Mon. Dec 23rd, 2024

प्रभाग-05 बाल काण्ड रामचरितमानस


गोस्वामी जी ने राम कथा के महत्त्व को विविध रूपों में समझाया हैं उन्हीं के शब्दों में जो दोहा ( 32 क ) का कथन है कि श्री रामचन्द्र जी के गुण समूह कुमार्ग , कुतर्क कुचाल और कलियुग के कपट , दम्भ और पाखण्ड को जलाने के लिए वैसे ही है जैसे ईंधन के लिए प्रचण्ड अग्नि । जो इस कथा को पूर्व में न सुन पाय हों , उन्हें इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए । जो ज्ञानी पुरुष हैं वे इस अलौकिक कथा को सुनकर आश्चर्य नहीं करते । वे जानते है कि राम कथा अनन्त है । इनके अनेक अवतार हैं ।
रामायण भी अनन्त रचे गये हैं । अलग – अलग कल्पों ( युगों ) में अनंत सुन्दर चरित्र प्रस्तुत किये गये है तथा मुनियों द्वारा विविध प्रकार से उनका गायन हुआ है । अतः कथानकों को सुन्कर मन में बिना भेद – भाव रो समम्मान सुनने का आग्रह गोस्वामी जी ने किया एवं प्रकारेण हर प्रकार के सन्देहों को दूर कर अपने गुरु तथा अन्य संतों की सविनय प्रार्थना कर शिवजी के चरणों में सिर नवाकर सम्वत 1631 चैत्र नवमी ( शुक्ल ) मंगलवार को जैसा अयोध्या के लोग उस दिन राम जन्म मनाते है एवं वेदों में जिसका वर्णन किया गया है । यह भी चर्चित है कि सभी तीर्थ उस दिन यहीं ( अयोध्या ) चले आते हैं , राम कथा लिखने का शुभारंभ किया । इस कथा का नामकरण “ रामचरित मानस ” रुप में किया गया । मुनियों के लिए यही नाम प्रिय पाया गया जिसकी रचना भगवान शंकर ने स्वयं की थी और अपने ही तक सीमित रखा था । फिर समयानुसार उसे पार्वती जी को सुनाया । उसी कथा का प्रचार विचार कर तुलसी दास ने शिवजी की कृपा प्रसाद को कविता के रुप में छन्द बद्ध कर मानस रामायण का विधिवत प्रणयन प्रारंभ किया ।

 तुलसी दास जी ने अपनी काव्य रचना की अभिव्यक्ति एक सरिता ( नदी ) के रुप में की तथा उस सरिता को सोद्देश्य और स्वरुप के साथ गुण और महत्ता का निरुपन अवध की धरती , जल , वहाँ के समाज , नर – नारी , सन्तों के समूह , घाट , तट वन , बाग , जलचर , पक्षी , जीव – जन्तु सब को समेटकर विमूषित और गौरवान्वित किया । सरयू , यमुना और महानदी का मिलन एवं संगम स्थल , भारतीय संस्कृति का उद्गम स्थल रहा है । इसके तट पर बसा प्रयाग महान तीर्थ है जहाँ सभी दिशाओं से देवता , मुनि और सन्त महात्माओं का आगमन होता है । माघ महीने भर सभी गंगा में स्नान करते , भजन , भक्ति और धर्मों का प्रचार – प्रसार – उपदेश करते हैं । यह समागन प्रति वर्ष होता रहता है । इसी माघ महीने में सूर्य मकर रखा पर गमन करते हैं । उस काल का गंगा स्नान एवं त्रिवेणी के संगम पर ( श्री वेनी माधव जी की पूजा होती है । अक्षय वट का पूजन और स्पर्श कर सभी भक्त गण कृतार्थ हो हषित होते हैं , वही पर भारद्वाज मुनि का प्रयाग में निवास है । वह आश्रय परम पवित्र और सुरम्य मुनिजनों के लिए मन भावन है । उस आश्रय में मुनि समाज पहुँचकर , प्रतिदिन स्नान कर परस्पर हरि भजन करते हैं । उनकी चर्चा में ब्रह्मनिरुपन , धर्म विधान और वेदों पर तत्त्व विभाग सहित ज्ञान और वैराम्य पर चर्चा होती है । इस प्रकार सभीएक माह तक ( माघ भर ) धर्म चर्चा का आनंद लेकर अपने – अपने आश्रय को प्रस्थान करते है । एक बार सभी मुनियों के प्रस्थान कर जाने पर भारद्वाज मुनि ने याग्वलक्य ऋषि को चरण पकड़ कर अपने आश्रम में रोक रखा ।

