प्रभाग-16 द्वितीय सोपान अयोध्या काण्ड रामचरितमानस
राम चरित मानस ग्रंथ का द्वितीय प्रकरण अयोध्याकांड है । प्रथम सोपान बालकाण्ड में रामजन्म से राम विवाह तक का चित्रण प्रस्तुत है , तो अयोध्या काण्ड में विवाहोपरान्त रामचन्द्रजी को युवराज पद प्रदान करने पर विचार एवं उसकी तैयारी चली है । कैकेयी का कोपभाजन बन महिपाल अबधपति दशरथ द्वारा राम वनबास , दशरथ मरण और भरत मिलन प्रसंग इस काण्ड में वर्णित है ।
तुलसीदास यहाँ भगवान शिव तथा रघुकुलभूषण श्री रामचन्द्र जी की प्रार्थना के साथ इस अंक का शुभारम्भ कर रहे हैं ।
जिसकी गोद में हिमाचल पुत्री पावती , मस्तक पर गंगा जी , ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा , कंठ में हलाहल विष और वक्षस्थल पर शेषनाग जी शोभा पा रहे हैं , वे भस्म से विभूषित , देवों में श्रेष्ठ , सर्वेश्वर , भक्तों के पाप को नाश करने वाले , सर्व व्यापक , कल्याणरुप , चन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्री शंकर जी मेरी रक्षा करें ।
जिन रामचन्द्र जी को राज्याभिषेक की बात सुनकर न खुशी हुयी , न बनवास के दुख से उनकी मुखाकृति मलीन हुयी , वे मेरे लिए सभी मंगलों के दाता बनें ।
नोल कमल के समान श्यामल और कोमल अंगों वाले , सीता जी को अपने वायें भाग में बैठान वाले , दोनों हाथों में धनुष वाण धारण करने वाले , उस रघुकुल के नाथ रामचन्द्र जी को मैं प्रणाम करता हूँ ।
वस्तुतः मंगलाचरण में तुलसीदास की भक्ति भगवान शंकर सहित रामचन्द्र जी के चरणों में है । उनके हृदय में उनके दिव्य गुणों को जो स्थान मिला है उसे वे अपने जीवन से जोड़ना चाहते ह , इस हेतु उन्ही को नमन कर अप मन को पवित्र कर उनके पावन यश का गुणगान करना चाहते है जो धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष चारों फलों का दाता है । अपने गुरु देव की चरण धूलि से अपने मन रुपी दर्पण को साफ कर कहते है कि जबसे राम विवाह कर अपने घर आये तबसे नित नये – नये उत्सव हो रहे हैं ।
आनन्द के बधावे बज रहे हैं । चारों ओर यश छा रहा है । सुख समृद्धि वैभव और आनन्द की वृद्धि ही हो रही है । सबके मनोरथ फल रहे हैं । इसे देखकर राजा दशरथ भी कृतार्थ हो रहे हैं । परिवार सहित पूरी अयोध्या के नर – नारी सबों की अभिलाषा है कि अपने जीवन में ही राम को युवराज पद सौंप दें ।
एक दिन जब राजा दशरथ पूरे समाज सहित राज सभा में विराजमान थे , अपनी सुकृति की प्रतिभूति सारे सुयश को सुनकर उत्साह का ठिकाना नहीं रहा । स्वाभाविक रुप से अपने हाथ में दर्पण लेकर अपनी मुखाकृति देख मुकुट को संभालने लगे तब कान के पास दो – चार सफेद बाल दिखे जिसे उन्होंने ऐसा माना जैसे वे सफेद बाल अब कह रहे है कि राम को युवराज घोषित कर दें ।
अवधपति ने विचार कर शुभदिन पाकर वशिष्ठ मुनि से मिलकर अपना अभिमत सुनाया । हे मुनि नायक राम तो अब सब प्रकार से योग्य हो गये । गुरु की पूजा और उनके आशीष रुप प्रसाद से सब कुछ पा लिया । अब मेरी एक ही इच्छा है जो अपकी कृपा से पूरी हो जाय । मुनि के पूछने पर राजा ने कहा कि राम को युवराज पद दिया जाय । अगर मेरे रहते हो सके तो लोग इसे अपनी आखों से देख कृतार्थ हो जाये । बार – बार सोचता हूँ कि यह शरीर रहेगा कि नहीं , यदि ऐसा न हुआ तो पीछे पछताना पड़े , ऐसा सुनकर वशिष्ठ जी बोले , जिससे विमुख होकर लोग पछताते हैं या जिनकी भक्ति से विमुख होने से हृदय की जलन नहीं मिटती , वही श्री रामजी आपके पुत्र बने हैं तो चिन्ता क्या ?
