प्रभाग-01 बाल काण्ड रामचरितमानस
रामचरित मानस ग्रंथ की रचना में भक्त कवि तुलसी दास जी ( सोलहवीं शताब्दी ) ने अन्य काव्यग्रंथों की परम्परा का भली प्रकार से निर्वाह करते हुए अपनी राम कथा का प्रारंभ विविध विनम्र निवेदनों सहित उनके तथ्यों को भी प्रकाशित किया है । उनकी निजी अवधारणा भी साहित्य सर्जना के विविध कारकों एवं आयामों का छन्द बद्ध करने में वर्णों के समूह से बने शब्दों , उनके अर्थ समूहों , रसों तथा छन्दों को जो कल्याणकारी हैं , उनकी अधिष्ठात्री सरस्वती तथा अधिष्ठाता वााणी विनायक श्री गणेश जी की बन्दना को प्रथम स्थान दिया है ।
इस प्रकार अपनी स्तुति में भगवान शंकर और पार्वती की महिमा का गायन करते हुए उन्हें ( पार्वती को ) श्रद्धा तथा विश्वास ( शंकर जी को ) की प्रतिमूर्ति मानते हैं तथा मानव समाज के बीच प्रकाशित करते है कि उनका आश्रय पाये बिना सिद्ध मुनिगण भी अपने हृदय में बसने वाले परमात्मा प्रभु ( ईश्वर ) को परख नहीं पाते , उनमें दृढ़ विश्वास रखकर ही हम परमात्म दर्शन कर पाते हैं ।
अपने परम पूज्य ज्ञानाश्रय देने वाले गुरु श्री नरहरि दास जी की तुलना भगवान शंकर से करते हुए अपनी वन्दना प्रस्तुत की है जिनका आश्रय पाकर ही , वक्र चन्द्रमा अर्थात द्वितीया का चाँद सब जगह पूजा जाता है । पूर्णिमा का चाँद तो प्रशस्त है ही किन्तु उसके पूर्व कोई नहीं , चतुर्थी का चाँद कलंकित माना जाता है जिसका दर्शन शुभ और शुभ्र पदार्थ पायस ( खीर ) चांदी या दही हाथ में लेकर ही किया जाता है । भगवान शंकर के मस्तक पर द्वितीया का चाँद ही सुशोभित है ।
श्री राम जी के गुणों के समूह के सहश अपार वन कानन में निवास करने वाले उन दो विशुद्ध बुद्ध विज्ञानियों कवि वर बाल्मीकि सहित कपिपति हनुमान जी की भी स्वमी जी ने वन्दना की है । श्री राम प्रिया सीता जी को गोस्वामी जी ने संसार की उत्पति , पालन और संहारकारिणी शक्ति रुपा स्वीकारते हुए सभी क्लेशों को हरने और सबका कल्याण करने वाली जानकर उनके चरणों को नमन करते हैं ।
उन्होंने श्री राम चन्द्र जी को भगवान विष्णु ( हरिरुप ) मानते हुए बताया है कि जिनकी माया के वशीभूत होकर सम्पूर्ण विश्व में ब्रह्मा से लेकर जितने देवता और राक्षस है , जिनके प्रभाव से सृष्टि के सभी सचराचर वैसे ही सत्य लगते हैं जैसे रस्सी देखने से सर्प का आभास होता है । इस आज्ञानान्धकार या माया का मोह रुपी कष्टों के समूह जैसे समुद्र से पार पाने हेतु मात्र उनके कमल – पत्र सदृश दोनों पाँव ही नौका है तथा उस अज्ञानान्धकार को शेष मात्र भी न रहने देने अर्थात पूर्णतः समाप्त कर देने वाले श्री रामचन्द्र जी की वे वन्दना करते हैं ।
