प्रभाग-35 राम राज्य की महिमा, सप्तम सोपान, उत्तर काण्ड, रामचरितमानस
जब रघुकुल भूषण राम जी चौदह वर्ष के बनवास और लंका विजय के बाद अयोध्या के राजा बन बैठे तो तीनों लोकों से शोक समाप्त हो गया और सभी हर्षित हुए। कोई किसी से वैर भाव नहीं रखता था। ऐसी समानता भगवान राम के प्रताप से ही सम्भव हुआ।
चारों वर्णाश्रम के लोग अपने अपने धर्म में जुटे थे। इससे उन्होंने सुख पाया न कभी शौक प्रभावित किया न रोग हीं दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों प्रकार के ताप रामचन्द्र जी के राज्य में किसी को नहीं व्यापा। सभी आपस में प्रेम निर्वाह करते थे और वेद शास्त्र के बताये मार्ग पर चला करते थे। धर्म अपने चारों चरणों, सत्य, शोच, दया और दान से सम्पूर्ण जगत परिपूर्ण रहा। कभी पाप स्वप्न में भी देखने को नहीं मिलता। पुरूष, स्त्री सभी धर्म परायण रहे और सभी मोक्ष के अधिकारी हुए। नहीं किसी की अल्प काल में मृत्यु हुयी न कोई कष्ट ही सभी सुन्दर और नीरोग पाये गये। न कोई दरिद्र था न दुखी न गरीब ही न कोई बुद्धिहीन था न शुभ लक्षणों में कभी ही पायी गयी। सभी निरहंकारी थे। धर्मात्मा और पुण्यवान भी सभी नर नारी चतुर और गुणवान थे। सभी गुणों के ज्ञाता, पंडित और ज्ञानी थे। सभी किसी के कर्म के प्रति कृतज्ञ होते थे। न कोई कपट रखता था न किसी को धोरवाही देता था। काक भुशुण्डि जी कहते है कि हे गरूड़ जी, सुनिये, उस चराचर जगत में काल, कर्म, स्वभाव और गुण से उत्पन्न किसी भी दुख के बन्धन में नहीं रहा। सात समुद्रों की मेखला पहनी उस धरती पर एक ही ऐसे अयोध्याके राजा राम हैं जिन के एक-एक रोम में अनेको ब्रह्माण्ड है। उनके लिए सात द्वीपों की प्रभुता कोई बड़ी बात नहीं, बल्कि भगवान की उस महिमा को समझने पर कहने में उनकी बड़ी हीनता होती है फिर भी जो उसे जानते है वे भी तो उनकी उस लीला में प्रेम रखते हैं। आखिर उस महिमा को जानना भी उन लीलाओं का ही फल हैं। ऐसा तो अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाले मुनि ही मानते हैं। राम राज्य की सुख सम्पदा का वर्णन शेष नाग और सरस्वती जी भी नहीं कर पाते। सभी नर-नारी उदार है। सभी परोपकारी हैं सभी ब्राह्मणों को सेवक है। स्त्रियाँ भी मन, कर्म और वचन से पति के लिए हितकारी होती है।
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज ।
जीतहि मनहि सुनिय अस राम राम चन्द्र के राज ।।
जहाँ तक दंड देने और भेद मानने की बात है वह सन्यासियों, नाचने वालों और उनके साथ गाने वालों तक ही सीमित है। जीतने का तात्पर्य अपने मन को ही जीतना हैं।
ऐसा इसलिए कहा जाता है कि राम राज्य में न अपराध है न कोई किसी का शत्रु है। इसलिए दण्ड देने का प्रश्न नहीं उठता। यहाँ भले बुरे का भेद भी नही, शत्रु नहीं होने से जीत का कोई अर्थ ही नहीं निकलता। इसलिए ये शब्द अर्थ हीन हो गये। अगर उन्हें मानें, तो दण्ड का अर्थ होगा सन्यासियों के हाथ में रहने वाला दंडा और भेद वाद्य यंत्र से निकलने वाले सुर और लय तथा नर्तकों का उसमें तालका मिलान सम्बन्धी भेद। इसी प्रकार जीत का अर्थ मन को अपने वश में करना ही होगा। यहाँ उनका अभिप्राय यही रह गया है। तुलसी दास जीने बड़ी ही सूक्ष्मता से उस तथ्य को समझया है।
चन्द्रमा अपनी अमृत गयी किरणों से पूर्ण कर रखी है। सूर्य उतने ही तपते हैं जितनी आवश्यकता है। मेघ वही पर और उतनी ही वर्षा करते हैं जितनी जहाँ जरूरत होती है।
शोभा की खान, सुशील और विनम्र सीता सदा पति के ही अनुकूल चलती है। ये श्री रामजी की प्रभुता को जानती और समझती है। उनकी सेवा वह मन लगाकर करती है। यद्यपि घर में अनेको सेवक और दास दासियाँ हैं फिर भी उनकुशल सेवकिनियों के रहते घर का सब कार्य अपने ही हाथों से करती है कौशल्या तथा अन्य सासुओं की एक ही समान सेवा करती हैं। मन में मद और मान नहीं रखती। वे वैसा ही करती हैं जो श्री राम जी को भी पसन्द हो क्योंकि वह गृह चरित्र को अच्छी तरह जानती है।
सीता जी तो जगदम्वा हैं शिवजी कहते है वह ब्रहा और शिवजी के द्वारा वंदित तथा सदा ही अनिन्दित रही हैं।
दो० जासु कृपा कटाक्ष सुर चाहत चितव न सोई ।
राम पदारविन्द रति करती सुमावहि खोई।।
