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प्रभाग-19 द्वितीय सोपान अयोध्या काण्ड रामचरितमानस

 चित्रकूट पर्वत पर रहते हुए राम लक्ष्मण एवं सीता सहित सुखद अनुमद प्राप्त करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे किन्तु जब – जब उन्हें अयोध्या की सुधि आती थी , तब आँखों से आँसू छलक जाते ।। कृपा सिन्धु भगवान दुखी तो होते थे किन्तु कुसमय का विचार कर धीरज से काम लेते थे । लक्ष्मण और सीता जी भी श्री रामचन्द्र को दुखी देख व्याकुल हो जाते थे । जैसे छाया हर समय मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ती । वैसी परिस्थिति में धेर्यशील कृपालु रामचन्द्र जी भक्तों का हृदय शीतल करने वाले अपनी स्त्री सीता तथा भाई लक्ष्मण को गति देखकर पवित्र कथाएँ कहने लगते थे ।
 जब श्री रामचन्द्र जी को वन में पहुँचाकर निषादराज लौटे , सुमन्त्र जी को रथ के साथ व्याकुल देखे । उन्हें भी दुख हुआ । वे राम लक्ष्मण और सीता को पुकारते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े । रथ के घोड़े दक्षिण की ओर मुँह करके जिधर रामजी गये थे , हिनहिमाने लगे । वे न घास खाते थे न पानी ही पीते थे । आँखों से आँसू बह रहे थे । रामचन्द्र जी के घोड़े की यह व्याकुल स्थिति निषाद राज को देखी नहीं गयी । सुमन्त्र जी से रथ हॉका नही जा रहा था । निषाद राज ने बहुत प्रकार से समझाया कि मन का विषाद मिटा डालिए , समय की विषमता को ध्यान में लाइए । निषाद ने सुमंत्र को बैठा लिया किन्तु घोड़ा बढ़ने को तैयार नही । इस विकट दशा को को देख निषाद ने चार सारथी उनके साथ भेजे और स्वयं लौट गये । रास्ते में सचिव सुमंत्र राम को याद कर उनके विरह में व्याकुल बहुत कछ सोचते चले जा रहे थे । उनमें अपशय और पाप के भाव परेशान कर रहे थे । विचारते है कि मेरे कठोर प्राण देह से विदा क्यों नही लेते ? अयोध्या जाने पर जब भाँति – भाँति से लोग पूछेगे तो मैं क्या उत्तर दूंगा ? इसकी कल्पना करते हुए और व्यथित हो रहे हैं । इसी पश्चाताप मं डूबे तमसा नदी के किनारे रथ पहुँचा । निषाद को वहीं से सविनय विदा किये । नगर प्रवेश करते हुए ऐसे सोच में पड़े जैसे उन्हें हत्या का पाप लगा हो । शाम हो चुकी , सोचा था कि दिन बीत जाने पर पहुँचने पर कमलोग मिलेंगे । अंधकार होने पर अयोध्या में प्रवेश किये और दरवाजे पर रथ को रख भवन में प्रवेश किये ।
 सचिव सुमंत्र जी का आगमन सुन सम्पूर्ण रनिवास व्याकुल हो रहे । रानियों के पूछने पर उत्तर देते नहीं बना । वे इतना ही पूछते है कि राजा कहाँ हैं । दासियाँ सचिव को व्याकुल पायी तो रानी कौशल्या जाकर उन्हें अन्दर बुला लायी । आते ही सुमन्त जी ने देखा कि राजा वैसे पड़े है जैसे अमृत बिना चन्द्रमा धरती पर पड़े हो । शरीर पर न अच्छ हो वस्त्र हैं न आभूषण । साँस तेज चल रही है । बार – बार राजा दशरथ राम लक्ष्मण सीता , सखा आदि शब्दों को दुहराते है । जब मंत्री राजा को देखे तो जयजोव कहकर प्रणाम किया । यह सुनते ही व्याकुलता में ही राजा ने पूछा – हे सुमन्त्र राम कहाँ हैं ? राजा ने सुमन्त्र को गले लगा लिया । डूबते को कुछ सहारा मिला । स्नेह से निकट बैठाकर अश्रु पूण आँखों सहित पूछा – हे स्नेही ! राम कहाँ हैं ? कैसे हैं ? लक्ष्मण और सीता कहाँ हैं ? जब मंत्री ने कह सुनाया कि बनवास गये तो राजा निराश हो गये और कहा कि मुझे वहाँ पहुँचाओं जहाँ रामचन्द्र लक्ष्मण और सीता है अन्यथा मेरा चलना ( मरना ) अवश्य म्भावी है । राजा बार – बार यही पूछते थे कि हे प्रियवर ! मेरे पुत्र का संदेश सुनाओ । ऐसा उपाय कीजिए कि मैं अपनी नजर से उन्हें देख पाउँ ।
 धीरज धरकर सचिव ने मधुर वाणी में कहा कि महाराज आप तो ज्ञानी है , वीर सुधीर और धुरन्धर देवता हैं । आपने साधु संतो की सेवा की है । जन्म मृत्यु का कष्ट भी भोग चुके हैं । हानि – लाभ और प्रियतम का वियोग भी । काल और कर्म के अधीन दिन और रात की तरह ये होते ही रहते है । मूर्ख सुख में आनंदित होते हैं और दुख में रोते कलपते परन्तु धीर पुरुष दोनों ही परिस्थितियों में एक समान रहते है । इसलिए आप भी जगत के हितकारी की तरह अपने विवेक से विचार कर शोक का परित्याग कीजिए और जो मैं संदेश देता हूँ उसे सुनिये ।
 प्रथम ठहराव तमसा नदी के तीर पर हुआ । दूसरा गंगा के किनारे । रामजी सीता सहित दोनों भाई उस दिन स्नान कर गंगा जल पीकर ही बिताये । केवट ने उनकी बड़ी सेवा की । वह रात श्रृंगवेरपुर में ही बिती । सवेरा होने पर वरगद का दूध मंगाकर दोनों भाईयों ने अपने सिर पर जटाओ के मुकुट बनाये । केवट ने नाव मँगाई और सीताजी को उस पर चढ़ाकर तब छोटे भाई लक्ष्मण ने धनष वाण सजाकर भाई की आज्ञा से नाव पर चढ़े ।
 हे राजन् ! रामचन्द्र जी ने कहा कि लौटकर मेरे पिताजी से बार – बार पॉव पकड़कर विनय पूर्वक कहियेगा कि वे मेरी चिन्ता न करें , आपकी कृपा से और मेरे पुण्य से मार्ग में सब कुशल और मंगल ही होगा । इसी प्रकार गुरु वशिष्ठजी , भरत जी , तीनों माताओं परिजन – पुरजन सबों को संदेश सुनाये , जिससे उन्हें रामजी के लिए विशेष चिन्ता न हो । लक्ष्मण जी ने तो कठोर वचन कहे किन्तु रामजी ने आग्रह कर कहा कि उनके बचपना को पिताजी से प्रकट न करना । इतने में रामजी के दिल की बात समझ केवट ने नाव बढ़ा दी । .और मैं अपनी छाती कठोर कर सब खड़ा देखता रह गया । मैं अपना कष्ट क्या कहूँ ? वे अधिक कुछ बोल न पाये । मैं तो बस रामजी का संदेश लिए भटक रहा हूँ । इनकी बात सुनते ही राजा धरती पर लेट गये । उन्हें दारुण दुख हुआ । सभी रानियाँ रो पड़ो । राजा की दुति और मलीन पड़ी । चिन्ता में धीरज धारण कर कौशल्या जी ने समय के अनुरुप समझाया अब आप व्याकुलता को त्याग धैर्य धारण करेंगे तो कष्ट को पार कर जायेंगे और रामजी फिर मिलेंगे । तथापि राजा का पुत्र वियोग भयानक था । उन्हें श्रवण कुमार के अन्धे पिता का शाप याद आया । अब कथा कहते हुए और अपने जीवन को धिककारने लगे । उनकी अन्तिम वाणी:-
 हा रघुनन्दन प्राण पिरोते । तुम्ह बिन जियत बहुत दिन बीत ।।
 हा जानकी लखन हा रघुवर । हा पितु हित चितचातक जलधर ।।
 