 आदर सहित उनकी पूजा की तथा उनके गुणों की व्याख्या की । इसी बीच भारद्वाज मुनि ने मधुर शब्दों में याग्बलक्य मुनि से पवित्र आग्रह किया । उन्होंने कहा कि मेरे मन में कुछ संदेह है । आप वेदों के महान ज्ञाता है । मुझे कहते हुए भय एवं लज्जा हो रही है । भय इस बात का कि कही आप ऐसा न मान लें कि यह मेरी परीक्षा लेना चाहते है , और लज्जा इस बात कि इतनी आयु बीत गयी और मेरे मन में संदेह बना रहा , ज्ञान न हो सका । मेरा संदेह आप ही मिटा सकते हैं न पूछने पर मेरा कल्याण किस प्रकार होगा ? संत लोगों और मुनियों के सम्पर्क से ही विमल विवेक का हृदय में प्रवेश होता है । गुरु से दुख दुराव मनुष्य ज्ञान कैसे पा सकता है ? आप मेरे जैसे अज्ञानो पर कृपा कीजिए और भ्रम का निवारण कीजिए ।

 संतों , उपनिषदों और पुराणों ने राम नाम के असीम प्रभाव का गान किया है । कल्याण स्वरुप ज्ञान और गुणे की राशि अविनाशी भगवान शंकर निरंतर राम नाम का गान करते हैं । कासी में मरने वाले जीव को राम नाम काही उपदश करते है । इसी से उन्हें परम पद मिलता है । हे प्रभो ! मैं आप से पूछता हूँ कि वे राम कौन है ? मुझे समझाकर कहिए । एक राम तो अवध नरेश दशरथ जी के पुत्र है । उनका चरित्र सारा संसार जानता है । उन्होंने स्त्री के विरह में अपार कष्ट उठाया और क्रोध आने पर रावण को युद्ध में मारा , हे प्रभो , वही राम है या और कोई – दूसरे है जिनको शिवजी जपते हैं ? आप तो सबको जानते है विचार कर कहिए । जिस प्रकार मेरा भ्रम मिटे वही कथा विस्तारपूर्वक समझाइए ।

 तब मुनिवर याग्वल्क्य मुस्कुराकर बोले रघुनाथ जी की महिमा आप भली प्रकार जानते है । आप तो मन , बचन और कर्म से भी रामचन्द्र जी के भक्त हैं । आप बड़ी चतुराई से रामजी के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते है कि जैसे आप इससे अनभिज्ञ हो । तब कृपा कर के दयालु मुनि याग्वलक्य ने कहा – आज्ञानता महिषासुर राक्षस के समान विकराल है और उसे मिटाने वाली कथा भी भयंकर काली जी है । राम कथा चन्द्रमा की किरण के समान भी है जिसका पान संत रुपी चकोर करते हैं । आपके ही ऐसा भ्रम एक बार पार्वती जी को हुआ था जब महादेव जी ने उन्हें विस्तार से समझाया था । उसी कथा को मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उनका और शिवजी का सम्वाद सुनता हूँ । कथा प्रसंग इस प्रकार है जिसे मैं संक्षेप में रख रहा हूँ ।

