प्रभाग-06 बाल काण्ड रामचरितमानस
महामुनि नारद ने पार्वती जी की हस्तरेखा देखकर उनके अलौकिक गुणों का आख्यान किया । यह भी बतलाये कि उनका विवाह एक योगी दिगम्बर से होगी । किन्तु उस पति के भाग्य से मिलता – जुलता भगवान शंकर के प्रति सम्भावना जतायी । यह भी कहा कि विषय गम्भीर है फिर भी पावती अगर भगवान शंकर को पाने हेतु तपस्या करे तो सम्भव है । शंकर एक अद्भुत शील और चरित्र के देवता हैं । कुछ शुभ तो कुछ अशुभ किन्तु है देवाधिदेव महादेव । उनका रुप , वेश और जीवन स्तर असामान्य है । इस हेतु हिमालय राज की पत्नी के मन में बहुत भय था अपनी पुत्री के सुखद जीवन के प्रति किन्तु पार्वती नारद जी की बातों पर पूर्ण विश्वास कर घोर तपस्या की । ऋषि मुनि से देवतागण तक पार्वती के तपोबल की प्रसंशा करने लगे । पार्वती जी की हस्तरेखा ( भाग्य ) उनकी भावना और प्रेम , देवताओं की मंशा में भगवान शंकर की कठिन समाधि बाधक बनने लगी । शंकर जी के आराध्य देव को ब्रह्मा जी ने साग्रह तैयार करने का निवेदन किया रामचन्द्र जी ने उनसे मिलकर पार्वती की कठिन तपस्या का सविस्तार वर्णन किया । और पावती से विवाह करने हेतु वचन ले लिया । तब पार्वती जी के पास शिवजी ने सप्तऋिषियों को जाँचने हेतु भेजा । पार्वती जी ने सप्तषियों से अपनी कठिन प्रतिज्ञा पर बल देते हुए कहा ” वरौं संभु न त रहउँ कुँआरी ” | मन ही मन प्रसन्न होकर सप्तर्षि वापस लौटे , साथ ही भगवान शंभु एवं हिमवान से भी मिलकर पार्वती की सफलता की सूचना दी ।
देवतागण ब्रह्मा जी से मिलकर पार्वती शिव के विवाह पर चर्चा की । बताया कि तारक नामक राक्षस अपने प्रताप बल से दिदिगन्त को जीतकर देवताओं को श्री विहीन कर दिया । अब उस पर विजय पाने के लिए आवश्यक था कि शंकर जी से ही जो पत्र होगा वही उस राक्षस का नाश करेगा । इस हेतु अब उनका पार्वती जी से शीघ्र विवाह तब होगा जब वे समाधि तोड़े । यह कठिन विषय था । ब्रह्मा जी ने सर्व प्रथम कामदेव को भेजकर शंकर भगवान की समाधि भंग करवाने की बात कही । इसके उपरानत स्वयं जाकर उनसे बल पूर्वक विवाह करवाना सम्भव होगा । ऐसा ही हुआ भो ।
कामदेव ने शंकर भगवान के आश्रम के पास वसंत ऋतु का दृश्य और वातावरण बना दिया । फिर भी उनका ध्यान न टूटा । तब कामदेव आम के वृक्ष की डाली पर बैठ पतों की ओट में छिपकर फूलों के वाण से हृदय पर प्रहार किया । सक्रोध शंभू ने अपनी तीसरी आँख खोलकर देखा और कामदेव जलकर राख हो गया । उसकी पत्नी जब मरण की खबर पायी और भगवान शंकर के समक्ष विलाप करने लगी तो उन्होंने कहा कि अब से वह जीवों के मन में वास करेगा तथा द्वापर में कृष्णा भगवान का पुत्र प्रद्यु बनकर आयेगा । उसी समय तुम्हारा उससे मिलनहोगा । रति के चले जाने पर भगवान शंकर राम नाम का स्मरण करने लगे । जब सभी देवता कामदेव का मरण और भगवान शंकर के जागरण पर प्रसन्न होकर मिलने आये तो भगवान भोले ब्रह्मा जी के आने का कारण पूछा । ब्रह्मा जी बोले आपकी कृपा से हम सब देवता उत्साहित है और अपनी नजर से आपका विवाह देखना चाहते है । सभी देवताओं ने शंकर जी की प्रसंशा की । किसी ने कहा कि आपने कामदेव को जलाकर फिर रति को वरदान देकर बड़ा भला किया । अनुशासन जताना और फिर प्रसन्नता दिखाना ही तो आपका स्वभाव है । पार्वती ने आपको पाने हेतु कठोर तप किया , अब आप उसे अंगीकार कीजिए । तब भगवान शंकर ने अपनी सहमति दे दो । देवताओं ने हर्षित होकर दुदुभि बजायी । सप्तर्षि भी पहुंच गये । आते ही ब्रह्मा ने उन्हें हिमवान के पास भेजा । पहले तो सप्तर्षि ने पार्वती से मिलकर मजा किया भाव में कहा उस समय तो तुमने मेरी बात न मानी , नारद पर विश्वास करके अपना प्रण रखा किन्तु वह तो झूठा हा गया । शंकर जी ने तो कामदेव को जला डाला । यहाँ का प्रसंग जो पार्वती और सप्तर्षि का छोटा सम्वाद है वह मनो विनोद के साथ ज्ञान प्रद भी है । तुलसी दास के शब्दों में :-
चौ ० सुनि बोली मुस्काई भवानी । उचित कहेहु मुनिवर विज्ञानी ।।
तुम्हारे जान कामु अब जारा । अबलगि रहे शंभू अविकारा ।।
हमरे जान सदा सिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगी ।।
जो मै सिव सेये अस जानी । प्रीति समेत कर्म मन वाणी ।।
तौ हमार पन सुनहु मुनीसा । कहिहु सत्य कृपा निधि ईसा ।।
तुन्ह जो कहा हर जारेउ मारा । सोइ अतिबड़ अविवेक तुम्हारा ।।
तात अनल कर सहज सुभाउ । हिम तेहि निकट जाई नही काउ ।।
गये समीप सो अवसि नसाई । असि मन्मथ महेश की नाई ।।
दो ० हिय हरये मुनि बचन सुनि देखि प्रीति विश्वास ।
चले भवानिहि नाई सिर , गये हिमाचल पास ।।
वहाँ जाकर ऋषियों ने सारी कथा हिमाचल से कही । कामदेव का मरण सुन वे पहले दुखी हुए किन्तु रति के वरदान से उन्हें प्रसन्नता हुयी । इस प्रकार भगवान शंकर की प्रमुता को जानकारी पाकर खुशी – खुशी सप्तर्षियों को घर पर बुलाकर विवाह का दिन नक्षत्र और मुहूर्त निकालकर शीघ्र वेद विधि से लग्न का विधान प्रारंभ कर दिया ।
भली भाँति शिव – पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ । सभी बारातीगण कैलाश आये । फिर सभी विदा होकर अपने – अपने घर गये । भगवान शंकर विविध प्रकार भोग विलास करते हुए गणों के साथ कैलाश पर समय व्यतीत किये । बहुत काल बीत जाने पर कार्तिक जी का जन्म हुआ । इन्ही षडानन कार्तिक कुमार ने तारक राक्षस को मारा । कैलाश पर्वत के समीप ही एक सुन्दर वर वृक्ष के नीचे सुरम्य स्थान में कुशासन पर बैठकर आनंद पूर्वक समय विताने लगे । सु – समय पाकर पार्वती जी भी उनके साथ आसन पर बैठ आपस में बातें करने लगी ।