प्रभाग-37 श्री रामचन्द्र जी से गुरु वशिष्ठ मुनि की विनती, रामचरितमानस
शिवजी का वचन है कि हे पार्वती! जहाँ के राजा श्रीरामचन्द्र जी ब्रह्म रूप सच्चिदानन्द ही हैं, उस अयोध्या के निवासी हर नारि नर कृतार्थ हुए। उसी राज भवन में जो सुन्दर और सुहावन है, एक बार वशिष्ठ मुनि पधारे। राम जी ने उनका आदर सत्कार किया तब मुनि बोले- हे कृपा निधान मेरी आपसे कुछ विनती है। मैं आपका परोहित ह । दिन रात आपके व्यवहारों को देखा करता है जिससे मेरे मन में अपार मोह उत्पन्न होता है। आपकी महिमा तो वेद-पुराण भी कहते नही पार पाते तो हे भगवान! म कहाँ तक बताउँ। इस उपरोहित कर्म की वेद भी निन्दा करते हैं। संस्कृति और पुराण का भी यही मत है। मैं यह कार्य नहीं ग्रहण करना चाहता था, तो ब्रह्मा जी ने कहा कि हे पुत्र ! आगे चलकर तुम्हें लाभ होगा। परमात्मा का अवतार नर रूप में हो रहा है वे ही रघुकुल भूषण राम होंगे।
तब मैं अपने मन में विचार किया कि जप, तप, यज्ञ, व्रत, दान जो कुछ होगा वह मैं पाउंगा, उससे बढ़कर क्या दूसरा धर्म हो सकता हैं ? जप, तप नियम भोग ये सब तो अपने-अपने धर्म हैं। श्रुति में ऐसे सारे अनेक शुभ कर्म कहे गये हैं। ज्ञान दया दम तीर्थटन, भज्जन जहाँ तक धर्म के सम्बन्ध में वेद और विद्यान कहते है अनेको आगम निगम शास्त्रो के पढने और सुनने से एक सुन्दर फल आपके चरकमल में प्रेम हरदम बना रहे, यह जान पड़ा। सभी उपरोक्त साधन से बढ़कर मात्र यही सुन्दर फल है मै समझता हूँ कि हृदय की गंदगी मल कर धाने से नहीं मिट सकती, जैसे पानी के मथने से घी नहीं प्राप्त हो सकता हैं। है रघुकुल भूषण! प्रेम और भक्ति के जल बिना हृदय के अन्दर की गंदगी नहीं जा सकती। वही सर्वज्ञ है, वही उसके रहस्य को जानने वाला पंडित, सुयोग्य गुणों से युक्त, गुणो का भंडार और अखण्ड वैज्ञानिक होगा जो उनके चरण कमल में निरंतर भक्ति रखता हो। हे नाथ मैं आपसे यही एक वरदान चाहता हूँ कि जन्म-जन्मान्तर तक आपके चरण में मेरा प्रेम नहीं घटे । यह वरदान मुझे दिजिए। ऐसा विनय कर मुनि अपने आश्रम में आये। राम जी ने इनके विचार को सराहा।
रामचन्द्र जो भाईयों सहित हनुमान जी को साथ लेकर नगर से बाहर आये। एक आम के बगीचे में जाकर आरम करने हेतु पहुँचे । भरत जी ने प्रभु रामचन्द्र के लिए वस्त्र की विछावन लगा दी। वे बैठ गये । अन्य भ्राता उनकी सेवा में लग गये। हनुमान जी ने पंखा चलाया। शिवजी कहते है कि हनुमान जी के समान न कोई भाग्यशाली है न राम जी के चरणों का प्रेम हीं। भगवान श्री राम जी ने भी हनुमान जी की सेवा तथा प्रेम भाव का अपने मुख से भी वार वार बड़ाई की हैं।
उसी अवसर पर महामुनि नारद हाथ में वीणा लिए आकर श्री रामचन्द्र जी की सुन्दर नित्य नवीन लीला एवं उनकी कीर्ति का गान करने लगे।