अब विलम्ब न कीजिए , सब समाज को जमाकर किसी शुभ दिन को पाकर राम को युवराज घोषित कर दें । राजा खुश होकर अपने सचिव से मिले और राम को युवराज पद सौपने का प्रस्ताव रखा कि आप लोगों की राय हो तो राम को राज तिलक कर दें । इस प्रस्ताव को जगत की भलाई मान सचिव ने सराहा और राजा को तो ऐसा लगा जैसे कोइ लता किसी वृक्ष की शाखा का सहारा पाकर तेजी से बढ़तो हो । तब राजा ने कहा कि जो – जो आदेश मुनिराज का हो , उसकी शीघ्र तैयारी की जाय ।
हरषि मुनीस कहउ मृदु वाणी । आनहु सकल सुतीरथ पानी ।।
औषध मूल , फूल फल पाना । कहे नाम गनि मंगल नाना ।।
चामर चरम बसन बहु भाँति । रोम , पाट , पट अगनित जाति ।।
मनिगण मंगल वस्तु अनेका । जो जग जोगु भूप अभिषेका ।।
वेद विदित कहि सकल विधाना । कहेउ रचहु पुर विविध विताना ।।
सफल रसाल पूगफल केरा । रोपहु वीथिन्ह परहु चहुँ फेरा ।।
रचहु मंजु मनि चौके चारु । कहहुँ बनावन वेगि बजारु ।।
पूजहू गणपति गुरु कुलदेवा । सब विधि करहु भूमि सुर सेवा ।।
दो ० ध्वज पताक तोरन कलस सजहू तुरग रथ नाग ।
सिरधरि मुनिवर बचन सबु निज निज कामहि लाग ।।
सब लोग अपने अपने कार्य में जुटे थे । घर – घर में आनन्द छाया था । राम और सीता के सुन्दर अंग फड़क रहे थे , जो शुभ शगुण लगता था । लोगों ने विचारा कि राम के लिए भरत बड़े प्रिय है । उनके ही ममहर से आने की सूचना सम्भावित है । दिन रात राम को भरत की याद आती रहती है , जैसे कछुए को अपने अंडे से प्रेम रहता है ।
दो ० राम राज अभिषेक सुनि हिये हरषे नर नारि ।
लगे सुमंगल सजन सब विधि अनुकूल विचारि ।।
तब नर नाह वशिष्ठ बोलाए । राम धाम सिख देन पठाये ।।
गुरु आगमन सुनत रघुनाथा । द्वार आइ पद नायउ माथा ।।
सादर अरध देई घर आने । सोलह भाँति पूजि सनमाने ।।
गहे चरण सिय सहित बहोरि । बोले राम कमल कर जोरि ।।
सेवक सदन स्वामि आगमनु । मंगल मूल अमंगल दमनू ।।
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीति । पठइअ काज नाथ यह नीति ।।
प्रमुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू । भयउ पुनीत आजु यहु गेहू ।।
आयसु होई सो करौ गोसाई । सेवकु लहई स्वामी सेवकाई ।।
दो ० सुनि सनेह सानेबचन मुनि रघुवरहि प्रसंश ।
राम कस न तुअ कहहुँ अस हंस वंश अवतंस ।।
वरनि राम गुण सील सुमाउ । बोले प्रेम पलकि मुनि राउ ।।
भूप सजेउ अभिषेक समाजू । चाहत देन तुम्हहि युवराजू ।।
राम करहु सब संजम आजू । जौं विधि कुशल निवाहै काजू ।।
गुरु सिख देई राम पहि गयउ । राम हृदय अस विसमय भयउ ।।
जनमें एक संग सब भाई । भोजन शयन केलि लड़िकाई ।।
करन वेध उपवीत विआहा । संग – संग सब भये उछाहा ।।
विमल वंश यह अनुचित एकू । बन्धु विहाई बड़ेहि अभिषेकू ।।
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई । हरेउ भगत मन के कुटिलाई ।।
सभी लोग तो कहते थे कि कल कब सवेरा होगा कि हम लोगों का अरमान पूरा हो , क्योंकि कुचक्री विध्र मनाने में लग चुके हैं ।
किन्हहि सोहाई न अवध बधावा । चोरहि चंदिनी राति न भावा ।।
सादर बोलि विनय सब कही । बारहि बार पाय ल परही ।।
दो ० विपति हमारी विलोकि बडि , मातु करिअ सोई काजु ।
राम जाहि वन राजु तजि होई सकल सुर काज ।।