बार – बार राम – राम का उच्चारण कर राजा देवलोक चले गये ।
 
 जियन मरन फलु दशरथ पावा । अंड अनेक विमलजशु छावा ।।
 जियत राम विधु बदन निहारे । राम विरह करि मरनु सिधारे ।।
 
 सोक विकल सवरोवहि रानी । रुपशील बलु तेज वरवानी ।।
 करहि विलाप अनेक प्रकारा । परहि भूमि तल वारहिवारा ।।
 
 विलपहि विकल दास अरुदासी । घर – घर रुदन करहि पुरवासी ।।
 अथयउ आजु भानुकुल मानू । धरम अवधि गुण रुप निधानू ।।
 
 वशिष्ठ मुनि न आकर समय के अनुकूल अनेकों कथाएँ कहकर उनके शोक का निवारण किया । अपने ज्ञान के प्रकाश से सबकों प्रबोधा । उसी समय एक नाव में तेल भर कर राजा का शव डाला गया । दूतों को बुलाया गया । शीघ्र भरत जी को आने के लिए बुलावा भेजा गया । उन्हें राजा के मरने की खबर न कहने की बात कही गयी । घावक के जाने के पूर्व ही जबसे अवध में अनर्थ की शुरुआत हुई , भरत के साथ अपशकुन होत , रात्रि में भयानक सपने आत थे । विविध चिन्ताओं में राते विवती थी । दिन में भरत ब्राहमण को भोजन कराकर दान देते । रुद्रभिषेक करते । भगवान शंकर को हृदय से मनाकर अपने माता – पिता और भाईयों का कल्याण चाहते थे ऐसा ही कुछ सोच रहे थे कि घावक आकर संवाद दिया । गुरु की आज्ञा पात ही श्री गणेश जी का नाम स्मरण कर अवध के लिए चल पड़े । नगर प्रवेश पर भी अपशकुन आते थे । नगर भयावन लगता था । रास्ते में नगर के लोग जो मिलते थे धीरे से वन्दना करके बढ़ते चले जाते थे । अपने मन में विषाद के कारण भरत भी कुछ पूछ नहीं पाते थे । अपने पुत्र का आगमन सुनकर कैकेई खुश थी । आरती सजाकर दौड़ी हुयी दरवाजे पर आयी और भरत को घर में बुलाकर ले गयी । वह खुश तो थी किन्तु अपने पुत्र को उदास देखकर इतना ही पूछ पायी कि नैहर के लोग सकुशल हैं न । सुनिये भरत के उदृगार ।
 सकल कुशल कहि भरत सुनाई पछी निजकुल कुशल भलाई ।।
 कहु कहें तात कहाँ माता । कहें सिरो राम लखन प्रिय भ्राता ।।
 
 दो ० सुनि सुत वचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन ।
 भरत श्रवण मन सूल – सम पापिनी बोली बैन ।।
 
 तात बात मैं सकल सॅवारी । भय मंथरा सहाय विचारी ।।
 कछुक काज विधि बीच विगारेउ । भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ ।।
 
सुनत भरत भय विकस विषादा । जनु सहमेउ करि केहरि नादा ।।
 तात तात हातात पुकारी । परे भूमि तल व्याकुल भारी ।।
 
 चलत न देखन पायउ तोही । तात न रामहि सौंपहु मोही ।।
 वहुरि धीर धरि उठे संभारी । कहु पितु भरण हेतमहतारी ।।
 
 पुत्रकी बात सुनकर कुटिल और कठोर मन वाली कैकेयी ने अपनी सारी करनी कह सुनायी । अपनी माँ के मुँह से रामजी का वन जाना सुनते पिता के मरण की बात विसर गयी । अपने हृदय में इन सभी अनर्थो का कारण अपने को ही जानकर वे मौन चकित खड़े रहे । सन्न हो गये । कुछ बोल नही पा रहे ।
 धीरज धरि भरि लेहि उसॉसा । पापिनी सबहि भाँति कुलनासा ।।
 जौं पै कुरुचि रही अति तोही । जनमत काहे न मारे मोही ।।
 पेंड काटि तै पालेउ सीखा । मीन जिय न नित वारि उलीचा ।।
 
