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प्रभाग-25 पंचम सोपान सुन्दरकाण्ड रामचरितमानस

 समुद्र लांघ कर लंका जाने के संबंध में श्री जामवन्त जी द्वारा ढ़ादस दिलाना बहुत अच्छा लगा । उसे सुनकर हनुमान बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने कहा – भाई , जब तक मैं सीता का पता पाकर नहीं लौटता तुम कन्द मूल खाकर दुख सहकर भी मेरी राह देखते रहना । मेरे हृदय में बहुत उत्साह दिख रहा है । कार्य अवश्य होना चाहिए । सबों को सिर नवाकर हृदय में रामचन्द्र जी को धारण कर चल दिये । समुद्र के किनारे सुन्दर पहाड़ था । बड़ी आसानी से हनुमान जी कूद कर उस पर चढ़ गये । बार – बार श्री रामचन्द्र जी का नाम लेकर उछले । जिन – जिन पहाड़ों पर उनके पाँव पड़ते , वे पाताल में धस जाते थ । जैसे राम जी का वाण चलता है उतने ही वेग से हनुमान जी भी चले । समुद्र देवता ने उन्हें रामजी का दूत समझ कर नाक पर्वत से उनके आराम करने हेतु स्थान देने को कहा । उन्होंने उस पहाड़ को हाथ से छूते हुए कहाकि प्रभु का काम किये बिना आराम करने की बात कहाँ ?
 हनुमान जी को जाते हुए देवताओं ने देखकर उनके बल और बुद्धि की परीक्षा लेनी चाही । उन्होंने सर्प की माता सुरसा को भेजा । उसने आकर हनुमान जी से कहा- आज देवताओं ने मुझे भोजन भेजा है । ऐसा सुनकर पवन कुमार बोले- आज मुझे रामजी का कार्य करके लौटने दो , फिर उन्हें सीता जी की खबर सुनाने दो तब मैं आकर तुम्हारे शरीर में प्रवेश कर जाउंगा । ऐ माँ , मुझे जाने दे । मैं तुमसे सत्य कहता हूँ । जब किसी भी प्रकार से सुरसा उन्हें नहीं जाने दी , तब बोले तो मुझे खा न जाओ । उसने अपना मुँह चार कोस फैलाया तो हनुमान जी अपना आकार दुगुणा कर लिए । तब वह अपने को सोलह जोजन बना ली , तो हनुमान जी बत्तीस हो गये । जैसे – जैसे सुरसा अपने आकार का विस्तार करती रही , हनुमत उसके दूने बढ़ते रहे । जब सुरसा सौ जोजन पर पहुँची तो झट पवनपुत्र अति सूक्ष्म मच्छर जैसा बनकर भीतर जाकर बाहर निकाल गये और सिर झुका कर विदा मांगी । सुरक्षा ने कहा- मुझे देवताओं ने जिस काम के लिए भेजा था , मैं तुम्हारे बल बुद्धि का अनुमान लगा लिया । आशीष देती हूँ तुम जाकर अपना काम करो । हनुमान जी प्रसन्न होकर आगे चले ।
 अब आगे का वृत्तांत सुनिये । उस समुद्र में एक ऐसा जीव निवास करता था , वह अपनी माया के बल पर आकाश में उड़ते पक्षी की छाया जो पानी में दिखती थी , उस छाया को ही , पकड़ लेत हो उड़कर जा नही सकती थो , उसी प्रकार नित दिन वह अपना भोजन चलाती थी । हनुमान जी के साथ भी वह वही किया । वे उसका छल शीघ्र समझ गये । उसे जान से मारकर हनुमान जी सागर पार चले गये । वहाँ पर एक सुन्दर वन देखा । उसमें विविध प्रकार के फल वृक्षों में फले थे । वहीं पर एक पहाड़ भी था । वे फल खाकर उस पर्वत पर जा चढ़े ।