एवम् प्रकारेण उन्होंने अपनी वन्दना के क्रम में राम चरित मानस के प्रणयन में अनेकों पौराणिक कथाओं , वेद तथा तंत्र शास्त्रों द्वारा सम्मत वाल्मीकि जी कृत रामायण में वर्णित तथा कुछ अन्य से भी विषय वस्तु का समाहरण कर अपने ग्रंथ को अति सुन्दर कथा गाथा का विस्तार देने की कामना की है ।
वस्तुतः कवि – कुल – कुमुद , भाव – शारद , लक्ष्य – चन्द्र , कविता – कानन – केशरी , सन्त कवि तुलसी की प्रस्तावना में देव गुरु की वन्दना का सार उनके साहित्य संसार की अप्रतिम कल्पना है ।
जिन महान उद्देश्यों के प्रति कवि तुलसी ने लक्ष्य साधा है उनकी सिद्धि हेतु सर्व प्रथम गणपति , गजवदन विनायक श्री गणेश जी की बन्दना की , पुनः भगवान विष्णु , शंकर जी सहित अपने गुरु की वन्दना , उनके गुणों का आख्यान , करते हुए विस्तार में गहन चित्रण किया , पुनः धरतो के देवता के रुप में ब्राह्मणों की वन्दना कर राम चरित का वर्णन करना प्रारंभ किया । उन्होंने अपनी दृष्टि से सामज के शुभैषी समुदाय साधु – सन्तों , उनकी सत्संगति आदि के महत्त्वों , उनके प्रभावों तथा जीवन को मिलने वाली कल्याणकारी ज्ञान गरिमा , कर्म की शुचिता , मन की शान्ति , हृदय की तृप्ति एवं सनमार्ग का दर्शन सह पापों के उन्मोचन की विसद व्याख्या की । उपमा – उपमेय के साथ सटोक उदाहरणों सहित सन्तों का जीवन दर्शन प्रस्तुत कर मानव के हितकारी सन्त शिरोमणि ने अपने सच्चे मन और सुललित वाणी में दुष्टों के प्रति भी अपना आग्रह प्रस्तुत किया । सविनय उन से अपने कार्य में बाधा न डालने का संकेत किया । अपने आराध्य देव राम को- ” सकल भव मोचन ” अर्थात संसार के समस्त दुखों का अन्त करने वाला मानते हुए स्वयं को अघम , अकिंचन और अबोध बालक की भाँति प्रस्तुत किया , साथ ही सृष्टि की सचराचर सत्ता को राम भय स्वीकारते हुए उनके हृदय के उद्गार प्रकट हुए :-
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राम मय जानि ।
बंदउँ सबके पद कमल सदा जोरि जुग पानि ।। दो ० ( 7 ग )
देव दनुज – नर – नाग खग , प्रेत पितर गन्धर्व ।
बंदउँ किन्नर रजनीचर कृपा करहु अब सर्व ।। दो ० ( 7 घ )
चौ ० आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल – थल – नभ – वासी ।
सिय राम मय सब जग जानी । करउ प्रनाम जोरि जुग पानी ।।
शब्दार्थ संकेत – आकर – आखर – अक्षर – वर्ण – जाति अर्थात चारो वर्णो के जीव जातीय चौरासी लाख जलचर , थलचर एवं नभचर आकाश में उड़ने वाले प्राणी ।
जानि कृपाकर किंकर मोहू । सब मिलि करहु छाडि छल छोहू ।
निज बुधि – बल – भरोस मोहि नाहीं । ताते विनय करउँ सब पाही ।।
करन चहउँ रघुपति गुण गाहा । लघुमति मोरि चरित अवगाहा ।
सूझ न एकउ अंग उपाउ । मन अतिरक मनोरथ राउ ।।
यहाँ कवि की काव्य धर्मिता में शब्द संयोजन , शब्दार्थ बोध की गहनता , गम्भीरता , छन्द – दिव्यास , भावानुकूलता , गेयता और ग्राभ्य भाषा की सरलता के साथ युक्ति युक्त विषय सार का सम्प्रेषण सराहनीय है ।