 दो ० हंस वंश दशरथ जनकु । राम लखन से भाई ।
 जननी तू जननी भई विधि सब कछु न वसाइ ।।
 

 ( भरत की नानी भी उसी आचरण की थी ऐसा कहा जाता है )

 राम विरोधी हृदय त प्रगट कोन्ह विधि मोहि ।
 मो समान को पातकी वादि कहहु कछु तोहि ।।
 
 सुनिशत्रधनु मातु कुटिलाई । जरहि गात रिसकछुन वसाई ।।
 तेहि अवसर कुवरी तह आयी । वसन विभूषण विविध बनाई ।।
 
 लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई । वरत अनल घृत आहुति पाई ।।
 हुमगि लात तकि कूबर मारा । परि मुँह भर महि करत पुकारा ।।
 
 कूवर टूटउ फूट – कपारु । दलित दसन मुख रुधिर प्रचारु ।।
 आह दउअ मैं काह नशावा । करत नीक फलु अनइस पावा ।।
 
 सुनि रिपुहन लखि नख सिस खोटी । लगे घरीटन धरी – धारि झोटी ।।
 भरत हयानिधि दीन्ही छुराई कौशल्या पहि गे दोउ भाई ।।
 
 भरतहि देखि मातु उठिधाई । मुरछित अवनि पही झंई आई ।।
देखत भरतु विकल भये मारी । परे चरण तन दशा विसारी ।।
 
 मात तात कहें देहि देखाई । कहें सिय राम लखन दोउ भाई ।।
 कैकेइ कत जननी जग माझा । जौ जनमित भई काहे ना बाझा ।।
 
 कुल कलंक जेहि जन्मेउ मोही । अपजस भाजन प्रियजन द्रोही ।।
 को त्रिभुवन मोहि सरिस अभागी । मति असितोरि मातु जेहि लागी ।।
 
 पितु सुरपुर वन रघुवर केतू । मै वेवल सब अनरथ हेतू ।।
 घिग मोहि भयउ वेनु वन आगी । दुसह दाह दुख दूषन भागी ।।
 
 माता भरतु गोद वैठारे । आँसू पोंछि मृदु वचन उचारे ।।
 अजहु बच्छ वलि धीरज धरहूँ । कुसमय समुझि सोक परिहरहुँ ।।
 
 जनि मानहु हिए हानि गलानि । काल करम गत अघटित जानी ।।
 
 दो ० पितु आययु भूषण वसन तात तजे रघुवीर ।
 विसमउ हरषु न हृदय कछु पहिरे वलकल चीर ।।
 
 मुख प्रसन्न मन रंज नरोष । सवकर सवविधि करि परितोषू ।।
 चले विपिन सुनि सिय संग लागी । रहई न राम चरन अनुरागी ।।
 
 सुनतहि लखनु चले उठि साथा । रहहिन जतन किये रघुनाथा ।।
 तब रघुपति सबहि सरुिनाई । चले संग सिय अरु लघु भाई ।।
 
 रामु लखन सिय बनहि सिधाए । गयउन सग न प्राण पठाये ।।
 यह सबु भा इन आँखिन्ह आगे । तउन तजा तनुजीव अभागे ।।
 

  फिर कौशल्या कही :-

 मोहि न लाज निज नेहु निहारी । राम सरिस सुत मै महतारी ।।
 जिए मरे भल भूपति जाना । मोर हृदय कत कुलिस समाना ।।
 
 दो ० कौशल्या के वचन सुनि भरत सहित रनिवासु ।
 व्याकुल विल्पत राज गृह मानहु शोक निवासु ।।
 
माता का धैर्य भरा विलाप और शील तथा भरत का ज्ञान भरा पश्चाताप हृदय को हिला देता है । राम भवन की यह दशा ! किन्तु सुनने से लगता है कि जीवन में जो सांसारिक विषय है उसका प्रवाह न कोई रोक सका है न भोग को भुला सकता है । केवल वह शील स्नेह और भक्ति भाव से ही सम्भव है । राज भोग और दैव पुत्र योग भी माता पिता के लिए शोक युक्त बना , यह विचारणीय है । इसी का आख्यान तुलसी दास का राम निधान है । भारतीय संस्कृति का तथागत संदेश है जो जगत के हितार्थ लक्षित है ।
 पुत्र भरत का पवित्र चिन्तन माता कौशल्या की गोद में अविस्मरणीय क्षण है । हृदय को शीतल करने वाला , मन को पवित्रता देने वाला , सुख सम्पत्ति से वितृष्णा उत्पन्न करने वाला निश्छल पश्चाताप भरा अनुनय है ।
 तजि श्रुति पंथ वाम पथ चलही । वंचक विरचि वेष जग छलही ।।
 तिन्ह के गति मोहि शंकर देउ । जननी ज्यौ यहि जान भउ ।।
 
