प्रभाग-20 द्वितीय सोपान अयोध्या काण्ड रामचरितमानस
सही समाधान सकारात्मक सोच में है । पूर्व धारणा में पूर्णतया नहीं । भरत जी मिलन का अभियान लेकर चले , साथ में गुरु , मंत्री , परिवार , पड़ोसी , रक्षक आदि के साथ राम के राज्यभिषक की तेयारी तक सोच कर चले । उनके पास हृदय में कई विकल्प भी थे ।
जिस प्रकार राम वन की ओर बढ़े । ठहरे , उन्ही मार्गों से भरत की मंडली भी चली । उन स्थलों की चरण धूलि ग्रहण करते , व्रत , उपवास , नियम , संयम के साथ जब सरयू तट के पास से गुजर रहे थे , तो उनकी अपार मंडली की आवाज समझ केवट राज को संदेह हुआ कि भरत का अपनी सेना के साथ राम मिलन का विचार कोई उचित कदम नहीं दिखता । सम्भव है उनके मन में खोट हो । युद्ध की आशंका जान उसने सरयू पट की सीमाबन्दी कर घाटो को भी घेरवा दिया । पूरी सेना भेज घाट पर चौकसी कर लड़ाई के सामान सहित तैयार हो गये । सच्चाई यह थी कि भरत में राम के प्रति अनन्य भक्ति और अपार प्रेम था तो केवट को भी राम के प्रति उससे कमतर कुछ नहीं , किन्तु प्रेम दर्शाने का यह दूसरा विकल्प था , द्रोह नही । इन्ही चिन्तना के बीच एक वृद्ध व्यक्ति बोला कि बिना सच्चाई जाने ऐसा कुछ भी सोच लेना और करने के लिए व्यग्र ही नहीं , प्रतिवद्ध हो जाना उचित नहीं लगता । यह सुनकर केवट राज को अच्छा लगा ।
निषाद राज ने जानकारी ली । बात की सच्चाई सामने आयी । दोनों पक्षों में प्रीति बढ़ी । सानन्द नदी पार कर अपने विनय व्रत के साथ बढ़ते ठहरते मिलते और दर्शन करते चले । सखा निषाद ने उन्हें राम वन गमन का निर्देशन देकर उन्हें कृतार्थ किया । नदियों तीर्थो का दर्शन , विधान करते और मुनि वशिष्ठ के सान्निध्य से सभी कुशल वार्ता , इतिहास शास्त्रदि के अनुसार वहाँ के महत्त्व तथा मार्ग में बसे ग्रामीण जनों के साथ सम्पर्क का लाभ लेते प्रयाग त्रिवेणी , यमुना के दर्शन और मुनियों के आश्रम और पहुनाई का आनन्द भी लिये । केवट भरत मिलन के बाद राम भरत मिलन का लक्ष्य देखते भरत की सोच , राम के प्रति प्रेम , राम वनबास और पिता दशरथ के प्राण प्रयाण पर तरह – तरह को स्वाभाविक चर्चाएँ भी चली । मिलने वालों की प्रतिक्रिया के बीच भरत के भावों की सराहनाएँ भी सुनी गयी ।
देव लोक में भी इसकी चर्चा चली । राजा इन्द्र को सम्भवतः ऐसा विचार में आया कि भरत के अपार जन सैलाव के मिलन वार्ता से कहीं राम अयोध्या लौटकर देवताओं के हित साधन में बाधक न बने , आदि विषयों का निदान भी निकल गया । भरत का स्नेह और राम की भक्त वत्सलता और कर्त्तव्य परायणता के साथ धीरता और वचन प्रमाण पर सबों का विश्वास ही सत्य का साधन बना ।