 भगवान शंकर जी कहते है कि उसमें हनुमान जी का कुछ भी बड़प्पन नही । श्रीराम जी की ऐसी माया है जो काल को भी खा जाती है । पर्वत बहुत उँचा है । उसके चारो ओर समुद्र है । पर्वत पर चढ़कर पूरी लंका देखी जा सकती है । सोने का सुन्दर महल अपना प्रकाश फैला रहा है । लंका की विचित्र शोभा और उसके निर्माण की कला भी विचित्र है । वन , बाग , तालाब , विशाल महल और सबके सामने रक्षक रुप में राक्षसों की अपार सेना देख हनुमान जी ने सूक्ष्म रुप धारण कर महल में प्रवेश किये । वहाँ लंकिनी नामको एक राक्षसी मिली , उसने कहा – मेरा निरादर कर क्यों बढ़े जा रहे हो ? इस नगर में जितने चोर घुसते हैं मैं उनको मार कर खा जाती हूँ । हनुमान जी ने एक घूस्से का प्रहार किया कि वह खून उगलती हुयी पृथ्वी पर दनमना कर गिर गयी । वह सम्हलकर उठ खड़ी हुयी तो भयभीत होकर कर जोड़कर उसने विनती करने लगी । बोली जब ब्रह्माजी रावण को वरदान देकर लौट रहे थे तो उन्होंने कहा कि जब बानर के मारने से तुम व्याकुल हो जाओगी तब जान लेना कि अब राक्षस कुल का नाश होने वाला है । ह तात , मै बहुत पुण्यवती हूँ कि रामजी के भक्त के दर्शन हुए । स्वर्ग और मोक्ष के सुखों को एक ओर तराजू पर रखा जाये और दूसरे पलड़े पर सत्संग को तो सत्संग का पलड़ा भारी होता ह । आप अवधपति राम को हृदय में धारण कर नगर में प्रवेश कर अपना कार्य कीजिए । उनके प्रभाव से विष भी अमृत हो जाता है । शत्रु मित्र और विशाल समुद्र गौ के खुर से छोटा और आग शीतल हो जाती है । फिर कागजी गरुड़ जी से कहते है कि सुमेरु पर्वत भी राम भक्त के लिए धूल के समान हो जाता है फिर हनुमान जी अति लघु रुप धारण कर भीतर प्रवेश किये । एक – एक घर में जाकर देखा । सब में अनगिनत असुर वीर भरे थ । रावण के महल में गये जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता , उसमें वह अकेले सोया हुआ था । वहाँ सीता को नहीं पाये ।
 वहीं पर एक अन्य मकान दिखाई पड़ा जहाँ भगवान का एक दूसरा मंदिर भी बना हुआ था । वहाँ पर रामजी के धनुष का चिन्ह अंकित था और एक तुलसी का पौधा भी । हनुमान जी विचार करने लगे कि लंका में तो पूरा का पूरा राक्षस ही भरा पड़ा है फिर यहाँ सज्जन का बसना कैसे सम्भव है । इसी बीच विभीषण जी की नीन्द टूटी । वह राम नाम का स्मरण किय । हनुमान जी ने उन्हें एक सज्जन समझ विचारा कि इन से अगर परिचय किया जाय तो कोई हानि नहीं होनी चाहिए । उन्होंने ब्राह्मण का रुप धारण कर अपना कुछ कहा विभीषण बाहर आकर मिले । प्रणाम कर कुशलता पूछी । क्या आप हरि भक्तों में से हैं । मेरे मन में अत्यन्त प्रेम उभड़ रहा है । क्या आप दीनों पर प्रेम करने वाले स्वयं श्री राम जी हैं जो घर बैठे अपना दर्शन देकर बड़भागी बनाने आये हैं ? उनकी बातें सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुयी । सारी राम कथा और अपना नाम भी बतलाये । दोनों के मन प्रसन्नता से फूल उठे । विभीषण जी अपने संबंध में बतलाये कि मेरी दशा यहाँ पर वैसी है जैसे बतीस दाँतों के बीच जीभ की होती है । हे तात ! मुझ अनाथ पर क्या कभी सूर्य कुल के नाथ कृपा करेंगे ? मेरा तामसी शरीर , कोई साधन नहीं , मेरे मन में उनके चरणों में भक्ति नहीं , लेकिन अब तो इतना भरोसा हो गया कि बिना प्रभु की कृपा के कोई सन्त नही मिलते । अवश्य ही मुझ पर उनकी कृपा है । आपको तो उन्होंने मेरे पास नही भेजा था , किन्तु आपने अपने ही मन से मुझ पर कृपा की ह । यह उनके ही अनुग्रह से हुआ है । हनुमान जी ने भी कहा उस भगवान की यही रीति है कि वे सदा अपने सेवकों पर कृपा रखते हैं ।