 श्रुति पंथ ( वेद मार्ग ) का निरादर न विचारणीय है न जनहितार्थ है । इन्हीं चचाओं मे रात्रि बीत गयी । प्रातः काल वामदेव , वशिष्ठ आदि , सचिव गण , और महाजनों को बुलाया गया । मुनि वशिष्ठ जी ने परमार्थ जनित समपानुकूल ज्ञान देकर भरत जी को बहुत प्रकार से उपदेश किये । राजा को वैदिक विधान से नहलाया गया । सुन्दर अर्थी सजायी गई । भरत जी ने सभी माताओं को चरण पकड़ कर सती होने से रोका । चन्दन और अगर की लकड़िया कई भार मंगाये गये । अपरिमित सुगन्धित द्रव्य भी लाये गये । सरयू नदी के तट पर सुन्दर चिता सजाई गयी । इस प्रकार दाह क्रिया की गयी । विधिवत नहाकर तिलांजलि दी । वेद पुराण , स्मृति आदि सबका मंत्र निश्चित करके उसके अनुसार भरत जी ने पिता का दस दिनों का कृत्य किया । मुनिवर वशिष्ठ जी की जैसी आज्ञा हुयी , उसके दशगुणा विधान पूरा किया गया । शुद्धि पाकर गाय , घोड़े , हाथी और अनक प्रकार के वाहन , सिहांसन , गहने , कपड़ , अन्न भूमि , मकान दान दिये गये । ब्राह्मण समाज दान पाकर पूर्ण काम हो गये ।
बाद में एक दिन शुभ दिन विचार कर गुरु वशिष्ठ आये । उन्होंने सचिव सहित सब मंत्रियों , भरत दोनों भाईयों , माताओं और सम्मान्य महापुरुषों को राज्य सभा में बुलाकर आसन दिया । भरत जी मुनि के पास बैठे । कैकेयी के कुटिल कारनामों की कथा कही गयी । राजा दशरथ के धर्म कर्म को सराहे गये जिन्होंने शरीर त्यागकर अपना प्रण निर्वाह किया । जब वशिष्ठ जी रामजी के शील गुण और स्वभाव की व्याख्या करने लगे , तो अश्रुपूर्ण पुलकावलि लक्षित होने लगी । फिर लक्ष्मण और सीता के प्रेम का भी वर्णन किया जो शोक और स्नेह से संतृप्त था । वशिष्ठ जी ने कहा , हे भरत जी , हानि – लाभ , जीवन – मरण यश और अपयश सब विधाता के हाथ है । होनहार प्रवल है । मिट नही सकता । टाले भी नहीं टल सकता । जब ऐसा ही सत्य है तो किसी पर भी दोषारोपण उचित नहीं है । हे तात ! मन में विचार कीजिए । राजा दशरथ सोच करने के योग्य नही हैं । सोच किस पर किया जा सकता है , जो ब्राह्मण वेद नहीं जानता । अपना धर्म त्यागकर  विषय भोग से जुड़ा होता है । उस राजा पर विचारा जा सकता है जो नीति निपुण नहीं , जिसे प्रजा प्यारी न हो । उस वैश्य पर सोचा जा सकता है जो धनवान हाकर भी कृपण ( कंजूस ) हो , जो न अतिथि सेवा करता हो न दान देता , न शिवजी की भक्ति ही करता है । उस पति वंचक नारी पर विचारा जा सकता है जो षड़यंत्री , झगडालू और स्वेच्छाचारो हो । उस ब्रह्मचारी पर विचारिय जो गुरु की आज्ञा का तिरष्कार कर ब्रह्मचर्य व्रत छोड़ देता है । गृहस्थाश्रम वालों पर विचारिये जो मोहवश अपने कर्म पथ का परित्याग कर देता है । योगियों पर सोचिये जो दुनियाँ के प्रपंच में फँसा हुआ ज्ञान और वैराग्य से हीन है । वैसे वाणप्रस्थी भी सोचने में आते हैं । ( पचास वर्ष से उपर की आयु वाले ) जिन्हें तप में प्रवृति होनी चाहिए लेकिन भोग में जुड़े होते हैं । वे भी सोचनीय हैं जो विरोध करने वाले हैं । अकारण ही माता – पिता गुरु एवं भाई बन्धुओं के साथ दुराव रखते हैं । दूसरों का अनिष्ठ सोचने वालों पर तो हमेशा ही सोचना चाहिए जो अपनाही पेट पोसते और बड़े भारी निर्दभी होते है । ऐसे लोगों पर तो हमेशा ध्यान रखना चाहिए जो छल छोड़कर हरिभक्त नहीं होते । किन्तु राजा दशरथ के संबंध में कुछ भी नहीं सोचना है । उनका प्रभाव तो चोदहो भुवन में है । ऐसा तो न कभी हुआ और न कभी होने वाला ही है ।
 सारे देवगण और दिशाओं के रक्षक सभी दशरथ जी के गुणों का वर्णन करते है । हे भरत आपके पिता ऐसे है । हे तात ! ऐसे लोगों की बड़ाई कोई किस प्रकार न करेगा जिसके राम लक्ष्मण और तेरे ( भरत और शत्रुधन ) जैसे पवित्र पुत्र हों । दशरथ जी बड़े भाग्यवान है । उनके हित में सारे विषादों को भुलाकर आगे का कार्य किया जाये । सारे सोच त्यागकर उनकी आज्ञा के ही अनुसार राज काज चलाया जाय । शीघ्रता से पिता की आज्ञा का पालन होना चाहिए जिन्होंने अपने वचन की रक्षा के लिए राम को वनबास दिया । इतना ही नहीं , उन्हीं राम की विरहाग्नि में शरीर का अन्त कर लिया ।
 राम के लिए वचन ही प्रिय था प्राण नहीं । अतः उनके वचन को प्रमाणित करना आपका धर्म होगा । राजा की आज्ञा को शिरोधार्य कीजिए । उसी में हमारी और आपकी भलाई है । परशुराम जी ने पिता की आज्ञा मानकर माता की हत्या कर दो , और अयाति दी , के पुत्र ने पिता के कहने पर अपनी जवानी दे दी । इन दोनों को पिता की आज्ञा पालन का पाप और अपयश न मिला । यह अगर तथ्य है तो सामाजिक सत्य हो सकता है । शास्वत सत्य नहीं । पाप और अपयश भावना की भूमि पर अंकुडित होने वाले पौधे हैं , आज के गणतांत्रिक समाज में यह नियम लागू नहीं है । हास्यास्पद है अतः विचारणीय है ।
 दो ० अनुचित उचित विचारु तजि जे फालहि पितु वैन ।
 ते भाजन सुख सुयश के बसहि अमर पवि ऐन ।।
 