भरत जी ने अभियान म अकस्मात राजा जनक जी का मिलन संयाग भी महत्त्वपूर्ण रहा उनके विचार में भी राजकुमार भरत दोनों भाईयों की सराहना साकार मानी गयी । जब राम निवास में भरत के आगमन की खबर पहुँची तो लक्ष्मण जी के छात्राचरण का रुप उभर कर आया । वे मन में विचार कर माना कि इस अवसर पर सेना सहित अवध वासियों की जमात के आने का कारण राम पर आक्रमण हो सकता है । इस हेतु लक्ष्मण सजग हो गये और रामजी से अपनी भावना का निवेदन किया । इसका भी समाधान स्वाभाविक तरीका से हो गया । संदेह का कारण कैकेयी की कुटिलता से जोड़ा जा रहा था । दूसरा कारण पर्व के इतिहास में राज्य पाकर राज पद का अविवेक पूर्ण परिचालन पर उनका ध्यान गया । लक्ष्मण जी को यह घटना संकट पूर्ण समझ में आया किन्तु रामजी और भरत जी का गहन आत्मिक प्रेम की अगाधता का अनुमान सामान्य नहीं कि उसे लौकिक आचरणों की सीमा में जोड़ा जाय ।
राम निकत में अवध के अतिथियों का सादर सत्कार मिलन और श्रद्धा सौहार्द्र का वातावरण बना रहा । जनक जी और उनके परिवार सहित वशिष्ठ मुनि आदि का भी सम्मान सहित ठहरना कुछ काल तक सुखमय रहा ।
भरत जी के हृदय में प्रेम और भक्ति अगम्य होने पर आत्म विश्वास का भंडार था किन्तु कठिन समय को ध्यान में रखकर सोच निमग्न रहा करते थे । मिलन अभियान में भी उनके चेहरे पर विषाद रहता ही था । चिन्ता सबसे ज्यादा इसी विषय की थी कि रामचन्द्र जी का क्या व्यावहार होगा जब विधाता की गति ही वाम है और उनके अपने मन में भी प्राकृत भाव से अपराध बोध जा नही रहा था ।
चित्रकूट के वन में पर्वत शिखर पर एक पर्ण कुटी के सामने सीताजी के हाथों निर्मित मिटी के बने चबूतरे पर प्रतिदिन उस क्षेत्र के मुनिगण सहित रामचन्द्र जी पुराणों की चर्चा किया करते थे । जब निषाद राज भरत जी को लेकर पर्वत की ओर बढ़े तो वह दृश्य नजर आया । पास जाकर दूर से ही दोनों ने प्रणाम किया तो रामचन्द्र जी ध्यानस्थ रहने के कारण सुन नही पाये , निषाद ने कहा भरत जी आपको प्रणाम कर रहे हैं । कान में भरत जी का नाम सुनते ही रामजी दौड़ पड़े । भरत जी उन्हें दण्ड प्रणाम किये । कृपा निधान राम जी न उन्हें हृदय से लगा लिया । फिर लक्ष्मण जी भी प्रेम से मिले । सारी जानकारी राम जी को मिली । वे उनके ठहरने की जगह पहुँचकर मिलकर यथोचित आदर सम्मान दिये ।
पिता जी की मृत्यु पर वेद , शास्त्र एवं पुराणों में दिये गये विधानों एवं व्यावहारिक प्रचलनों पर जो – जो सम्मत श्राद्ध विधान था , उसका पालन करते हुए दो दिनों तक संस्कार पूरा कर रामचन्द्र जी शुद्ध हुए , मानें तो ब्रह्म के अवतार आनंद कंद श्री राम के नाम लेने मात्र से सभी शुद्ध हो जाते हैं , उन्हें भी संस्कारों के द्वारा शुद्धि दिलायी गयी । यह रामजी की नर लीला हो या जन – गण को आनंद प्रदान करने वाले भगवान का सुखद व्यवहार , किन्तु सभी उपस्थित लोगों सहित मुनियों और देवताओं को भी अच्छा लगा । चित्रकूट के वन्य क्षेत्र में बसने वालों का भी रामादल के अतिथियों के साथ प्रेम बढ़ता जाता था । सभी एक – एक के व्यवहार की सराहना करते हुए अपने को भाग्य मनाते थे जिन्हें भगवान के दर्शन हुए ।
