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 दिया सलाई की एक तूलिका क्या कहती है ?

 डा ० जी ० भक्त

….. बहुत कुछ कह डालती है छाटी – सी तूलिका जब हम उससे आधात करते हैं । जब वह स्पार्क कर प्रज्वलित होती है तो उसकी पूरी क्षमता का , उसके आक्रोश का साथ – साथ उसके उपयोगी गुणों एवं आधात पहुंचाने वाले की लक्ष्य पूर्ति के प्रति उसके कर्म बोध का पता चलता ह । हम इसे धातक कहे या नकहें किन्तु यह पोषक भी है संभावित विनाश से बचने के लिए सावधान भी करती हैं ?

 चाहे जैसी भाषा में लोग कहा करते है कि सृष्टिकर्ता ने जब दुनियाँ रची तो उसने शत पदी ( सौ पैरों वाला जीव- Centiped ) जीव बनाया , हवेल और डायनासोर जैसे विक्रान्त जीव भी 1 …. फिर उसने हाथी , घोड़े , ऊँट , गधे भी बनाने पड़े । सर्प , शेर और भेड़िए भी । उनकी आवश्यकताएँ क्या थी ? हम आज तक नही समझ पाये । यह हमारी सोच की कभी बतलाती है । विज्ञान उसे ही समझता – विचारता और आगे बढ़ता है । वह हमारा सहारा बनी है । संसाधन है , आश्रय है जीवन का ।

 हमने , अँधे , बहरे गूगे और पंगुओं – विकलागों , के जीवन और उनके पराक्रम को भी देखा , आज वे दिव्यांक कहला रहे है ? पता नहीं , यह उनके रुप पर साहित्यिक कटाक्ष है या उनके दिव्य कर्म – कलाप का पदनाम । कभी – कभी हमे मानवीय संवेदनाओं पर कुछ आश्चर्य होता है । कोरोना काल में हमने कुछ तो नया पाया । डिस्टेंसिंग । तीन फीट की दूरी बनाकर चलिए । ……… लेकिन कब तक ? …. और कहाँ – कहाँ ? फिर किसके लिए यह नियम निर्धारित हुआ ? और किनके द्वारा इस नियम की धज्जिया उड़ती नजर आयी ? सच पूछा जाय तो पंचतत्त्व की परम्परा में त्रिगुण की भूमिका पर विचारे तो वेदों में भगवान कहलाने वाले महादेव भोला हैं । आप का जवाब भी वेदों में निर्दिष्ट है- काल और परिस्थति वश ही ऐसा होता है । मैं कहता हूँ- दुनियाँ में 98 की शदी अभिमानी और दो प्रतिशत शेष पागल हैं । कहने का तात्पर्य वही है जो आज संसद में साफ – साफ झलका जैसा समाचार पत्रों में देखा ।

 देखा तो बहुत कुछ । सूई की प्रतिस्पर्धा में लेखक और कवियों ने तलवार को खड़ा किया । त्रेता में पहले निहत्थे श्रवण कुमार को तीर लगी । सूर्पनखा के नाक कान कटे , फिर राम के द्वारा प्रयुक्त युद्धास्त्र धनुष से एक नहीं , एक प्रतान मे एकत्तीण के प्रक्षेप से रावण के प्राण गयें । महाभारत में ब्रह्मास्त्र चले तो आज राफेल प्रक्षेणास्त्र तैयार है ।

 लकिन हमे विचारना है गाँधी जी के अहिंसास्त्र के संबंध में । कोरोना काल में जीवात्मा की उपेक्षा युद्ध क्षेत्र में नहीं हुय है , विपत्ति में हुयी है । आज उस विपन्नता से हम उवर नही उठ पाये है । इस काल में विश्व शान्ति पर भी खतरा खड़ा है । हम जनसंख्या वृद्धि पर भी निशाना फिर से बनाना शुरु कर दिया है । लेकिन अभी तो भारत को एक ही जंग लड़ना है कोरोना का , जिसके लिए हम ताल ठोक चुके है । जब एक वैक्सिन की जगह अनेक वैक्सिन का प्रचलन शुरु हुआ वहाँ फिर सबों के मिश्रण पर विचारा जा रहा है ।

 सुनने में आया कि मेरे ही पास के गाँव में एक अच्छा पढ़ा लिखा युवक पेट की गम्भीर शिकायत झेल रहा था । उसने एलोपैथी के जितने सारे पेट की खराबी में काम आने वाले टेब्लेटस थे , उनका संग्रह कर एक साथ चूर्प बनाकर उसकी कुछ खुराक खायी और निजात पाया । तब से उसने अन्यों की चिकित्सा में भी सफलता पायी । आज वर्षों से उनकी तूती बोल रही है । पता नहीं कहा तक सच्चाई है ।

 कारण का ठीक – ठीक अन्दाज नही लगता , ज्ञान की गुणवता घट रही या कर्म में प्रदूषण है या कभी या दुनियों की सोच में निर्णय की क्षमता न रही जिसके कारण जीवन चाहे व्यक्तिगत हो , सामूहिक हो , सागठनिक हो या व्यवस्थागत यह वैश्विक रुप में सकारात्मक नहीं उतर पा रहा और मानवता से नैतिकता पिछड़ रही है । सम्पति , समष्टि , जागृति , उन्नति के रहते विपति क्यों मानव को निगलने पर लगी है । बेरोजगारी मिट नही रही फिर शक्तिशाली राष्ट्र मानव का मशीनीकरण या मशीनों मानवोकरण में क्यों जुट रहें ?

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