 टीका :- जो अनुचित और उचित का विचार छाड़कर पिता के वचनों का पालन करते हैं वे ( यहाँ ) सुख और सुयश का पात्र होकर अन्त में इन्द्रपुरी ( स्वर्ग ) में निवास करते है । टीकान्तर्गत कोष्ट में ( यहा ) शब्द रखा गया है , क्या तात्पर्य है ? यहाँ का अर्थ क्या अवधपुरी मात्र से है ? किन्तु , व्यक्तिगत भावना का सामान्यीकरण सर्वमान्य नहीं हो सकता । भले ही नीति शास्त्र की अभिव्यंजना है कि पिता की आज्ञा पालना पुत्र का धर्म बनता है । काल और परिस्थिति का विषय और भाव के तादात्म्य पर विचारा जाय ।
 सचिव सुमंत्र जी की घोषणा इस प्रकार रही कि गुरु जी की आज्ञा का अवश्य ही पालन कीजिए , श्री रामजी क लौट आने पर जैसा उचित हो , फिर वैसा ही कीजिएगा ।
 माता कौशल्या का भी कथन हुआ कि पुत्र के लिए गुरु का आदेश पथ्य की तरह है । उसे अपना ही हित मानकर आदर दीजिए । कालगति जानकर विषाद का त्याग कर देना चाहिए ।
 राजा स्वर्ग गये । राम वन गये । तुम कष्ट से कातर हो रहे हो । हे पुत्र ! कुटुम्ब , प्रजा , मंत्री और सभी माताओं के लिए तुम ही मात्र सहारा बचे । अत : गुरु जी का आदेश अपने सिर पर धारण कर प्रजा का पालन और कुटुम्बियों का कष्ट हरण करो ।
 सबो की बात सुनकर भरत जी हाथ जोड़ धैर्य धुरंधर अमृत समान वाणी में सबों का उचित उत्तर सोचकर दिये ।
 मोहि उपदेश दीन्ह गुरु नीका । प्रजा सचिव संमत सब ही का ।।
 मातुउचित धरि आयसु दीन्हा । अवसि सीस धरि चाहहूँ कीन्हा ।।
 