निश्चिन्त होकर एक दिन अपने अभियान के लक्ष्य पर विचारार्थ सभी बैठे । वशिष्ठ मुनि द्वारा सम्र्पूण विषयों पर एक बार भली प्रकार से सारी जानकारी दी तथा सबों के संबंध में स्थिति स्पष्ट की गयी । तदुपरान्त भरत जी के वन आने के साथ उनके लक्ष्य पर विचार हेतु सबों से विचार देने का आग्रह किया , जिसमें वनबास की पृष्ठ भूमि में भरत के राज तिलक और राम के वनबास से उपजे विषाद को मिटाकर पिता राजा दशरथ के प्रण पालन हेतु राम का लक्ष्मण और सीता सहित वनगमन युवराज भरत के हृदय मे ज्वाला बन कर धधक रही थी , उसकी शान्ति , अवध की व्याकुल प्रजा के संतोष और अवध पति दशरथ द्वारा किये गये प्रण के परिप्रेक्ष्य में राम की जगह भरत के राज्यभिषेक पर सबों की सहमति होते हुए भरत जी के प्रस्तावों पर कुल – कुमुद ज्येष्ठ भ्राता रामचन्द्र जी का अभिमत जानना रहा । मुनि श्रेष्ठ के कहने के बाद माता कौशल्या कुल गुरु के समक्ष करुण शब्दों में अपने पति की आज्ञा में उनके प्रण के पालन हेतु राम के वनगमन और उनके वियोग में सुरलोक में प्रयाण के वाद गुरु की आज्ञा का पालन अनिवार्य बतायी । भरत जी भी अपनी अति विकल अवस्था मे अपने मनोभव विषाद को व्यक्त करते हुए अपना पक्ष रखे । भरत जी के विचारों में प्रथम विषय था राज – काज संभालने के संबंध में पिता के प्रण को प्राथमिकता देने के पूर्व रामजी के मन की स्थिति जानना । भरत जी के मन में अटूट विश्वास था । बचपन से राम जी के साथ भक्ति सहित प्रेम पूर्ण व्यवहार का उभय पक्षीय विश्वास जिसमें कोई अपवाद की गुंजाइश नहीं दिखती । इसी विषय पर वे अपने हृदय से सन्तुष्ट होने के लिए सबरा होते वन के लिए चल पड़ने की आज्ञा मांगी थी । यह विषय विश्व में व्यावहारिक जगत की सोच और शास्वत सत्य के बीच का भेद मिटाने का रहस्य मय भाव है जिसकी संतुष्टि ही भरत के विषादित हृदय को शीतलता प्रदान कर सकती है । इसके पूर्व किसी प्रस्ताव पर स्थिर होना जल्दीबाजी होगी , जो सदा अकल्याणकारी हो सकता था । …. जैसा कि राजा दशरथ एवं गुरु वशिष्ठ बिना भरत को बुलावा भेजे राम के राज्यभिषेक की तैयारी कर ली थी । यह उस समय रामचन्द्र जी को भी अविवेक पूर्ण लगता था । यथा वशिष्ठ मुनि के शब्दों में :-
दो ० वेगि बिलम्ब न करिअ नृप , साजिअ सबुइ समाजू ।
सुदिन सुमंगल तबहि जब रामु होहि युवराज ।।
सचिव सुमन्त्र का विचार :-
जौ पॉचहि मत लागे नीका । करहु हरषि हिय रामहि टीका ।।
मंत्री मुदित सुनत प्रियवानी । अभिमत विखें परेउ जनु पानी ।।
विनती सचिव करहि करजोरी । जियहु जगत्पति बरिस कटोरी ।।
जग मंगल भल काजु विचारा । वगिअ नाथ न लाइअ बारा ।।
रामजी का असमंजस :-
जनमें एक संग सब भाई । भोजन सयन केलि लरिकाई ।।
करन वेध उपवीत विआहा । संग – संग सब भये उछाहा ।।
विमलवंस यह अनुचित एकू । बन्धु विहाई वरेहि अभिषुकु ।।
प्रभुसप्रेम पछितानि सुहाई । हरउ भगत मन के कुटिलाई ।।
यह चर्चा लम्बी चलती रही । विविध विचार वैभव , वेदाक्ति , पुरोपक्ति , विद्वद् सम्मति की प्रस्तुति , प्रमाण और व्याख्या जो मान्य और महत्त्वपूर्ण थे , प्रस्तुत किये जा रहे थे । उसी समय राजा जनक का भी आगमन एक महत्वपूर्ण अवसर लेकर उपस्थित हुआ । उनके भी अमिमत , उनके परिवार के सदस्य , सीता और महारानी सुमित्रा तक के विचार लिए गये । सभी सप्रेम , बिना किसी खोट और दुराव के विचार रखे । राम और भरत के विचारों का क्या कहना जिनके हृदय ही एक थे ।
