प्रभाग-09 बाल काण्ड रामचरितमानस
इस कथा में कैकेय देश के राजा सत्यकेतु का आख्यान है । सत्यकेतु धर्मात्मा , नीति परापण , अति पराक्रमी और शील सम्पन्न थे । उनके दो पुत्र भानु प्रताप और अरिमर्दन थे । ज्येष्ठ पुत्र भानुप्रताप राज्य के उत्तराधिकारी बने । छोटे अरिमर्दन भुजवल से संग्राम में अविचल थे । दोनों भाईयों में अविचल प्रेम था । राजा सत्यकेतू ने बड़े पुत्र को राज्य देकर स्वयं वनवास लिए ।
जब भान प्रताप राजा हो गये तो उस देश की दुहाई लौट गयी । वैदिक विधानानुसार राज काज चलने लगा । पाप का कही लेश न रहा । राजा के पास शुक्राचार्य के समान धर्म रुचि नाम का एक सब प्रकार से हितकारी मंत्री मिला । चुतर मंत्री और स्वतः तथा भाई भी बलशाली पराक्रमी और रणधीर थे । विश्व विजय की दृष्टि से वैसी ही सेना तैयार किये । समय पाकर यद्ध का उद्घोष हुआ । सातों महाद्वीपों को अपने अधीन कर उनसे दण्ड वसूलकर छोड़ दिये । उस समय पृथ्वी पर एक ही राजा भानुप्रताप रह गये । सम्पत्ति विश्व पर कब्जा कर अपने निवास पर पहुँच कर धर्म , अर्थ , काम आदि सुख का समयानुसार उपयोग करते रहे । उनका सारा राज्य सजा सॅवारा और प्रजा खुशहाल रहने लगी । वेद पुराणों में जिनकी चर्चा है उन एक – एक यज्ञ को सौ सहस्त्र वार अनुष्ठान किया गया ।
एक बार राजा सन्दर घोड़े पर सवार होकर विन्ध्याचल पर्वत के गम्भीर वन में मृग का शिकार के लिए गये । वहाँ अनेकों मृग का शिकार किया । जंगल में घूमते हुए राजा को एक सूअर दिखा । उसके सफेद सुन्दर दाँत बाहर इस प्रकार दिख रहे थे मानो राहू ने चन्द्रमा को ग्रस लिया हो , वह पूर्ण चन्द्रमा नहीं निगल पाया हो , क्रोध के कारण छोड़ भी न सका है । उसका विशाल काला शरीर था । घोड़ा की आजाज सुन वह सूअर कान खड़ा किये हुए था । काले पहाड़ के शिखर के समान उस सूअर को देख चाबुक मारकर घोड़ा को आगे बढ़ाना सम्भव न हुआ । जब घोड़े की आवाज सुनी तब सूअर भाग चला । ऐसे घने जंगल में जहाँ घोड़े हाथी घुस नहीं सकते थे निराश होकर जब वाण चलाया तो द्रुत गति से भागा और वाण से बचने के लिए भूमि में छिपा लिया । इस प्रकार छिपते – छिपाते राजा को परेशान कर डाला । वह एक गहन गुफा में प्रवेश कर गया । राजा को रहना वहाँ कठिन था । भूख – प्यास और थकान से पीड़ित राजा जब लौटना चाहे तो मार्ग भूल गये । नदी तालाब को खोजते हुए प्यास से व्याकुल हो गये । चलते – चलते एक आश्रम मिला । जिसमें एक मुनि का वेष धारण किये व्यक्ति को देखा । वह उन्हीं राजाओं मे से एक था जो राज्य छिन जाने पर जंगल में वेश बदल कर छिपा था । वह युद्ध क्षेत्र से घर नहीं लौटा क्योंकि वह ग्लानि झेलना नही चाहता था । क्रोध को छिपाकर वह राजा जंगल में तपस्वी का वेष बनाकर रहने लगा था । जैसे ही उस कुटिया के पास राजा भानु प्रताप पहुँचे कि कपटी मुनि उन्हें पहचान लिया । राजा उसे पहचान नहीं सके । वेष देखकर महान साधु मान लिए । घोड़ा से उतर कर प्रणाम किया किन्तु चतुराई वश अपना नाम न बताया । कपटी मुनि ने उन्हें प्यासा जानकर सरोवर दिखलाया । घोड़ा सहित राजा ने सरोवर में स्नान और जलपान किया । थकान मिटने पर तपस्वी राजा को अपने आश्रम में ले गया । सूर्यास्त होते जानकर उन्हें आसन दिया । मीठी वाणी में पूछा कि आप कौन हैं और किस कारण वन में विचर रहे है । आपको अकेले देख मुझे दया आ रही है । आप तो चक्रवर्ती राजा से लगते हैं ।