 आप ही बताइए , मैं कहाँ किसी अच्छे कुल का हूँ । बंदर तो चंचल और हर प्रकार से कमजोर होता है । जो सुबह में मेरा नाम लेता है उसे उस दिन भोजन तक नहीं मिल पाता । ऐसा पापी मै हूँ । हे सखा ! मुझ पर रघुनाथ जी ने कृपा की है । उनका गुण स्मरण करते हुए उनके नेत्र आँसू से भर गये । जो जानकर भी रामचन्द्र जी जैसे स्वामी को भुलाकर अन्य विषयों के पीछे पड़े रहते है , वे क्यों नही दुखी रहेंगे ? फिर विभीषण जी ने सीता के लंका में रहने से संबंधित वृत्तांत बतलाये । तब हनुमान जी ने सीता को देखने की जिज्ञासा जतायी । विभीषण जी ने सारी युक्ति बतला दी तब वे अपने रुप ( मच्छर ) में आकर सीता जी के ठहरने के स्थान पर गये ।
 अशोक वाटिका में पहुँचकर एक डाली पर बैठकर सीता को बैठे देख पहले मन ही मन प्रणाम किये । सीता जी को बैठे – बैठे रात के चारो पहर बीत जाते हैं । शरीर दुबला हो चुका है । सिर पर जटाओं की एक वेणी है । हृदय मे रामजी के गुण समूहों का स्मरण करती रहती है । वह अपनी आँखों को नीचे चरणों में लगाये हुए नीचे देख रही है । जानकी जी की उस दशा को देख हनुमान बहुत दुखी हुए । पेड़ के पत्तों के बीच छिपे हुए सोच रहे हैं कि क्या किया जाय । उसी समय रावण बहुत – सी सजी – धजी स्त्रियों के साथ आया और वह दुष्ट बहुत प्रकार से साम , दाम , दण्ड और भेद आदि के माध्यम से धमकाया , दिखाया और कहा- हे सुमुखि , सुनों मेरा प्रण है कि मंदोदरी आदि सब रानियों को तुम्हारी दासी बना दूंगा । जरा एक बार मेरी ओर तो देखो । सीता जी भगवान का स्मरण कर अपने को तिनके की ओट से बोली – हे दशमुखः सुन , जुगनू के प्रकाश से कभी कुनुदिनी नहीं खिल सकती । तुम अपने मन में भी यही सोच लो । रे अधम ! तुमने रघुवीर जी के वाण बारे में नही जाना ? तूने मुझे सूने स्थान से हरण कर लाया , तुझे लज्जा नही आती ?
 सीता जी द्वारा अपने बारे मे जुगनू और राम को सूर्य की संज्ञा सुनकर तथा अन्य कठोर शब्दों से क्रोधित हो तलवार निकाल कर बोला सीता , तूने मेरा बड़ा अपमान किया । मैं तुम्हारा सिर इसी कठोर तलवार से काट डालूँगा । या तो मेरी बात मान लो , नही तो तुम्हारी बड़ी हानि होगी । जीवन से हाथ धोना पड़ेगा । तब सीताजी बोली हे दशग्रीव ! प्रभु श्रीराम जी की भुजा या तो मेरे गले में पड़ेगी या तेरी तलवार ही । रे सठ , सुन , यही मेरा सच्चा प्रण है ।
 सीता जी कहती है- हे चन्द्रहास , श्री रघुनाथ जी के विरह की अग्नि से उत्पन्न मरे हृदय की अग्नि को तू हर ले । हे तलवार ! तू शीतल , तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है । तू मेरे दुख के बोझ को हर लो । सीता जी की यह वाणी सुनकर वह फिर मारने दौड़ा किन्तु मंदोदरी ने नीति की बात कही । तब सभी राक्षसियों को बुलाकर कहा कि जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय दिखलाओ । अगर एक महीना के अन्तर्गत मेरी बात न मानी तो मैं उसे मार डालूँगा । ऐसा कहकर रावण अपने घर चला गया और यहाँ पर राक्षसनियों का झुण्ड सोता को बुरी तरह का रुप धारण कर भयभीत करने लगी । उन सबों के बीच एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी जो राम भक्त थी । उसने सभी को बुलाकर अपने