सुनि सुर विनय ठाढि पछितानी । भयउ सरोज विपिन हिमराती ।।
देखि देव पुनि कहहि निहोरी । मातु तोरि निहि थोरिउ खोरी ।।
विसमय हसष सहित रघुराउ । तुम्ह जानहु सब राम प्रभाउ ।।
जीव करम वस सुख दुख भागी । जाइउ अवध देवहित लागी ।।
बार – बार गहि चरण संकोची । चली विचारी विवुधमति पोची ।।
उँच निवास नीच करतुती । देखि न सकई पराई विभूति ।।
..किन्तु आगे का कार्य विचार कर कि रामजी के वन जाने से राक्षसों का बध होगा । संसार सुखी होगा , कविगण श्री रामजी के बनवास की लीलाओं का चित्रण करने के लिए मेरी चाह तो करेंगे , ऐसा विचार कर सरस्वती जी प्रसन्न हुयी और अयोध्या आयी । ऐसा लगा कि राजा दशरथ के परिवार पर कोई कठिन कष्ट कारक ग्रह दशा आ गयी हो ।
नाम मंथरा मंद मति चेरि कैकई केरि ।
अजस पेटारी ताहि करि गयी गिरा मति फेरि ।।
देवताओं का काम बनाने के उद्देश्य एवं जगत के कल्याणार्थ मंथरा के पास अपजश का पिटारी खोलकर सरस्वती अयोध्या के मंथरा की मति बलकर चली गयी ।
अब कुचाली कुबरी रातों राम काम विगाड़ने की ताक में लग गयी । वह भरत की माँ कैकेई के पास विलखती हुयी गयी । रानी हँसती हुई पूछी कि उदास क्यों हो ? लेकिन मंथरा कुछ बोल नहीं पाती । वह मात्र उसाँसे भरती है । वह नारि चरित्र दिखाती आँसू गिरा रही है । रानी फिर हँसी की मुद्रा में बोली कि तुम बहुत बकवादिनी हो । मेरा मन कहता है कि लक्ष्मण ने तुझे कुछ सिखा भेजा है फिर भी दासी कुछ नही बोलती , वह नागिन की तरह फुफकार छोड़ती है । जब भयभीत हो रानी ने राजा सहित चारों भाईयों का कुशल पूछी तो इन नामों के सुनते उसकी छातो जल उठी । आखिर मंथरा बोली- मुझे कितनी सीख कोई देगा । मैं किसके बल पर गाल बजाउँ । आज राम को छोड़कर किसका कुशल है जिसे राजा युवराज बना रहे हैं । कौशल्या के लिए तो ब्रह्मा दाहिने हो गये है । तुम्हारे पुत्र राज्य के बाहर है । इसकी तुम्हे चिन्ता नहीं । तुम तो जानती हो कि राजा हमारी ओर है तुम्हें तो सेज पर सुख से सोना भर ही प्यारा है । रानी ने कठोर शब्दों में कहा- अब चुप रह घरफोड़ी अगर फिर कुछ बोली तो जीभ निकलवा लूंगी । काली लंगड़ी और कुवड़ी को कुटिल और कुचाली मानना ही चाहिए . उसमें भी स्त्री और दासी को । ऐसा कहकर कैकेयी मुस्कुराती रही । फिर बोली देख मंथरा । तुम पर मेरा क्रोध नहीं । तुम प्रिय बातें ही कहती हो । जो कुछ मेंने कहा वह सब तुम्हें शिक्षा के रुप में , मेरा तो सचमुच वह दिन शु होगा जिस दिन राम युवराज होंगे ।
राम को स्वाभाविक रुप से सब माताएँ एक समान प्यारी है । मुझ पर तो विशेष रुप से स्नेह रखते है । मैंने तो उनके प्रेम की परीक्षा भी ले चुकी है । अगर किसी को विधाता पुत्र दें तो राम जैसा और बह सीता जैसी । श्री राम मेरे सबसे प्रिय है फिर उनके तिलक की बात सुनकर तुझे क्षोम कैसा ? मैं भरत की सौगन्ध खाकर कहती हूँ , अपने मन का कपट त्यागकर सच – सच बतला कि तू क्या कहना चाहती हैं । इस हर्ष के समय में विषाद कैसा ? इतना सुनकर बड़ी टेंढी बात कुवड़ी बोली – एक ही बार के कहने पर तो मेरी सारी आशाएँ पूरी हो गयी , अब दूसरी जीभ लगाकर क्या कहूँ ? यह मेरा सिर तो फूटने ही योग्य ह , तब तो भला कहने पर आपको बुरा लगता है । जो झूठी बातें बनाकर कहती है वह तुझे प्यारी लगती है और मेरी बात कडवी ।
