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प्रभाग-10 बाल काण्ड रामचरितमानस

 विख्यात पुलस्त्य कुल में रावण तीनों भाई का जन्म हुआ किन्तु ब्राह्मण के शाप वश वे सब महान पापी हुए । तीनों भाईयों ने विविध प्रकार की कठोर साधना करके ब्रह्मा से भारी वरदान पाये । रावण अपने लिए ऐसा वरदान मांगा कि मानव और बन्दर को छोड़कर उसे कोई मार न सके । कुंभ करण को छ : महीना लगातार सोने का वरदान मिला । विभीषण ने भगवद्भक्ति की मांग की । ब्रह्माजी के देवलोक में लौटने पर मय राक्षस ने अपनी सुन्दरी पुत्री को लाकर रावण को सौपा ऐसा समझकर कि अवश्य ही वह राक्षस का राजा होगा । उसने फिर दो भाईयों की भी शादी कराई ।

 समुद्र के बीच में त्रिकूट नामक पर्वत है , जहाँ ब्रह्मा का बनाया हुआ एक विशाल किला था , उसे फिर से भय राक्षस ने भली प्रकार से स्वर्ण और मणियों से सजा दिया । वह किला नाग लोक की भोगावती और इन्द्र लोक की अमरावती को झूठा करता था जो आज लंका के नाम से माना जाता है । पहले भी उस किले में महान राक्षस योद्धा रहा करते थे । इन्द की प्रेरणा से वहाँ देवताओं ने राक्षसों को मार डाला । अब वहाँ पर इन्द्र की इच्छा से कुवेर के एक करोड लोग रहने लगे । जब ऐसी बात रावण के कान मे पड़ी तो सने सेना के साथ जाकर किला को घेर लिया । अब यक्ष ने रावण की बड़ी अजेय सेना देखी तो प्राण लेकर भाग चला । जब रावण ने उस नगर को धूम फिर कर देखा तो उसे सुख का अनुभव हुआ , सुन्दर भी और शत्रु के प्रवेश के लिए अगभ्य अनुमान कर उसे रावण ने अपनी राजधानी बना ली । उसके वास जितने प्रकार के जैसे राक्षस थे उनमे घरों का बॅटवारा कर सबके सुख के लायक काम किया ।

 एक बार उसने कुवेर पर धावा बोला , उनका पुष्पक विमान जीत लाया । एक बार खेल – खेल में कैलाश पर्वत को उठाकर तराजू जैसा तौलकर खूब प्रसन्न हुआ । सुख , शान्ति , पुत्र , सेना , सहायक , जप , प्रताप , बल , बुद्धि और बड़ाई ये सभी उसके पास नित्य नयी वृद्धि पा रहे थे । उनका भाई कुंभकरण था । जिसके समान योद्धा धरती पर कहीं जन्म न लिया । शराब पीकर छ : माह तक सोया रहता था । जगने पर तीनों लोक में हलचल मच जाता था । यदि वह प्रतिदिन भोजन करता तो संसार ही चौपट हो जाता । युद्ध में उसके जैसा धीर – वीर न थे । रावण का पुत्र मेघनाथ विश्व भर के वीरों में पहला स्थान रखता था । उसका सामना कोई नही कर सकता था । दुर्मुख , अकम्पमान , वजदन्त , धूमकेतू और अतिकाय ऐसे वीर थे जिनमें से एक – एक वीर सारे जगत को अकेले जीत सकते थे । वे आसुरी माया जानते थे । उनमें दया धर्म कुछ भी नहीं था ।

 एक बार रावण अपनी आम सभा में बैठे हुए अपने परिवार के अनगिनत सदस्यों को देख पुत्र , पौत्र , कुटुम्वी और सेवक बहुत से थे । राक्षस की जातियों को भला कौन गिन सके , अपनी सेना को देखकर रावण स्वभाव से ही अभिमानी था , क्रोध में आकर बोला:-

 सुनहू सकल रजनीचर जूथा । हमरे वैरी विवुध वरुधा ।

 ते सम्मुख नही करहि लड़ाई । देखि सकल रिपु जाहि पड़ाई ।।

 

तिनकर मरन एक विधि होई । कहउँ बुझाई सुनह अब सोई ।।

 द्विज भोजन , मख होम सराधा । सक्के जाई करहु तुम बाधा ।।

 

 दो ० छूधाछीन बलहीन सुर सहजहि मिलि हरि आई ।

 तब मरिहउँ कि छारिहउँ भली भाँति अपनाई ।।

 कहा जाता है कि रावण पराक्रमी के साथ पंडित भी था । किन्तु उसके अभिमान में पापवृति कूट – कूट कर भरी थी । वह अपने पुत्र मेघनाथ को बहकाता था । उसने दवताओं से वैर बढ़ाने की शिक्षा दी । कहा कि जो देवता युद्ध में अतिवीर और बलवान हो , जिसे लड़ने का अभिमान हो , उससे युद्ध जीतकर बाँधकर लाओ , पिता का आदेश पाते ही उठकर चला । इस प्रकार सबकों आज्ञा देकर स्वयं गदा उठाकर चल पड़ा । जब रावण चलता था तो धरती हिल जाती थी । उसकी गर्जना और ललकार सुन देवतागण सुमेरु पर्वत की गुफाओं में शरण ली । दशों दिकपालों के लोक खाली दिखे । बार – बार सिंह की तरह गरज – गरजकर देवताओं को गालियाँ तक देने लगा ।

