निश्चय की दिवार
निश्चय करें या प्रण , दोनों एक ही मन की उपज है । हमारी चेतना में भावना का महत्वपूर्ण स्थान है । महान पुरुष प्रण के दृढ़ होते थे । निहित भावों के सच्चे पालक होते थे । उनका यह भाव अहेतुकी होता था तो लक्ष्य शिखर को छू पाता था ।
हमारी जीवित काया पर माया छायी होती है । इन्द्रियाँ भोग भुनाने में तत्पर पायी जाती है । चेतन मन माया के उस जाल से मछलियाँ चुनना चाहता है । लेकिन मछलियाँ भी असंख्य है । मन तो आवारा है उस पर नियंत्रण न हो तो कही भी डूब जाये , जैसे दो वर्षों के अंदर बिना जल के ( जल की मात्रा कम होने पर भी ) युवा और किशोरों के डूबने के समाचार खूब छपते नजर आ रहे हैं ।
हमारी शिक्षा की उपयोगिता और ज्ञान की महानता डूबने में ही समझ में आती है कि पानी की गहराई उस मृत्यु का कारण है या बुद्धि और विवेक से हीन हमारी मनोकांक्षा । इन्द्रियों से उपर ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । उसके उपर निर्णायक की भूमिका में बुद्धि और विवेक । हमारे इस ज्ञानात्मक जीवन के विकासात्मक महल में असफलताओं का फलन कुंढा से दवा दिखता है , और हम आत्महत्या को उद्यत हो रहे ?
निश्चय एक ही हो , जो व्यापक हो ( आँल परवेडिंग ) जो सभी योजनाओं को सकारात्मक रुप से प्रभावित करे । उसमें अर्थ एवं हेतु को न जोड़कर कल्याण मार्ग पर खड़ा किया जाय । जैसे – सत्य और अहिंसा । … लेकिन हमारे निश्चय में हेत्विक और आर्थिक दीवारें ही लक्षित हैं । मन को बहाव नहीं बुद्धि और विवेक से नियंत्रित अवश्य पाये ।
हम लाचार पड़ रहे इस वैश्विक सोच में , क्योंकि हम अपने परिवेश को ही विकसित आयाम देने में पिछड़ रहे । आपको सुनने में थोड़ा – बुरा लगेगा कि हमारा विकास इसलिए थोथा है कि विसमताएँ हमें घेर रखी है और हम मदद को अनुदान बना डाले जिसका अर्थ भ्रष्टाचार के रुप में प्रकट होता रहा ।
हमारी नीतियाँ अगर सफल होती गयी तो हमें बार – बार सुधार की बातें , और आयोग गठित करने की जरुरत पड़ती रही तो राष्ट्र के नीतिगत दोष को भूल मानना और समझौता कर राष्ट्र की कमजोड़ दशा को सहन करते जाना आर्थिक दुरुपयोग है या नही , इसका जिम्मेदार कौन होगा ?
कभी देश मुड़कर तो नहीं देखा । तंत्र राजतंत्र हो या प्रजातंत्र , समवैधानिक प्रक्रिया में व्यवस्था का विधान है । अगर इमान और कर्त्तव्य निष्ठा में खोट न हो तो नियंत्रणत्मक व्यवस्था की क्या जरुरत ? लेकिन उसके होते हुए भी अनियमितताओं पर घनेरों शिकायते न्यायालय में कार्यालयों में पहुँचती है । आवश्यकता है जनता में जागरुकता के साथ नैतिकता और उससे अधिक कर्त्तव्य बोध अपनाने , जिम्मेदारी निभाने की । बड़प्पन के मूल मंत्र ये ही हैं ।
अबतक ऐसा नहीं पाया गया था कि पूरे विश्व में कोरोना जैसा व्यापक संक्रामक ( पॅडेमिक ) फैला हो । तो यह भी आशा नही की जाती थी कि विश्व एक सिरे से अस्वीकार कर देगी कि न इलाज की मेडिसीन है न बचाव के लिए वैक्सिन । प्रासंगिक है एक कथा – जनक पुरी के राजा सीता स्वयंवर के अवसर पर कह बैठे ” धरती वीरों से खाली है । लक्षमणजी को अच्छा न लगा । यह भाषा जल्दीबाजी की थी । ध्यान दिया गया तो समाधान भी मिला ।
मैं बहुत आग्रहशील हूँ अपने देश में कोरोना के निदान के विधान खोजने के संबंध में होमियोपैथी के हिप्पोजेनियम पर प्रयोगात्मक जाँच किये जाने हेतु प्रयास का । देश विदेश की व्यवस्था अपने लक्ष्य पर थमती नजर आ रही लेकिन कोरोना नहीं । होमियोपैथी को खड़ा होना चाहिए विश्व हित में । अब यह आग्रह है विश्व स्तर पर ।
L.H.M.I ( Liga Homoeopathica Medicorum Internationalis ) भारतीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से । ऐसे संस्थानों के लिए यही अवसर है आजमाने का । और भारत सरकार या उनके राज्यों के संचालकों को भी अगर आगे बढ़ना है तो संकल्पों – वादों से ज्यादा अपनी – अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी पर आयें । घोषणा भर नहीं , जमीन पर जाकर झांकें । इतना मात्र संतोषप्रद नहीं कि विभागों को निर्देश मात्र देकर अपने को संतुष्ट कर लें । जनता की ज्यादा सुने । इसी लिए जनतंत्र धरती पर उतरा । आज उसकी शिकायत हो रही ।
कहने सुनने की बहुतेरी बातें हैं ।
अपने सात नहीं , सारे निश्चयों पर नजर रखें , एवं विचार हृदय से , कि जनता आपके र्कीतीमानों से कितनी संतुष्ट है । निश्चय की दीवार पर जो छत ढले उसकी छाया सुखद हो । यह भी सोंचे कि कोरोना कितना आपसे लिया , आपने उसे कितना चुकाया और अब क्या शेष है ।
( लेखक )
डा ० जी ० भक्त