प्रभाग-14 बाल काण्ड रामचरितमानस
चिर प्रतीक्षित धनुष तो टूट ही गया किन्तु महाघमंडी वीरों का जो झूठा अहंकार था , वह अब भी सुलग ही रहा था । इस व्यर्थ के नाटक को देख सभी असमंजस में पड़े थे , तब तक क्रोधित वेश में महामुनि परशुराम पहुँच गये । धनुष टूटने की आवाज पूरी पृथ्वी पर छा गयी । उसे जानकर क्रोधित मुद्रा में भगु कुल मुनि परशुराम ने यज्ञशाला में पहुँचकर देखा कि बड़ी भीड़ लगी है । विषय से तो अवगत थे ही , किन्तु अनजान की भाँति उन्होंने पूछा यह भीड़ कैसी है ? सारा वृत्तांत जनक जी बता चुके । इधर – उधर झाँकते उन्हें धनुष के दो टुकड़े पड़े हुए जब दिखे तो क्रोध के वश उन्होंने पूछा कि इस धनुष को किसने तोड़ा । अब तो डर के मारे राजा कुछ बोल न पाये । कुटिल राजा अपने मन में खुशी अनुभव करने लगे । सभी देवतागण और नगर के नर – नारी हृदय में भय लिए गंभीर चिन्ता में पड़े । सुनयना पश्चाताप करने लगी । उन्हें लगा कि सारी बात बिगड़ गयी । परशुराम जी के स्वभाव को देख सीता का मन भी दुखित हुआ । समय को देखते हुए तथा सीता को भयभीत जान रामचन्द्र जी ने कहा- हे नाथ ! शंकर जी के धनुष को तोड़ने वाला कोई आपका दास ही होगा । आपकी क्या आज्ञा है कहिए । परशुराम जी क्रोध में बोले सेवक का कार्य है सेवा करना , अगर दुश्मनी करनी है तो हमसे युद्ध करे । जो इस धनुष को तोड़ा है वह सहस्त्रबाहु के समान ही मेरा शत्रु है । उसे इस समाज से निकाल बाहर करो , नहीं तो सारे राजा जान से मारे जायेंगे ।
चौ ० सुनि मुनि वचन लखन मुसकाने । बोले परशु धरहि अपमाने ।।
बहु धनु ही तोरी लरि काई । कवहुं न अस रिस कीन्ह गोसाई ।।
एहि धनु पर ममता केहि हेतु । सुनि रिसिआई कह मृगुकुल केतू ।।
दो ० रे नृप बालक काल वस , बोलत तोहि न संभार ।
धनुही सम त्रिपुरारि धनु विदित सकल संसार ।।
लखन कहा हँसि हमरे जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ।।
का छति लाभ जून धनु तोरे । देखे राम नयन के भोरे ।।
छुअत टूट रधुपतिहि न दोसू । मुनि बिनु काज करिउ अकत रोसू ।।
बोले चितई परशु की ओरा । रे सठ सुनेहि सुमाउ न मोरा ।।
बालक बोलि बधउँ नही तोही । केवल मुनि जड़ जानहि मोही ।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही । विश्व विदित क्षत्रियकुल द्रोही ।।
भुजबल भूमि भूप बिन कीन्ही । विपुलवार महिदेवन्ह दीन्ही ।।
सहसबाहु भुज छेदनिहारा । परशुविलेकु महीप पुकारा ।।
विहसि लखनु बोले मृदुवानी । अहो मुनीस महामट मानी ।।
पुनि – पुनि मोहि देखाव कुठारा । चहत उड़ावन पूँकि पहारा ।।
इहाँ कुम्हर बतिया कोउ नाही । जे तरजनी देखि मरि जाही ।।
देखि कुठार सरासन बाना । मै कछु कहासहित अभिमाना ।।
भृगु सुत सभुझि जनेउ विलोकी । जो कछु कहड सहहुंरिसरोकी ।।
सुर महिसुर हरिजन गरुआई । हमरे कुल उन पर न सुराई ।।
बँधे पाप अपकीरति हारे । मारतहू पा परिउ तुम्हारे ।।