जब भगवान के गुण समूहों का प्रेम पूर्वक वर्णनकर उनको अपने हृदय में धारण कर ब्रह्मलोकको प्रस्थान किये तो शंकर जी ने पार्वती जी से कहा कि अब इस कथा को विस्तार से सुनो। इस उज्जवल कथा को अपनी बुद्धि के अनुसार पूरी कह डाली। यह चरित्र अपार है। जिसे सरस्वती जी और शेषनाग भी कह नहीं सकते राम जी अनन्त है और उनके गुण भी अनन्त है, उनके जन्म कर्म और नाम भी अनन्त है, जल की बूंद और पृथ्वी के धूलकण भी अगर गिनने योग्य है तब भी रामचन्द्र जी के चरित्र का वर्णन करते हुए नहीं बनते। यह पवित्र कथा भगवान के परम पद दिलाने वाली है। इसके सुनने से अविचल भक्ति प्राप्त होती है। हे उमा ! मैने यह सब सुन्दर कथा कही जिसे काक भुशुण्डि जी ने सुनायी थी राम जी के थोड़े ही गुण मैने बताये अब तक बताओ विशेष क्या कहूँ श्री राम जी की मंगलमयी कथा सुन पार्वती जी प्रसन्न हुयी विनम्रता भरे शब्दा में बोली हे त्रिपुरारी, मैं धन्य हूँ जो श्रीराम जी के उन गुणो को सुनी हो जो जन्म-मृत्यु का भय मिटाने वाला है। आप कृपा के धाम है। आपकी कृपा से ही अब मैं कृतार्थ हो चुकी मुझे अब तनिक भी मोह नहीं है। मैं श्रीराम जी के प्रताप को भी समझ गयी।
हे कृपानाथ! आपक मुखचन्द से जो रघुनाथ जी की कथा रूप’ अमृत की वर्षा होती है उसे कानों से सुनकर सन्तुष्टि नहीं पाती हूँ। जो इस कथा के सम्पूर्ण रहस्य को जाना ही नहीं। जो जीवन मुक्त महामुनि है वे ही आजीवन राम कथा में मन लगाया करते हैं।
जो संसार रूपी सागर को पार करना चाहता है, उसके लिए यही राम कथा रूपी नाव चाहिए। श्रीरामचन्द्र जी के गुणगान तो विषय भोगो में लगे लोगा के कानों को भो सुख और मन को आराम देने वाले है। इस संसार में एसा कौन कान वाला है जिसे राम कथा अच्छी नहीं लगती। वे तो अपने आपके घातक साबित होते है।
हे नाथ आपने तो रामचरित्र मानस का ही गायन किया जिसे मैं सुनकर सुख पायी किन्तु जो आपने कहा कि यह सुन्दर कथा काक जी ने गरुड़ जी से कही थी, क्या वह कौआ का शरीर पाकर वैराग्य ज्ञान और विज्ञान के प्रखर ज्ञाता हए जिनका रामजी के चरणों में अत्यन्त प्रेम रहा और रामचन्द्र जी की भक्ति भी उन्हें प्राप्त हुयी। इस बात पर तो मुझे संदेह हो रहा है।
नर सहस्त्र मह सुनहु पुरारी कोइ एक होहि धर्मव्रत धारी ।।
धर्मशील कोटिक मह कोई विषय विमुख विराग रत होई ।।
उत्तर काण्ड का यह प्रसंग ज्ञान, कर्म की शुभिता और भक्ति का रहस्य और महत्व तथा मुक्ति का मार्ग दर्शन कराता है। यही जीवन का सार तत्व है या यों कहें कि यही भगवत्स्वरूप राम तत्त्व है जिस पाकर जीव पाप में नहीं पड़ता न सांसारिक कष्ट ही पाता हैं। सम्पूर्ण शास्त्र मुनि समाज, ज्ञानी, पंडित, शेष और शारदा तथा कैवल्य प्राप्त साधक समाज का भी यही कथन अबतक सामने आया है। बाधा रूप राक्षस तो हमारे मनोविकार है जो तरह-तरह के कुसंस्कार पालते और जीवन रूपी सागर के भँवर में फंसकर उससे पार नहीं पाते। यह विषय समझने में तो सरल है, किन्तु ग्रहण करना सुगम नहीं है इसके लिए सत्संग का साथ जरूरी है इन्द्रियों के विषय से दूर होकर ही सरलता अपनाई जा सकती ह। कुटिलता का प्रवाह शमित हो सकता है और संतोष आ सकता है। इसके लिए उत्तर काण्ड का यह अंश ज्ञेय, ध्येय और सब तरह से श्रेय दिलाने वाला मुक्ति का मार्ग बन सकता हैं।
“न इति”