 त्रेता युग की बात है । एक बार भगवान शंकर अगस्त ऋषि के पास पहुँचे । अगस्त्य जी ने शंकर जी के ईश्वर जानकर पूजा की । शंकर जी के साथ जगत जननी पार्वती जी भी थी । दोनों में चर्चा हुयी । मुनि ने राम कथा कही तथा शंकर जी ने हरि भक्ति के संबंध में उन्हें समझाया । इस प्रकार वहाँ रहते और सतसंग करते बहुत समय बीत गये । तब मुनि जी से विदा मांगकर अपने निवास की ओर पार्वती जी के साथ चल पड़े । उस समय रामावतार हो चुका था । पिता के वचन पर राज्य त्याग कर भगवान रामचन्द्र वन्डक बन में विचर रहे थे । यह विषय सती जी ( पार्वती ) नही जानती थी किन्तु शंकर जी को रामजी के दर्शणों की व्याकुलता थी , बात को छिपाते थे किन्तु आँखे प्यासी थी । रामावतार की चारों ओर चर्चा थी किन्तु सती जी इस मर्म कथा से अपरिचित थी इससे शंकर जी के हृदय में क्षोभ था । जरा संयोग तो देखिये , कैसे यह कहानी नाटकीय ढंग से सामने अपना स्वरुप लेकर उदित होती है । दशमुख रावण मारीच के पास जाकर उससे कपट मृग के रुप में सीता हरण के लिए तैयार किया । घटना साकार हुयी । अब अपने आश्रय में सीता को न पाकर रामचन्द जी उनकी खोज में जंगलों को छान रहे थे । शंकर जी तो रामजी से भेंट के लिए व्याकुल तो थे ही , सामने पड़ने पर उन्होंने श्री सच्चिदानन्द परम धाम भगवान रामचन्द्र जी को प्रमाण कर अनजान की तरह चलते बने । उनका मन प्रफुल्लित था । सती भी साथ चल रही थी । शंकर जी का राजपुत्र राम को प्रणाम करते , जय सच्चिदानन्द सुख धाम कहते बड़ा संसय हुआ । पार्वती जी कहती है कि उनका प्रेम रामजी ने इतना बढ़ते गए कि रोके नही रुकता । उन्हें कहते हुए बड़ा संदेह हुआ कि जो बह्म रुप सर्व व्यापी , अजन्मा , माया रहित अगोचर , इच्छा और भेद रहित कहे जाते है वे तो सर्वज्ञ ह , शिवजी के ही समान है , वे फिर असुरों के नाश करने वाले लक्ष्मीपति स्त्री के वियोग में भटकते क्यो है ? शंकर जी का कहा झूठा होता नहीं फिर भी मन से संदेह मिटता नहीं । शंकर जी की बातों पर सतीजी का भ्रम न मिट पाने से शिवजी अत्यन्त सोच में पड़ कर बोल पड़े कि जाकर स्वयं क्यों न परीक्षा ले लेती , तब तक मैं यही रास्ते मे पेड़ की छाया में ठहरता हूँ ।

 राकर प्रिया सती ने आगे बढ़कर सीता माता का स्वांग बनाकर प्रकट हुयी । लक्ष्मण जी ने इस रहस्य को भाँप लिया किन्तु भाई का अनुशासन मानते हुए कुछ नहीं बोले । राम तो जगत के स्वीमी कहलाते हैं । समदर्शी अन्तर्यामी और सर्वज्ञ है । श्री सती जी के कपट पूर्ण व्यवहार को परम विनम्र भव से अपना नाम और अपनी पहचान सूचित करते हुए उन्हें प्रणाम किया फिर पूछा कि शिवजी कहाँ हैं । आप जंगल में किस कारण भटक रही है ? इतना सुन संकोच में पड़कर सती शिवजी के पास चिन्तित मुद्रा में चल पड़ी अपनी मूर्खता वश सती को हृदय में दारुण ताप झेलना पड़ा । रामजी समझ गये कि सती को कष्ट हुआ । दूसरी ओर शिवजी भी इस घटना का परिणाम सोचते हुए चिन्तित रहे । उधर रामजी भी अपना प्रभाव दर्शाते हुए कुछ कौतुक दर्शाने लगे । सती का अपने रास्ते में आगे राम लक्ष्मण दोनों भाई दिख रहे थे । जब सती ने पीछे दृष्टि डाली वह प्रभ श्री राम जी भाई लक्ष्मण सहित सीता को भी देखी । इस तरह अलौकिक दृश्यों में प्रकट होकर सती को अपनी रहस्यीमयी लीला से परिचित कराया जिसमें रामचन्द्र सर्वत्र एक से ही दिखें । रुप और चरित्र बहुत देखे किन्तु उनके वेश एक ही दिखे । देखते – देखते सती अपनी शरीर की सुधि खोदी और आँ मूंढ कर बैठ गयी । फिर जब आँखे खोली तो कही कुछ न मिला । फिर बार – बार उनके चरणों में शीश नवाकर यक्षसुता शंकर जी के पास लौट चली । भगवान शिव ने हँसते हुए पूछा सच – सच सारी बात बतलाओ कि तूने किस प्रकार परीक्षा ली ? सती तो रामजी के प्रभाव को समझ ली । शिवजी के भय से सारी बात छिपाती हुयी बोली कि आपकी कही हुयी बात कभी झूठ नही हो सकती ऐसा तो मेरे मन में विश्वास है । मैने कोई परीक्षा नही ली केवल आपही की तरह प्रणाम कर लौट आयी ।