स्वप्न की बात कह सबसे सीता की सेवा कर अपना कल्याण करने का सुझाव दी । त्रिजटा बोली मैंने स्वप्न में देखा कि वानर आकर लंका को जला डाला है । राक्षसों की सेना को मार डाला । रावण गदहे पर नंगा चढ़ा हुआ है । सिर और बाँह कट चुके हैं । इस प्रकार वह दक्षिण दिशा ( यमपुरी ) की ओर जा रहा था । मानों लंका विभीषण को मिल गया । मैं यह सपना सुनकर कहती हूँ , दो चार दिनों में ही यह पूरा होने वाला है । ऐसा सुनकर सब राक्षसियाँ सीता के पैरों पर भयभीत होकर गिर पड़ी । फिर वह जहाँ – तहाँ चली गयी । तब सीता मन ही मन सोच रही है कि महीना लगते हो मुझे राक्षस मार ही डालेंगे । वह त्रिजटा से बोली कि हे माता । तू ही मेरी विपत्ति का साथी हों । ऐसा उपाय करो कि जल्दी मैं देह त्याग सकूँ क्योंकि अब मुझे दुसह वेदना सही नहीं जाती । लकड़ी जुटाकर मेरी चिता सजाओ । और हे माता , उसमें आग लगाओं । तू मेरी प्रीति को सत्य कर दो । मुझे रावण की कष्ट देने वाली वाणी नहीं सुनी जाती ।
 सीता जी का पॉव पकड़ कर त्रिजटा बहुत समझायी और राम जी के बल और सुयश की प्रसंशा करने लगी । हे राजकुमारी , इस रात्रि में मै आग कहाँ से लाउँ । ऐसा कह त्रिजटा चलो गयी । सीता जी बहुत प्रकार से विलाप करन लगी । मन ही मन वह कह रही कि क्या करूँ , विधाता ही विपरीत हैं । न आग मिलेगी न पीड़ा मिटेगी । आकाश में तो अंगारे दिख रहे हैं किन्तु पृथ्वी पर भी तारा नहीं गिरता । चन्द्रमा भी आग के समान है । वह भी आग नहीं देता , शायद वह मुझे अभागी समझ रहा है । इस अशोक के वृक्ष का नया पता भी तो मेरे लिए आग के ही समान है । सीता को विरह से व्याकुल देखते हनुमान जी को कल्प के समान लगा । उन्होंने उचित समय पहचान कर शीघ्र उपर से रामजी की दी गयी मुद्रिका नीचे गिरा डाली , तब सीता जी को लगा कि सचमुच अशोक का वृक्ष आग । सीता जी ने हर्ष पूर्वक उसे उठा लिया तो उन्हें दिखा कि यह सुन्दर अंगूठी जिस पर राम नाम लिखा है , सीताजी को एक ही साथ खुशी और दुख दोनों ही ने व्याकुल कर रखा । तब हनुमान जी रामजी के गुणों का वर्णन करने लगे । जिससे सीताजी का दुख घटने लगा । उसे सुनने लगी । शुरु से अब तक की कथा कह डाले । अमृत भरी सारी कथा सुनकर सीता जी बोलीं- कि जो इस तरह से मुझे समझा रहा है वह सामने क्यों नही आता , ऐसा विचार कर रही । तब हनुमान प्रकट हुए । सीता जी मुँह फेर कर बैठ गयी । उन्हें आश्चर्य हुआ । हनुमान जी बोले- हे माता ! मैं सत्य कहता हूँ । रामजी का दूत हूँ । यह अंगूठी मैंने ही लायी है । रामजी ने उसे आपको पहचान के रुप में भेजा है । फिर सीता जी ने अपने संदेह मिटाने के लिए पूछा कि नर और वानर की मित्रता कैसे हुयी ? उन्होंने सब कुछ कह सुनाया । सीताजी को विश्वास हो गया कि मन , कर्म और वचन से हनुमान रामजी के दास है । भगवान का दास ( सेवक ) जानकर ही इतनी गाढ़ी प्रीति हो गयी । विरह के सागर में हनुमान सीताजी के लिए जलयान बने । तब उन्होंने हनुमान जी से पूछा कि भाई लक्ष्मण सहित प्रभु का कुशल कहो । जब राम कोमल कृपा के सागर है तो फिर मेरे पति कठोर कैसे हो गय । जब सेबकों के प्रति उनका प्रेम भाव , उनका स्वभाव है तो कभी भी मेरा ख्याल तो करते ? हे तात ! क्या