकर नही समझाया , अब उसे कहूँगा । आप सब मुझे वही सलाह दीजिए जिससे मैं मुनियों के विरोधी राक्षसों को मारूँ । प्रभु की वाणी सुनकर मुनिगण बोले – आप अन्तर्यामी होकर हमसे पूछते हैं तो हम क्या जाने ? आपही के भजन के माध्यम से कुछ आपके गुणों को जान पाया हूँ । हम सभी ब्राह्माण्ड में गूलर के फलों के गुच्छे में रहने वाले छोटे – छाटे कीड़ों की भाँति उसके अन्दर – बाहर की बातों को क्या जानें समझें ? उन फलों को भी मक्षण करने वाला काल है , जो काल भी आपसे भयभीत है । आप सगुण ब्रह्म रुप है । हम सेवकगण सगुण को ही जानते हैं । इसीलिए हम सबों से राय लेते हैं पहले आप हमें वही भक्ति प्रदान कर हम मुनियों पर दया कीजिए । यहाँ पर बहुत ही सुन्दर और पवित्र स्थान है । वहाँ ठहर कर दण्डक वन को निर्भय प्रदान कीजिए । जल्द ही भगवान मुनियों के साथ चले । दण्डक बन के समीप जाते ही गीधराज जटायु से भेंट हुयी । रामचन्द्र जी का उनसे प्रेम भाव बढ़ा । गोदावरी नदी के निकट ही अपनी कुटी बनाकर रहने लगे ।
 एक बार सुख पूर्वक बैठकर भगवान लक्ष्मण जी से निश्छल भाव स बातें कर रहे थे । उसी समय लक्ष्मण जी ने पूछा हे तात ! आप देवाता , मानव और मुनियों के स्वामी सचराचर जीवों के पालनहार है । उसी प्रकार आपको भी स्वामी की तरह ही मानकर पूछता हूँ कि हे देवाधि देव ! आप मुझे समझाकर कहिए कि ज्ञान , वैराग्य और माया क्या है । जिस भक्ति के लिए आप सेवकों पर दया करते हैं वह भक्ति क्या है ? तब मैं सब कुछ त्यागकर आपके चरण की सेवा किया करूँगा ।
 रामजी ने कहा हे भाई , मैं बहुत थोड़े में ही समझा दूंगा । तुम मन चित्त और बुद्धि लगाकर सुनों । जहाँ मैं और मेरा का भाव है । तुम और तेरा का भाव उठता है वही माया है । यही समस्त जीवों को अपने वश में ( ममता में ) डाल रखा है । इन्द्रियों के विषय और मन का जहाँ तक लगाव है उसे तुम माया ही समझो । उस माया के भी दो भेद हैं , उसे भी जान लो । विद्या और अविधा ही उसके दो भेद हैं । अविधा दोष रुप है और विद्या गुण रुप । अविधा के कारण मनुष्य दुख पाता है । उसके वश में मानव जो गुण रुप है जिसके कारण विश्व की रचना हुयी है वह प्रभु से ही प्रेरित होती है । उसका अपना कुछ भी नहीं है ।
 ( तुलसी दास कृत राम चरित मानस – सटीक मोटा टाइप )
 गीता प्रेस 285 वाँ , पुनर्मुद्रण – गोरखपुर
 ( के पृष्ठ 640 से 641 के दोहा 16 तक लगातार अन्त में परिशिष्टांक पर अंकित है । )
 
 इस भक्ति योग को सुनकर लक्ष्मण जी ने बहुत सुख पाया । और रामजी के चरणों में शीष नवाँया । इस प्रकार ज्ञान , वैराग्य , गुण और कीर्ति पर व्याख्यान सुनते हुए कुछ दिन व्यतीत हुए ।

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