इस अभियान को विशिष्ट ऐतिहासिक ( या सांस्कृतिक कहें ) समागम की चर्चा तुलसी दासजी ने अपनी वाक पटुका , कलात्मकता और विषय वैशिष्टय् सहित मनोविज्ञान सम्भूत थे सामान्य जन के द्वारा व्याख्या करने योग्य नहीं । यह मात्र समागम नहीं , एक आध्यात्मिक मार्गदर्शन का अपूर्व प्रक्रम चल रहा था । उस काल में जो वहाँ शरीर म उपस्थित रहे , वही उस अमृत को चखा । सामान्य जन अगर आज सपनों में भी उसे देख पाते तो उनका जन्म कृतार्थ हो पाता । गोस्वामी तुलसी दास न जो प्रकरण प्रारंभ कर परिपूर्ण किया उसका आजीवन अध्ययन भी राम और राम सखा के मनोविज्ञान की सरलता , सौभ्यता , और लौकिकता का रुपायन नहीं कर सकता ।
इसी बीच देव लोक में व्याकुलता व्याप गयी कदाचित राम अयोध्या न लौट जायें । ऐसा होने पर युगों से प्रायोजित देव , मुनि , धरती गौ और ब्राह्मणों को दानवों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने का कार्य बाधित होने का संदेह उत्पन्न हो रहा था । देवताओं ने पुनः तीसरा प्रपंच प्रारंभ किया और सरस्वती जी द्वारा भोले भक्ति भावुक भरत को स्थिरमतित्त्व प्रदान कर विषाद मक्त कराया- ” सब सुर काज भर के माथे” ।
राम भगति मय भरत निहारे । सुर स्वारयी हहरि हिम हारे ।।
सब कोउ राम प्रेम मय पेखा । भये अलेख सोचवस लेखा ।।
दो ० रामु सनेह संकोच बस कह ससोच सुर राजु ।
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि । नहि त भयउ अकाजु ।।
सुरन्ह सुमिरि शरदा सराही । देवि देव शरनागत पाही ।।
फेरि भरत मति करि निज माया । पालु विवुध कुल करिछल छाया ।।
अन्त में भरत जी ने प्रभु श्रीरामचन्द्र जी की भावनाओं को पूर्णता से समझ अपनी जिम्मेदारी पूर्वक अयाध्या पहुँचकर सेवा करना उचित समझा । उनके राज्यभिषेक की तैयारी हुयी । स्थानीय एक कुएँ के जल में तीर्थो के जल डालकर उसी से जल ग्रहण किया गया । अत्रि मुनि ने उस कूप का इतिहास बतलाया । उस कुँए का नामकरण ” राम कूप ” रखा गया । उसी समय रामचन्द्र जी ने अपनी पादुका को राजगद्दी पर प्रतिनिधि के रुप में बिठाया । भरत जी उनके सेवक रुप अयोध्यावासियों के सहायक संरक्षक के रूप में स्वीकार कर कृतार्थ हुए । अन्त में ( सुरकार्य और राज्यभिषेक ) दोनें पक्षों की बातें तो बन ही गयी । रामचन्द्र जी ने गुरुजी एवं माता सहित विचारवान मंत्री एवं राजागण की देख रेख और कृपा प्रसाद से राज काज , लज्जा , प्रतिष्ठा , धर्म , धन , घर और पृथ्वी , इन सबका पालन , रक्षण गुरुजी के प्रभाव और सामर्थ्य से चलेगा और परिणाम शुभ रहेगा , ऐसा कामना की ।
गुरुजी का अनुग्रह ही घर और वन में समाज सहित तुम्हारा और हमारा रक्षक रहेगा । माता – पिता गुरु और स्वामी की आज्ञ का पालन सिद्धिदातृ कीर्तिमयी , सद्गति मयी और ऐश्वर्यमयी है । वही तुम करो और मुझे भी करने दो । ऐसा विचार कर भारी संकट सहकर भी प्रजा और परिवार को सुखी करो । हे भाई ! मेरी विपति तो सभी ने बॉट ली है परन्तु तुम्हें तो चौदह वर्षों की अवधि तक बड़ी कठिनाई है । तुम्हे कोमल स्वभाव का जानकर भी मैं कठोर वियोग की बात कह रह हूँ । हे तात ! बुरे समय में मेरे लिए यह कोई अनुचित बात नही मानना । कुठौर म श्रेष्ठ भाई ही सहायक होते है । वज की चोट भी हाथ से ही रोके जा सकते है ।