कभी उनके श्यामल डाला हृदय वाले शरीर को देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे । मुँह से बोली नही निकल रही । आँखों में आँसू भरे थे । गम्भीर दुख दी ? विरह व्याकुल सीता को देखकर हनुमान जी ने कोमल शब्दों में कहा- हे माते ! रामजी दोनों भाई सकुशलतो हैं किन्तु आपके दुख से दुखी हैं । आप मन में ग्लानि न मानिए उनके मन में आपसे दूना प्रेम है । हे माता ! अब धीरज धर कर प्रभु का सन्देश सुन लीजिए । श्री रामचन्द्र जी ने कहा है कि हे सीते ! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ विपरीत हो गये हैं । वृक्षों के नये – नये पत्ते मानो आग के समान , कमलों के वन भालों के वन जैसे , मेघ मानो खौलते तेल जैसे वर्ष करते हैं । जो हितकारी थे वे ही पीड़ा दायक बने हैं । शीतल , मंद , सुगन्ध युक्त वायु साँप के फुत्कार की भाँति जगरीले हो रहे हैं । मन का दुख कह देने से भी कुछ घट जाता है , पर कहूँ किससे । कोई तो इसे जानता नहीं । तेरे और मेरे प्रेम का रहस्य तो एक मेरा ही मन जानता है और वह मन तो तेरे ही पास रहता है । अब तुम मेरे प्रेम का सार इतना ही समझलो । इतना सुनते ही सीता जी प्रेम में मग्न हो गयी । उन्होंने शरीर की सुधि खो दी । हनुमान जी ने धैर्य धारण करने को कहा । सेवकों के सुखदायक भगवान के नाम स्मरण कर उनकी हृदय में लाइए । राक्षसों के समूह पतंगों की तरह और रामजी क वाण अग्नि के समान हैं , वे उन्हें जला देंगे । अगर उन्हें आपकी खबर मिल गयी होती तो वे इसमें विलंब न करते । हे माता ! चाहूँ तो मैं आपको यहाँ से ले जाउँ किन्तु , मुझे उनकी आज्ञा नहीं हैं । कुद दिन और धीरज रखें । श्री राम जी यहाँ वानरों सहित आवेंगे और राक्षसों को मारकर आपको ले जायेंगे । सीता जी ने पूछा क्या सभी वानर तुम्हारे ही समान छोटे – छोटे होंगे ? यहाँ तो राक्षस बड़े बलवान योद्धा है , मुझे संदेह होता है कि वानर उन राक्षसों को कैसे मार पायेंगे । इतना सुनते हनुमान जी ने अपना विशाल शरीर प्रकट किया जो सोने के पहाड़ सा अत्यन्त विशाल जो शत्रुओं के हृदय में भय करने वाला था । तब सीता जी के मन में विश्वास हुआ । हनुमान जी ने अपना रुप छोटा कर लिया ।
 दो ० सुनु माता साखामृग , नहि बल बुद्धि विशाल ।
 प्रभु प्रताप से जानतहि खाई परम लघु व्याल ।।
 

 प्रभुता को प्रभु प्रताप से कमजोर भी बलवान को मार सकता है ।

 मन संतोष सुनत कपिवानी । भगति प्रताप तेज बल मानी ।।
 आसीष दीन्ह राम प्रिय जाना । होहु तात बल शील निधाना ।।
 
 अजर अमर गुण निधि सुत होहु । करहु बहुत रधुनायक छोहू ।।
 करहु कृपा अस सुनि प्रभु काना । निर्भर प्रेम मगन हनुमान ।।
 
 बार – बार नायदि पद सीसा । बोला वचन जोरिकर वीसा ।।
 अब कृत – कृत्य भयउ मै माता । आशीष तब अमोध विख्याता ।।
 
 सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा । लागि देखि सुन्दर फल रुखा ।।
 सुनु सुत सरहि विपिन रखवारी । परम सुभट रजनीचर भारी ।।
 
तिन्हकर भय माता मोहिनाही , जौ तुम्ह सुख मानहु मन माही ।।
 
 दो ० देखि बुद्धि बल निपुण कपि , कहेउ जानकी जाहु ।
 रघुपति चरण हृदय धरि तात मधुर फल खाहु ।।

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