देवता जिन सीता जी का कृपा कटाक्ष चाहते हैं, वे उनकी ओर ताकती भी नहीं। वह सदा राम जी के चरण कमलों में रत रहकर अपनी उत्तमता का ख्याल न रखकर स्वाभाविक प्रेम रखती है।
सब भाई उनके ही अनुकूल रहा करते हैं। राम चन्द्र जी के प्रति उनका प्रेम अधिक होता है। हमेशा उनकी दृष्टि राम जी की ओर ही रहती है कि कहीं कुछ आज्ञा हो तो शीघ्र पूर्ण करूँ। जो बैद्धिक ज्ञान काभी और इन्द्रियों से परे एवं अजन्मा है, माया, मन और गुणों से भी पटे है वही
सच्चिदानन्द धन भगवान नर लीला करते हैं।
सुबह में सरयु नदी में स्नान कर द्विज मंडली के सत्संग मे बैठ जाते है, वशिष्ठ मुनि का आख्यान
सुनते है जबकी वे सबके ज्ञाता है।
नारद सनक आदि मुनियों का राम के दर्शनार्य प्रतिदिन आना जाना लगा रहता है। उस दिव्य अयोध्या नगरी को देखकर वे अपना वैराग्य भी मूल जाते हैं।
दो० राम नाथ जहँ राजा सोपुर बरनि कि जाई ।
अनिभादिक सुख सम्पदा रहि अवध सब छाइ ।।
जहँ तहँ नर रघुपति गुण गावहि।बैठि परस्पर इहइ सिरवावही ।।
भजहु प्रणतप्रतिपालक रामहि ।शोभा शील रूप गुन धामहि ।।
जलज विलोचन श्यामल गातहि । पलक नयन इव सेबक तातहि ।।धृत सर रूचिर चाप तूनीर हि। संत कंज वन रवि रण धीर हि।।
काल कराल व्याल खगराजहि । नमत राम अकाम ममता जहि ।।
लोभ मोह मृगजुथ किरात हि। मनसिज करि हरि सुख दात हि ।।
सयम शोक निविड़तन भानूहि ।दनुज गहन वन दहन कृसानुहि।।
जनकसुता समेत रघुवरहि । कस नमजहु मंजनभव भीरहि ।।
बहु वासना मसक हिमरासिहि।सदा एकरस अज अविनासिहि ।।
मुनिरंजन भजन महिमारहि ।तुलसी दास के प्रभु हि उदारहि ।।
दो० एहिविधि नगर नारि नर कहहि राम गुण गान।
सानुकूल सब पर रहहि सतत कृपा निधान ।।
काल भुशुण्डि जी कहते है कि जब से राम प्रताप रूपी अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य का उदय हुआ तब से तीनों लोकों में प्रकाश भर गया उससे बहुतों को सुख तो बहुतों के मन में शोक भी हुआ।
अब सुनिये कि जिन्हें शोक हुआ, वे कौन है ? प्रथम तो अविद्या रूपी अन्धकार (रात्रि) नष्ट हुयी। पाप रूपी उल्लू जहाँ-तहाँ छिप गये। काम क्रोध रूपी कुमुद मुद गये (मुरझा गये।
भाँति-भाँति के कर्म, गुण, स्वभाव और काल जो मनुष्य को बन्धन में डालते है ये इस सूर्य के प्रकाश में सुखी नहीं रहते, मत्सर, मान, मोह और मद सभी चोर है उनकी कला भी इस प्रकाश में काम नहीं कर पाती।
धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना। ये पकज विकसे विधि नाना ।।
सुख संतोष विराग विवेका ब्रिगत शोक एकते ऐका ।।
दो० यह प्रताप रवि जा के उर जब करई प्रकाश ।
पछिले बाढई प्रथम जे कहे ते पावई नाश।।
जब भाइयों सहित राम चन्द्र जी प्रिय हनुमान जी को साथ लेकर बागीचा देखने गये, वहाँ के सब वृक्ष फूले हुए और नये पत्तों से युक्त थे। सुअबसर पाकर सनक आदि मुनि आये जो तेज के पुंज, सुन्दर शील और गुण से युक्त ब्रहानन्द में लीन रहते हैं. देखने में बालक जैसे लगते हैं किन्तु उनकी उम्र अधिक है ये ऐसे लगते थे जैसे चारों वेद अपना रूप धारण कर लिए हो ये मुनि समदर्शी और भेद रहित है। दिशाएँ ही उनके वस्त्र हैं तथा एक ही व्यसन है कि जब राम चरित्र की कथा होती है वहाँ जाकर वे अवश्य सुनते हैं।
शिव जी कहते है कि हे भवानी जहाँ मुनि श्रेष्ठ अगस्त जी रहते थे वहीं से आकर ये मुनि लौट रहे थे। वहाँ पर रामजी की बहुत सी कथाएं सुनी थी जो ज्ञान देने में समर्थ थी। उन ऋषियों को आते देख रामजी ने खुश होकर दडवत किया और कुशल पूछकर उनके बैठने के लिए अपना पिताम्बर विछा दिया। हाथ पकड़ कर भगवान ने उन मुनियों को बैठाया और प्रेम यूर्वक कहा हे मुनिवरों आज मै धन्य है आपके दर्शनों से जिनसे सारे पाप नष्ट हो जाते है, भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है जिससे बिना परिश्रम किये ही मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है।
संतो की संगति मोक्ष यानी भव बन्धन के टूटने का तथा कामी जनों का संग, जन्म-मृत्यु के बन्धन में डालने का मार्ग ही सन्त कवि पंडित, वेद पुराणादि ग्रंथ सभी यही राय देते हैं।
सुनि प्रभु वचन हरषि मुनि चारी पुलकित तन अस्तुति अनुसारी।।
जय भगवन्त अनंत आनामय अनध अनेक एक करुणामय ।।
(क्रमश: दोह 25 तक)