 गुरु पित मातु स्वामिहित वानी । सुनि मनमुदित करिअ भल जानी ।।
 उचित कि अनुचित किये विचारु । धरमु जाय सिर पात भारी ।।
 
 तुम्ह तो देहु सरल सिख सोई । जो आचरत मोर भल होई ।।
 यदपि यह समुझत हउँ नीके । तदपि होत परितोष न जी के ।।
 
 जो तुम्ह विनय मोरि सुनिलेहू । मोहि अनुहरत सिखावनु देहू ।।
 उतरु देउँ छमव अपराधू । दुखित दोष गुण गनहि न साधू ।।
 
 पितु सुरपुर सिय राम वन , करन कहहु मोहि राज ।
 एहि ते जानहू मोर हित , कै आपन बड़ काजू ।।
 
 हित हमार सियपति सेवकाई । सोहरि लीन्ह मातु कुटिलाई ।।
 मै अनुमानि दीख मन माही । आन उपाय मोर हित नाही ।।
 
 अपने तर्क पूर्ण उत्तर से सबका कारण सहित उचित उत्तर सुझाते हुए भरत जी ने विविध प्रकार से समझाकर सबका सार रुप अपना सुझाव दिया । उनके अनुसार जो कुछ सब लोगों की राय थी वह संयमशील और प्रेम के वश में था । संशय इसलिए कि कही उन सब पर दोष न आ गिरे । शील इस अर्थ में कि उनका या मेरा अपमान न हो तथा प्रेम का सार यह रहा कि किसी को अपने प्रति खटके नहीं कि मेरा भला नहीं हो रहा है ।
अयोध्या के राजकुल में आज जो हो रहा है उसके संबंध में ये तीन तर्क तो सजीव रहे । इससे भी अमोध सत्य जो भरत जी ने अपने हृदय में विचार कर रखा वह अकाट्य और समय सानुकूल था ।
 डर न मोहि जग कहहि कि पोचू । परलोकहु कर नाहिन सोचू ।।
 सकइ उर वश दुसह दवारि । मोहि लगि भ सिसराम दुखारि ।।
 
 जीवन लाहु लखन भल पावत । सबुत जि राम चरनमन लावत ।।
 मोर जनम रघुवर बन लागी । झूठ काह पछिताउ अभागी ।।
 
 दो ० अपनी दारुनदीनता कहुउँ सवहि सिरु नाइ ।
 देखे बिनु सिय राम पद जिय के जरनि न जाई ।।
 
 आन उपाय मोहि नही सूझा । को जिय के रघुवर बिन बूझा ।।
 एकहि ऑक इहइ मन माही । प्रातकाल चलिहउ प्रभु पाही ।।
 
 यदपि मैं अनमल अपराधी । भय मोहिकारण सकल उपाधी ।।
 तदपि सरन सनमुख मोहि देखी । छमि सब कहिहहि कृपा विषखी ।।
 
 तुम्ह पै पाँच मोर मख मानी । आयसु आसीस देहु सुवानी ।।
 जेहि सनि विनय मोहि जनु आनी । आवहि बहुरि राम रजधानी ।।
 
