प्रभाग-03 बाल काण्ड रामचरितमानस
रामचरित मानस की रचना में गोस्वामी जी जन – जीवन के मर्मज्ञ अनुभूति प्रखर एवं गहन ज्ञान गरिमा से पूर्ण चिन्तक तथा आध्यात्मिक पुरुष दीखते है । इनकी काव्य योजना हर प्रकार से कल्याणकारी , जीवन व्यवस्था के पक्ष घर के रुप में अपने आप को खड़ा करती पायी जा रही है । अपने आराध्य देव के आदशा में मर्यादा पुरुषोत्तम की सार्थक भूमिका को धरती पर लाने की उनकी लौकिक मनोकामना है , जिसके लिए परम – पुनीत – परिवेश की पराकाष्ठा का प्रतिफलन अपने ग्रंथ रामचरित मानस के प्रसंग के साथ चर्चित एवं चरितार्थ है । इस प्रथम सोपान बालकाण्डान्तर्गत राम तत्त्व का सार्वागिक विश्लेषण जीवन और जगत को ज्ञान – प्रभा से परिप्लावित एवं आध्यात्म जगत को प्रकाशित करता है । यह प्रासंगिक आकर्षण मन , बुद्धि और हृदय को संतुष्टि एवं शीतलता प्रदान करता है । मान्यता ही नहीं , वास्तविकता है कि कलियुग पाप पयोधि है फिर क्यों नही . हम तो भौतिक विकास के पक्षर घर हैं । अतः हमें उपभोक्तावादी , भोगी , व्यसनी , संग्रह , मोह , ममता , लोभ , क्रोध , ईया , द्वेष , हिंसा , पाप , बन्धन , शोक , ग्लानि आदि झेलना पड़ता है । इससे दैहिक , दैविक एवं भौतिक कष्ट तथा सांस्कारिक रुप से काल , कर्म , गुण और स्वभावगत दोषों से भी उसके परिपाक के परिणाम स्वरुप परिताप का भागी बनते हैं । उनके विस्तार हेतु भक्ति का द्वार खोलना स्वामी जी की निजी इच्छा तो रही , उससे भी बढ़कर राम भक्ति की सरिता को भारत के धरातल पर उतारने का प्रयास जनकल्याणार्थ जरुरी भी था , तुलसी दास जी के ही शब्दों में :-
दो ० राम नाम नर केशरी , कनक कसिपु कलिकाल ।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ।। 27 ।।
चौ ० यह प्राकृत महिपाल सुमाउ । जान सिरोमनि कोशल राउ ।।
रीझत राम स्नेह निसोते । को जग मह मलिन मति कोते ।।
दो ० सब सेवक की प्रीति रुचि , रखिहहिं राम कृपालु ।
उपल किये जल जान जेहि , सचिव सुमति कपिमालु ।। 28 क ।।
हाँहु कहावत , सबु कहत , राम सहत उपहास ।
साहिब सीतानाथ सो . सेवक तुलसी दास ।। 28 ख ।।
प्रभु तरु तर कपि डार पर , ते किये एक समान ।
तुलसी कहै न राम से , साहिब शील निधान ।। 29 क ।।
राम निकाई राबरी है सब ही को भीक ।
जौ यह साची है सदा , तौ नीका तुलसीक ।। 29 ख ।।
एहि विधि निज गुन देख काह , सबहि बहुरि सिर नाई ।
बरनउ रधुवर विसद जस , सुनि कलि कलुष नसाई ।। 29 ग ।।
पाठक यह जाने ले कि राम कथा का उद्भव श्री शिवजी से हुआ यथा :-
चौ ० संभु कीन्ह यह चरित सुहावा । बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा ।।
सोइ शिव काग भुशुंडिहि दीन्हा । राम भगत अधिकारी चिन्हा ।।
तेहि सन जागवलित पुनि पावा । तेहि सुनि भारद्वाज प्रति गावा ।।
ते श्रोता वकता समशीला । सवदरसी जानहि हरि लीला ।।
जानहि तीनक काल निज ज्ञाना । करत लगत आमलक समाना ।।
औरउ जे हरि भगत सुजाना । कहहि पुनहि समुझहि विधि नाना ।।
उसी कथा को तुलसी दास जी ने :-
दो ० मैं पुनि निज गुर सन सुनि , कथा सो सूकरखेत ।
समुझि नही तस बालपन , तब अति रहउ अचेत ।। 30 क ।।
श्रोता बकता ज्ञान निधि , कथा राम के गूढ ।
किमि समझौं मै जीव जड़ , कलिमल ग्रसित विमूढ़ ।। 30 ख ।।
चौ ० तदपि कहि गुर बारहि बारा । समुझि परी कछु मति अनुसारा ।।
भाषावद्ध करबि मैं साई । मोरे मन प्रबोध जेहि होई ।।
जस कछु बुधि विवेक बल मेरे । तस कहिहउँ हिये हरिके प्रेरे ।।
निज संदेह मोह भ्रम हरनी । करउँ कथा नव सरिता तरनी ।।
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