राजा ने कहा भानुप्रताप नामक एक राजा है जिसका मैं मंत्री हूँ । शिकार के लिए घूमते हुए राह भूल गया हूँ । बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके दर्शन किया है । आपका दर्शन मुझे होता कहाँ , लेकिन कुछ अच्छा होने वाला है ऐसा मुझे जान पड़ता है । मुनि ने कहा कि रात हा गयी । आपका घर यहाँ से सत्तर जोजन है । रात अंधरी , फिर घने जंगल , रास्ता नहीं , इसलिए रात में यहाँ ठहर जायें , सबरा होने पर चले जाइएगा दोनों में बातें होती रही । आपस का परिचय राजा मुनि से जानना चाहे । मुनि तो छद्मवेषी था । एक तो शत्रु , दूजे क्षत्रिय , फिर राजा होने का पूर्व का शोक उसमें क्रोधाग्नि बनकर छिपा था किन्तु वह अपना बदला साधने के लिए क्रोध छिपाकर सुन्दर वचन और हित की बातें करता था । कपटी मुनि तो राजा को भली भाँति पहचान चुका था , सिर्फ राजा उसे नहीं पहचान पाया । किन्तु राजा भी पूरी तरह सावधान थ । आपस में संवाद प्रीति तथा क्षद्म का अनोखा समन्वय झलक रहा था । मुनि की बातों पर राजा को पूर्ण विश्वास जम रहा था । मुनि ने बताया कि अपने गुरु की कृपा से ज्ञान , शील और तपवल पा चुका हूँ । राजा उनसे जो चाहें , याचना कर सकते है । नाम पूछने पर वह छिपा दिया , जब उस नाम का अर्थ पूछा गया तो बड़ी चातुरी से उसने अपने को आदि सृष्टि का पहला आदमो बतलाया ” एक तनु ” अर्थात इतने कल्पों के बाद भी वह दूसरी योनि नहीं पाया । जंगल में निवास होने से उसे दूसरों से कभी सम्पर्क भी नहीं हो सका था । इस प्रकार गढ़ी बनाई बातों में राजा विश्वास कर याचना किया कि ।
जरा मरन दुख रहित तनु , समर जितै जनि कोउ ।
एक छत्र रिपुहीन महि , राज कलप सत होउ ।।
कपटी मुनि ने कहा – जैसा चाहते हो वैसा ही होगा ।
ब्राह्मण कुल को छोड़कर काल तक भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवायेगा , सिर्फ यह चर्चा किसी छठे कान तक न जाये ।
तपबल विप्र सदा वरिआरा तिन्हके कोप न कोउ रखवारा ।।
जो विप्रन्हवस करहुँ नरेसा । तौ तुअ वस विधि विष्णु महेसा ।।
चलन ब्रह्म कल सन बरिआई । सत्य कहउ दोउ मुजा उठाई ।।
विप्र शाप विन सुनु महिपाला । तोर नास नहि कवनेउ काला ।।
राजा मुनि की बातों मे आकर प्रसन्न हो गया और बोला अब बझाइए कि किस प्रकार विप्र हमा खश में होंगे , कृपाकर वह भी बताइए । मुनि ने कहा कि संसार में बहुतेरे साधन है किन्तु कष्ट साध्य भी है , उनमें भी एक सुगम उपाय है , उसमें भी एक कठिनाई है । वह युक्ति मेरे पास है किन्तु मुझे तेरे घर पर जाना होगा । अब तक मैं किसी के घर पर नहीं गया । अगर मैं नही जाऊँगा तो तुम्हारा कार्य सफल नही हो पायेगा । राजा ने विश्वास दिलाया तो वह कहा कि तुम्हारे लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं । मैं तुम्हारा सारा कार्य संभाल लूँगा । योग , युक्ति तप और मंत्र क प्रभाव तब ही फलता है जब वह छिप कर किया जाय । मुनि ने राजा से कहा कि यदि मैं रसोई बनाऊँ और तुम परोसों । मुझको कोई न जाने तो उस अन्न को जो – जो खायेगा वह तुम्हारा आज्ञाकारी बन जायेगा । इतना ही नहीं , उस भोजन करने वाले के घर जाकर भी जो भोजन करेगा , वह भी तुम्हारे अधीन हो जायेगा । जाकर यही उपाय करो और वर्ष भर भोजन कराने का संकल्प करो । नित्य नये एक लाख ब्राह्मणों को परिवार सहित निमंत्रित करना । मैं तुम्हारे संकल्प के अनुसार एक वर्ष तक भोजन बना दिया करूँगा । लेकिन मैं इस वेश में तुम्हार घर पर नही आऊँगा । मैं तुम्हारे पुरोहित को हर कर ले आऊँगा , वर्ष भर अपने पास रख कर तपवल से मैं उसे अपने समान बना दूंगा और उसके वेश में मैं तुम्हारे घर पर आकर सारा कार्य संभाल लूँगा ।