 दो ० जदपि जनमु कुमातु तें मै सठु सदा सदोस ।
 आपन जानि न त्यागिहहि मोहि रघुवीर भरोस ।।
 
 भरत वचन सबके हित लागे । राम सनेह सुधा जनु पागे ।।
 लोग वियोग विषम विष दागे । मंत्र सजीव सुमत जनु जागे ।।
 
 मातु सचिव गुर पुर नर – नारी । सकल सनेह विकल भये भारी ।।
 भरतहि कहहि सराही – सराही । राम प्रेम मूरति जनु आही ।।
 
 सच कहें कि यही था शास्वत प्रेम जो सांसारिकता निभाने के मोह में जा छिपा था । उसका अनावरण भरत ने ही करके जगत को मार्ग दिखाया ।
 आज का परिदृश्य भी यही है । एसे तो परिदृश्य बिल्कुल साफ है । क्या हो रहा है ? कैसे हो रहा है ? क्यों हो रहा है ? सब कुछ सबको दिख रहा है किन्तु सत्य नहीं बोल रहा है । इमानदार लोग चुप हैं । योग्य लोग संशय में पड़े हैं । आत्म बल खो चुके हैं । उसे जगाने के लिए एक और मात्र एक ही निर्भीक पुरुष की आवश्यकता है जो सब प्रकार की चिन्ता और षड़यंत्रों की परवाह किये बिना अपने समाज के धरातल पर स्पष्ट सामने खड़ा हो जाये । रघुकुल में इतना बड़ा उत्पात हो गया । शोक छा गया लेकिन राज्य का मोह किसी भी प्रकार से जिन्दा है । उसे मूर्छा नही आयी । भरत जो ने उसके उपर से धुंध को हटा कर परिदृश्य को साफ किया तो सबका दिल साफ हो गया । राम जिस सुरकाज को संभालने आये थे दशरथ मरण तक कहाँ किसी ने उसमें सहयोग की भूमिका निभाई । जिस दानवता की चक्की में ऋषि मुनि पोसे जा रहे थे , जंगल के कोल – किरात अपनी दूषित संस्कृति में पल रहे थे जिनके उत्कर्ष के लिए ज्ञानी जनों ने जानकर और भक्तजनों ने भग्वद्भक्ति पाने की अभीप्सा से रामावतार का सुयोग तैयार किया । वह राम उसी राज घराने में पैदा लिए जो आज भी हाय राज ! हाय राज !! कर रहा था उसे भरत जैसा त्यागी ही पंख प्रदान किया जिससे कथा को विराम न मिले और परिणति तक पहुँचे ।
 एक लक्ष्य था रावणत्त्व की समाप्ति , जो राम के राज्याभिषेक से धूल में मिल जाता जैसे 1947 की स्वतंत्रता भारत को अभिशाप रुप में मिला है जो महात्मा गाँधी की हत्या से पैदा हुआ । पुनः उस अभिशाप को मिटाने के लिए सत्य और अहिंसा का शस्त्र लेकर दीनता के जंगल में , अज्ञानता , रुगन्ता , प्रदषण , अनीति और अन्याय नामक राक्षस का अन्त कर सके जो संस्कृति का वीजमंत्र गोस्वामी तुलसी दास से रामचरित मानस में सुरक्षित रखा है , उसे भारतीय भूल बैठे हैं । उस तक उनकी दृष्टि जा नही रहो । उस दृष्टि को जगाने के लिए संविधान के शिव जाप का भंजन आवश्यक है । उसके रक्षक दानवों का दर्प दलन भी करना होगा । शुरु हो रहा है । जनतंत्र का मारीच और कालनेमी स्वर्ण मृग का स्वांग भर कर भुलावा कर रहा गठबन्धन बना रहा है । उसने लक्ष्मी को अपने हाथ में कर रखा है । सरस्वती को भी बन्दी बना रखा है । स्वास्थ्य और खाद्य को प्रदूषित कर गंगा की सफाई का अभियान रच रहा है । यहाँ राम चरित मानस प्रासंगिक है । इसमें ही राम राज्य का स्वप्न छिपा है ।

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