कोटि कुलिस सम बचन तुम्हारा । व्यर्थ धरहु धनु वान कुठारा ।।
परिदृश्य तो बड़ा गम्भीर बन गया । यज्ञशाला क्रोध का अखाड़ा – सा लगा । मुनिवर के अदम्य क्रोध और लक्ष्मण के व्यंग वर्ताव का संगम एक मनोरंजन और हृदय आहलादक स्थिति भी लगी । प्रखर वर्ताव मे कट – मधु का हास – विलास सुनने में रोमांचक भी रहा , उसी बीच ब्राह्मण और क्षत्रिय का प्रत्यालाप कटु – कटाक्ष का आयाम बना । वीरता में अपकीर्ति का सम्पुट सराहनीय तो नहीं था किन्तु वीर रस में व्यंगों की बरसात के साथ सत्यता सुधरता और सत्पात्रता का आख्यान उल्लेखनीय एवं अनुकरणीय रहा ।
इस बीच परशुराम जी का कमी जनक जी से शिकायत तो कभी विश्वामित्र जी से अपेक्षा का एहसास भी होता रहा । इनकी आत्मा पर कटाक्ष करते लक्ष्मण जी को सुने:-
लखन कहेउ मुनि सुयश तुम्हारा । तुमहि अछत को वरनै पावा ।।
अपने मुँह तुम्ह अपनी करनी । वार अनेक भाँति बहु वरनी ।।
नही संतोपु त पुनि कछु कहहु । जनिरिस रोकि दुसह दुख सहहु ।।
वीर ब्रती तुम्ह वीर अछोमा । गारी देत न पावहु सोभा ।।
दोहा सूर समर करनी करहि , कहि न जनावहि आप ।।
विद्यमान रन पाइ रिपु , कायर कथहि प्रताप ।।
तुम्ह तो काल हाँकि जनु लावा । बारबार मोहि लागि बोलावा ।।
सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधारि घरउ कर थोरा ।।
अब जनि देई दोसु मोहि लोगू । कटुवादी बालक वध जोगू ।।
बाल विलोकि बहुत मै बाँचा । अब भहु मरनिहार भा साँचा ।।
कौशिक कहा छमिय अपराधू । बाल दोष गुनगिनइिन साधू ।।
खर कुठार मय अकरुन कोही । आगे अपराधी गुरु द्रोही ।।
उतर देत छोड़उ बिनु मारे । केवल कौशिक शील तुम्हारे ।।
न त एहि काटि कुठार कठौरे । गुरहि उरिन होत श्रम थोरे ।।
परस्पर बातें बढ़ती जा रही थी । कथनानुसार परिणति पार करने वाली थी । तत्क्ष्ण बचाव के प्रयास विश्वामित्र जनक और रामजी किये । वाद विवाद की झड़ी लगी रही । वेष और प्रभाव की भी व्याख्या हुयी । अन्ततः रामजी की मध्यस्थता में कुछ बात बनी । राम के शब्दों में :-
राम कहा मनि कहहु विचारी । रिस अति बढ़ी लघु चूक हमारी ।।
छुअतहि टूट पिनाक पुराना । मैं केहि हेतु करौ अभिमाना ।।
कहहु , सुभाव न कुल ही प्रशंसी । कालहु डर हिन रन रघुवंशी ।।
विप्र वंश में असि प्रभुताई । अनमल होहि जो तुमह डेराई ।।
सुनि मृदु गूढ बचन रघु पति के । उधरे पटल परसुधिर मति के ।।
राम रमापति करधनु लेहू बैंचहु चाप मिटै संदेहू ।
देत चाप आपुहि चलि गयउँ । परशुराम मन विश्मय भयउ ।।
दो ० जाना राम प्रमाउ तब , पुलक प्रफुल्लित गात ।
जोरि पानि बोले वचन , हृदय न प्रेम समात ।।
तब परशुरामजी ने राम की ढर स्तुति की ।
कहौं काह मुख एक प्रशंसा । जय महेश मन मानस हंसा ।।
अनुचित बहुत कहेउँ अज्ञाता । छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता ।।
कहि जय जय जय रघुकुल केतू । मृगुपति गये बनहि तप हेतू ।।