 रन मद मत्त फिरइ जगधावा । प्रति भट खोजत कित हुन पावा ।।

 रवि – शशि पवन वरुण धनधारी । अगिनीकाल जम लव अधिकारी ।।

 

 किन्नर सिद्ध मनुज सद नागा । हठि सवही के पंचहि लागा ।

 ब्रह्म सृष्टि जह लगि तनुधारी , दशमुख वशवर्ती नर नारी ।।

 

 आयस करहू सकल भयभीता । जवहि आई नित चरण विनीता ।।

 वे सभी राक्षसों के समूह बड़े भयानक , पापी और देवताओं को दुख देने वाले थे । असुरों के समूह उपद्रव करते थे और माया से अनकों रुप धारण करते थे । जिस प्रकार से धर्म का समूल नाश हो वैसे ही वेद – विरुद्ध कार्य सभी करते थे । जिन – जिन स्थलों में गौ और ब्राह्मण पाते उन गाँवों में आग लगा देते थे । अच्छा आचरण करते कोई नहीं देखा जाता था । ब्राह्मण , देवता और गुरु की कोई मान्यता नही थी । ब्राह्मण भोजन , पूजा , यज्ञ , श्राद्वादि – सब पर रोक लगा था । कहीं कोई वेद पुराण का पाठ नहीं करता था । अगर कही रावण के वीसों कानों में जप , योग , तप , यज्ञ , वैराग्य और देवताओं का भाग पाने की बात आती तो स्वतः उठकर क्रोध से दौड़कर पीटने लगता । संसार भर में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म की बात कही सुनी नहीं जाती थी । वेद पढ़ने वालों को डराकर देश से निकाल दिया जाता था । राक्षसों द्वारा जो घोर अत्याचार किया जाता था , इतना ही मान लीजिए कि वह कहने लायक नही । जिसे जान से मार देने मे ही खुशी होती हो , उसके पाप का कोई ठिकाना है ? जिस तरह आज सर्वत्र देखा जा रहा है चारों ओर दुष्टजन , चोर , जुआरी , ल्म्पट लुटेरा , पर स्त्री गाामी बढ़ते जा रहे थे । माता – पिता को सम्मान नही , देवता की पूजा पाखण्ड मात्र रह गयी । यहाँ तक कि संतों से सेवा ली जाती थी ।

 शिवजी कहते है कि ऐसा आचरण जहाँ सुना जाता हो वे सभी राक्षस हैं । धर्म की हानि की अति हो गयी । भय से धरती व्याकुल हो गयी । पर्वतों नदियों और समुद्र का भार सहना धरती के लिए जितना भारी नहीं , उससे अधिक धरती पर जीने वालों पर किया जाने वाला अत्याचार भारी पड़ रहा था , किन्तु रावण के भय से कोई बोलन रहा था । यही हालात इस जनतंत्र में आज भी होता नजर आ रहा है । अन्त में असहय होने पर धरती गौ का रुप धारण कर वहाँ पहँची जहाँ सब देवता और मुनि छिपे थे । पृथ्वी ने रोकर उनको अपना सारा कष्ट सुनाया परन्तु किसी से कुछ काम न बन पाया , तब ब्रह्मा जी श्री विष्णु जी का स्मरण कर बोले हे धरती मन में धीरज धारण कर के श्री हरि का स्मरण करे । प्रभु अपने दासों की पीड़ा अवश्य ही समझते हैं । वे ही तुम्हारी दारुण पीड़ा को हरेंगे । ऐसा सुनकर वहाँ छिपे बैठे देवतागण विचार करने लगे । कहाँ पर प्रभु को पाउँ कि उन्हें पुकारु किसी ने कहा कि वैकुन्ठपुरी में देखा जाय तो कोई क्षीर सागर में जाकर देखने की बात कही । आज भी जो भारत की दुर्दशा छठी शताब्दी के बाद से देखी जा रही है यह कलियुग का परिदृश्य वैसा ही है जैसा जिसके हृदय में प्रेम भाव पनपता है वहाँ पर ही भगवान प्रकट हो जाते है । यह सदा की रीति रही है । शंकर जी ने पार्वती जी से कहा कि वहाँ पर मैं भी ठहरा हुआ था । समय पाकर मैंने एक विचार रखा । भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं । वे प्रेम से भी प्रकट होते है । देश , विदेश , काल और दिशाओं में कहाँ नहीं भगवान है ? जैसे लकड़ी में ही अग्नि व्याप्त है किन्तु घर्षण के ही विधान से अग्नि उसमें प्रकट होती है । वैसे ही प्रभु सचराचर जगत में सर्वत्र व्याप्त होने के कारण सबसे विरक्त अवश्य हो जाते है किन्तु वे प्रेम से प्रकट होते हैं । यह बात सबों को पसन्द आयी । ब्रह्माजी ने भी इसकी सहारना की ।

 शंकर जी की बात पर ब्रह्माजी हर्ष से पुलकित हो गये । उनकी आँखों से प्रेमाश्रु वह चले फिर धीर बुद्धि ब्रह्माजी ने सावधान हो हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे ।

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