 … लेकिन भगवान शंकर अपनी ध्यान मुद्रा में सब कुछ जान चुके जो – जो चरित्र सतीजी ने उनके सामने प्रकट की । सीता का वश धारण किये जाने को महादेव शिवजी ने अच्छा नहीं माना । यदि सती से पूर्ववत प्रेम बना रहा तो यह अनैतिक होगा और मेरी भक्ति रामजी के प्रति समाप्त मानी जायेगी । सती और शंकर जी का प्रेम तो अटूट है किन्तु उनकी दृष्टि में अगर यह चलता रहा तो पाप होगा । ऐसा संताप उनके हृदय में व्याप्त है किन्तु प्रत्यक्ष कुछ कह नहीं पाते । उन्होंने एक बार रामजों के प्रति ध्यान लगाया । तो हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि अब इस जन्म में सती के शरीर से भेंट सम्भव नहीं , यह संकल्प शिवजी ने किया ऐसा विचार शिवजी की स्थिर बुद्धि में बैठते ही आकाश वाणी हुयी कि श्री शिवजी की दृढ़ भक्ति की जय हो , और शिवजो अपने घर की और बढ़े ।

 जब पार्वती जी ने आकाश वाणी सुनी तो संकोच सहित उमानाथ से पूछा , किन्तु उन्होंने कुछ नही बताया । प्रेम का परिणाम यही कि दूध पानी से मिलकर ऊँचे मूल्य पर बिकता है लेकिन कपट के प्रवेश होने पर दूध और पानी अलग हो जाता है । सती भली पकार समझ गयी कि भगवान मुझे त्याग चुके । उनका मन व्याकुल हो उठा । सती को चिन्ता निमग्न जानकर उन्हें सन्तुष्ट करने हेतु विविध सुखद कथाएँ कही और दोनों एक साथ कैलाश पहुँचे ।

 अपने प्रण का ख्याल कर अपने आपको सम्भाला और बट वृक्ष के नीचे कमलासन मारकर तपोलीन हो गये । उसी कैलाश पर्वत पर सती चिन्ता निमग्न विलाप करती पायी गयी । पति वियोग में दारुण दुख सहन करती रही । तुलसी दास जी कहते है कि सतासी हजार वर्ष इस प्रकार बीत गय । जब शंकर जी का ध्यान टूटा तो राम नाम का स्मरण करने लगे । उसे सुनकर सती जी उनके पास पहुंची और पणाम की । शंकर जी ने सामने बैठाया और सुन्दर – सुन्दर कहानियों से उनका मन प्रसन्न करना चाहा तब तक सती के पिता दक्षत प्रजापति बन गये । गरिमा पाकर उन्होंने यज्ञ को अनुष्ठान किया , यज्ञ में भाग लेने सभी देवगण विमान पर चढ़कर आकाश मार्ग से अपनी पत्नियों सहित गान करते गुजर रहे थे । देखकर कतुहल वश सती ने पूछा । जब भगवान शंकर ने पिता द्वारा यज्ञ किये जाने की बात कही तो उन्होंने उनसे पिता के घर जाने की आज्ञा मानी । अनिमंत्रित होने के कारण शंकर जी वहाँ भेजना अनुचित समझ रहे थे । जब सती किसी भी तरह मनाने पर न मानी तो अपने गणों के साथ भेज दिया । वहाँ पहुँचकर पायी कि परिस्थिति बिल्कुल विपरीत है और सती को भी निरादर हाथ लगी । क्रोध में आकर यज्ञ कुंड में अपना शरीर त्याग कर ली । फिर गणों ने यज्ञ विध्वंश कर दिया । मृगु ऋषि ने उसे संभाला तो शंकर जी को इस घटना का ज्ञान हुआ । सकोप शंभु वीरभद्र नामक गण को भेजे और यज्ञ के विध्वंश होने के साथ पक्ष की वह दशा हुयी जो भगवान शंकर के विरोध करने वाले की होती है । तुलसी दास इस मर्म कथा को संक्षेप में बतलाते है । घटना इससे भी गम्भीर रही । मरते समय सती ने भगवान शंकर से हर जन्म में उनका प्रेम पाले रहने की प्रतिज्ञा की जिसके फल स्वरुप पार्वती के रुप में सती हिमालय के घर में जन्मी ।

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