इस प्रकार की बहुत सारी उल्टी – सीधी तर्क पूर्ण कथाएँ कह – कह कर कुवड़ी ने रानी कैकेयी को अपने विश्वास में ले आयी तब रानी अपनी अस्थिर बुद्धि वाली और देवताओं की माया से अपनी वैरिन की बातों में पड़कर अब वह जो कुछ कहती उसमें वह अपनाहित समझने लगी । वह तो यहाँ तक कह डाली कि आज अगर राम का राज तिलक हो गया तो समझ लेना कि विधाता ने तुम्हारे लिए विपत्ति का बीज बो दिया । उस दिन से तुम दूध की मख्खी हो जाओगी । यदि न तूने पुत्र सहित उसकी सेवा की तो घर में रह सकोगी अन्यथा कोई उपाय नहीं । लक्ष्मण राम संग हो लेंगे और भरत वंदीगृह में । अरे । मुझे तो कब से रात में स्वप्न दीखता था , लेकिन कह नहीं पाती थी । तब कैकेयी सहम गयी । क्या कहूँ सखि ! मेरा सरल स्वभाव है । जहाँ तक मेरा वश चला है मैने कभी किसी की बुराई नहीं की किन्तु न जाने आज किस पाप से विधाता ने दुसह दुःख दिया । मंथरा की बार – बार कुचक भरी वाणी से ककेयी को पूर्ण विश्वास दिलाती हयी अन्तिम बार कर दी । उसने रानी से कबूल करा ली , जैसे उसने कपट की छूरी अपने हृदय के कठोर पत्थर पर तेज कर ली । रानी को यह नहीं समझ में आया कि बलिदान का पशु कैसे हरी – हरी घास चरता हुआ अपनी भावी मृत्यु को नहीं समझ पाता । शायद तुम्हें याद नहीं जो बात एक बार मुझसे कही थी । राजा के पास जो तुमने थाती रख छोड़ी थी उसे मांगकर अपनी छाती ठंढ़ी कर लो । जब राजा राम की सपथ ले लें तब तुम अपनी मांग रखना ताकि वे बदल न सकें । आज की रात अगर खाली गयी तो सारा काम बिगड़ जायेगा । तुम कोप भवन चली जा और अपना काम बना ले । यह कुमंत्रणा कैकेयी को भली पसंद आयी । उसने मंथरा की भाँति – भाँति बड़ाइ की । कहा कि तूने मुझ बहती हुयी तेज धार से बचा लिया । दुर्योगवश अयोध्या के राज गृह में यह होकर रहा । वर्णन बड़ा दुखदायक है । राजा की बुद्धि पर मंथरा का कठोर वाण काम कर गया । राजा रातभर कोपगृह के फर्स पर वेसुध पड़े सवेरा की प्रतीक्षा में बितायें ।
अवधपति के भवन में आज का सवेरा काट खाने वाला था । मंगल के स्थान पर अमंगल का वातावरण छाया है । राजा को जगाने में बंदीजन विफल रहे । मंत्री तो जाकर देख स्वयं सुधि खो दिये । राजा ने राम का नाम लिया । उन्हें बुलाया गया । दृश्य बड़ा करुण था । पास खड़ी कैकेयी से राम ने कारण पूछा । राम तो धीर पुरुष है । वे सब कुछ ठीक समझे और वनबास की तैयारी शुरु कर दी । सारी अयोध्या दुख और शोक में डूब गयी । राम सुर काज को संवारने में जुड़े । आखिर होनी को सद ६ श्य से समझौता कैसे हो सकता । करुणा की भयावनी गभी में तड़पते पिता को छोड़ मुनिवेश में राम लक्ष्मण और सीता अयोध्या को भरत पर छोड अरण्य कानन को भवन बनाना स्वीकार किया । इस घटना का अनी कलम से प्रखर न बना पा रहा हूँ । भगवान सबके लिए कल्याणकारी है । ज्ञानी जन समझते है । भक्तगण उनपर ही भरोसा रखते हैं । किन्तु अयोध्या ! उसे तो कुछ और आगे सहना है । चौदह वर्ष का बनवास । भरत कैसे धैर्य धारण करेंगे ? कौशल पति का क्या होगा ? रनिवास इस घोर अन्धकार से कब निवट पायेगा ?