सेवक कर पद नयन से , मुख से साहिब होई ।
तुलसी प्रीति की रीति सुनी सुकवि सराहहि सोई ।।
इन प्रेम पूरित सम्बादों को सुनकर भगवान रामचन्द्र की वानी पर सारा समाज शिथिल हो गया । चुप्पी साध ली , जैसे समाधि लग गयी हो । उस समय भरत जी को पूरा संतोष प्राप्त हो गया । प्रभु को सम्मुख हर प्रकार से अनुकूल पाकर उनके सारे दुख और दोषों ने मुह मोड विदा ले ली । भरत जी ने कहा – हे नाथ ! मुझे तो वन जाने का अवसर आपके साथ मिला ही नही , किन्तु यहाँ तक आने भर से ही उसका लाभ मिल गया । इस जगत में जन्म लेने का सुकृत फल पा लिया ।
हे कृपालु ! अब मुझे वह आज्ञा दीजिए कि जिससे यह अवधि ठीक से पार कर जाये । एक बात और मेरे मन में शेष रह गयी है जिसे कहने में संकोच कर रहा हूँ । वह है कि आपकी आज्ञा हो तो इस चित्रकूट के स्थल , तीर्थ और वन में धूम – फिर आऊँ । तब रामचन्द्र जी ने कहा कि श्री अत्रि मुनि जी की आज्ञानुसार सब कुछ करो और वन में घूम फिर कर आओं । इस प्रकार पाँच दिन रहकर सब कुछ देख सुन कर लौटे । रात बीती । सुबह स्नानादि से निवृत होकर छठे दिन भरत समाज और जनक जी का समाज अच्छा दिन समझकर जुटे और लौटने की आज्ञा मांगी । भरत का हृदय इतना कोमल है कि उनकी विनीत भावना के शब्द सुनते ही बनता है । विदायी के समय दोनों भाईयों के बीच का सम्वाद जीवन के लिए अलौकिक मार्गदर्शन तो है ही , हृदय को शान्ति और बल प्रदान करने वाला है । भगवान के ऐसे संदर्भ ही मानव के लिए सद्गति का मार्ग है ।
अगर बालकाण्ड का हम भगवान रामचन्द्र के बालकपन का चित्रण आर घटना क्रम भर माने तो यह थाड़ा होगा , किन्तु गोस्वामी जी ने तो इस परिदृश्य की पटकथा को परमार्थ मार्ग की झलक के रुप में प्रस्तुत किया है । विषयों का प्रकटीकरण भारतीय आर्ष मनीषा का प्रस्फुट चित्रांकन है जिस पर सम्पूर्ण राम चरित मानस टिका है । राम तत्त्व का गहन चित्रण एवं उसका महत्त्व राम के विविध अवतार , उनके कारण और सविस्तार कथाक्रम राम जन्म , बाल लीला , विश्वामित्र के पास जाना , और राक्षसों का बध , अहिल्या उद्धार , ऋषि के साथ जनकपुर में सीता स्वयंवर एवं धनुष यज्ञ में भाग लेना , राम विवाह के माध्यम से राम के शील , गुण रुप विधान , पौरुष पराक्रम , मर्यादा पुरुषोतम रुप के आख्यान का ही व्यक्तिकरण हुआ है ।
अयोध्याकांड में राम राज्यभिषेक की तैयारी में विन्ध , राम का वनबास और दशरथ मरण करुण रस का अगम सागर है । अवध पति दशरथ जी का परिवार सहित सारी अयोध्या की प्रजा डूब चुकी है । वहाँ भरत उसका पत्तवार सिद्ध होते हुए राम के अनन्य भक्त आदर्शो की नौका लेकर अयोध्या से चित्रकूट पर्वत तक पहुँचकर करुणा निधान का आशीष रुप चरण पादुका को अपना आश्रय रुप ग्रहण किया । राम – भरत मिलन एक वैचारिक मंथन है जिसमें अवध , मिथिला , प्रयाग और पूर्वोतर भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का अवगाहन हुआ है जिसके पुरोधा भरत ने राम चरित मानस कथा प्रबन्ध की प्रति पूर्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं । वैदिक परम्परा का पवित्र नवनीत निमज्जित कर भारत भूमि को नवयुग में प्रवेश करने का मंत्र दिया है जो नित गौरव मय और मार्गदर्शक है । सिद्ध मुनिगण और समस्त देवताओं के मिलन मंथन और पुण्य प्रताप से पुण्य सलिला आर्यावर्त्त की धरती अपनी गरिमा को पुनर्स्थापित करते हुए पुरुषोतम राम को अग्रसर किया है ।
जीवन से विधि विधान का जुड़ा होना , पौरुष पर उस दिव्य सत्ता का नियंत्रण , काल , कर्म , स्वभाव और गुणों का प्रभाव , मन की स्थिति और गति , विवेक की प्रधानता से जन्मो जीवन की विशिष्टता और संस्कृति की छाया हमारी अनुभूतियों को किंचित सुखद तो कदाचित तो दिखता ही है , उसमें धीर मतित्त्व और समय चिन्तन ही उस व्याधि की आषधि है जो जीवन के इस रहस्य को जानता है वही सफल जीवन जीता है । देव , असुर ऋषि सहित समस्त सृष्टि इस प्रपंच के पराधीन हैं । प्रकृति उसका पोषण करती है , परिस्थितियाँ ( माया ) उसे नचाती रहती है । आत्मा ही उसका श्रेय है । शरीर की सत्ता उस पर ही आश्रित है । पंचभूत में उसकी परिणति है । ब्रह्म सनातन है । शास्वत है । सकल ब्रह्माण्ड इसी पथ पर अनादि काल से चल रहा है ।
” माया मनुष्यं हरिः ! “
चित्रकूट से सभी राम की चरण पादुका ले अवध लौटे । भरत राम का मिलन सम्वाद पूर्णतः भक्ति और प्रेम का प्रस्फुटन , मन का विषाद , चौदह वर्षों की प्रत्याशा में जाकर स्थान लिया । भरत का हृदय इस अन्धकार को हर लिया । कथा राम और भरत में सिमटकर रह गयी ।
मनु और सपा के तप से जिस विष्णु रुप राम अवध पति दशरथ के पुत्र बने उसका साक्षी राम की चरण पादुका रही । भरत उसे धारण किये । सृष्टि ने राम के अयोध्या से जोड़र ही देखा और देख रही है । लेकिन वह तो असुरों के दलन में लगे हैं । अवधपति तो भरत हैं । ..जिनके हृदय में , मन में राम विराजमान है । आज दीपावली है । इतिहास यह भी मानता है कि आज के ही दिन राम लंका पर विजय पाकर अयोध्या लौटे थे और अवध दीपों के प्रकाश से प्रकाशित और आनंदित हुआ था । आज हमें उस राम सत्त्व से अनुनय पूर्वक निवेदित करना है कि हम भ्रष्टाचार की घन – घटा को संसार , वेद संस्कृति , आर्य संस्कृति , धर्म संस्कृति , शस्य संस्कृति , ज्ञान संस्कृति , त्याग संस्कृति , प्रेम और दया की संस्कृति की पालिका रही , आज वह समृद्धिहीन संस्कृति झेल रही है । राम चरित मानस इस बात का साक्षी है कि सरस्वती रावणाधीन रही किन्तु देवताओं की विनती मानकर उनके हितार्थ वह कभी मंथरा तो कभी भरत से मिली और समाधान साधी । क्या वह हम भारतीयों को अज्ञानता का नाश नही करेगी ? मैं एक दिन अभ्यर्थी तेरे शरणागत हूँ । सुनो , तुम आज दीवों की अभ्यर्थना में हमारा साथ दोगी ? ..तुम विधाकी अधिष्ठात्री …. ….. आज हमारा ज्ञान कुंठित क्यों ? क्या तुम्हारा शैक्षिक समूह ज्ञान विमूढ हो चला ? तुम कहाँ हो ? आज की रात्रि तेरे नाम पर अर्पित है । कल का प्रभात एक नयी ज्योति की अभीप्सा रखता है ।