ऐसा समझाकर मुनि ने कहा कि अब बहुत रात बीत गयी । जाकर सोइए । मैं सवेरा होने के पूर्व सोते में ही आपको घर पहुँचा दूंगा । थका हुआ राजा गहरी नींद में सो गया । कपटी मुनि रात भर जगा बैठा विचार करता रहा । उस सूअर को जिसका नाम कालकेतू था और राजा को जंगल में भटकाया था , उसे बुलाया । वह मुनि का मित्र था और भरपूर छल – बल जानता था । उसे 100 पुत्र और 10 भाई थे । वह अजेय था । ब्राह्मण , सन्त और देवताओं को कष्ट पहुँचाता था । उससे दुखी होकर राजा ने पहले ही उन्हें युद्ध में मार डाला था । उस पिछले वैर को याद कर दष्ट ने षड़यंत्र रचा । भावीवश प्रताप भान इस योजना को समझ न पाया । तेजस्वी शत्रु अगर अकेला भी हो तो उसे अकेला और कमजोर नहीं समझा जाय । कपटी मुनि पूर्ण भरोसा दिलाकर अपना षड़यंत्र साधने में जुड़ा रातो रात मायावी मुनि राजा को घर पहुँचाकर उसे विछावन पर सोये हुये डाल दिया । घोड़े को घोड़ साल में बाँध दिया और राजा के पुरोहित को हर लाया । उसे पहाड़ के कन्दरा में लाकर छिपा रखा । उस पुरोहित के वेश में कपटी मुनि जाकर उसके सेज पर सो गया । इतना अगाहकर दिया कि राजा से जब चर्चा हो तो बस वह समझ जाय कि उसका शुभ चिन्तक मुनि वही है । योजनानुसार सब कुछ तैयार हो गया । ब्राह्मण निमंत्रित किये गये । जेवनार लगी तो खाते समय आकाशवाण हुयी :-
विप्र वृन्द उठि – उठि गृह जाहूँ । है बड़ि हानि अन्न जनि खाहूँ ।।
मृग मांस जो भोजन के लिए बना था , उसमें ब्राह्मण को मारकर उसका मांस मिला दिया गया था । सारे ब्राह्मण उठ गये । क्रोध में बिना विचारे शाप दे दिये- “ अरे मूर्ख राजा , तुम सपरिवार राक्षस हो जा । एक वर्ष के अन्दर तुम्हारा नाश हो जाय । कोई पानी देने वाला न रहे । “
फिर दूसरी आकाशवाणी हुई । ब्राह्मणों ने बिना विचारे शाप दे दिया । राजा का कोई अपराध नहीं था । ब्राह्मणों ने भी वह भविष्यवाणी सुनी । आश्चर्य चकित राजा जब रसोई घर में पहुँचे तो वहाँ न रसोई था न वह पुरोहित । तब वह सारा प्रसंग राजा ने ब्राह्मणों को बतलाया । विप्र बोले- हे राजन यदि तुम्हारा दोष नहीं हो और न रसोईया ब्राह्मण था । राजा लौटकर व्याकुल हो पृथ्वी पर गिर पड़े । ऐसे राजा को देवता होना चाहिए , जिसे राक्षस होना पड़ा ।
इस घटना के बाद असुर कालकेतु ने पुरोहित को गिरिगुफा से निकालकर घर पहुँचा दिया और तपस्वी को इसकी जानकारी दी । राजा सत्यकेतू के दोनों पुत्रों द्वारा जितने राजाओं को पराजित किया गया और राज्य से बेघर किया गया था उन्हें उस दुष्ट मुनि ने खबर की । सभी अपनी – अपनी सेना लेकर सत्यकेतू के राज्य पर आक्रमण किया । घमासान लड़ाई में दोनों भाई प्रतापभान और अरिमर्दन मारे गये । सत्यकेतू के कुल में कोई जीवित न बचा । अपने शत्रु की समाप्ति के बाद सभी राजाओं ने अपने नगर बसाये । इस प्रकार ऋषि याज्ञवल्क्य ने भारद्वाज जी से कहा- जब जिस पर विधाता वाम होते हैं उसके लिए धूल कण भी भारी लगते हैं । पिता यमराज के समान काल रुप और रस्सी साँप की तरह काट खाने वाली लगती है । हे मुनि ! वही राजा समय पर जाकर रावण बना और उसका भाई अरिमर्दन कुंभकरण । उसका सचिव धर्मरुचि रावण की विमाता के गर्भ से छोटा भाई विभीषण जन्म लिया । और जितने पुत्र और सेवक थे सभी राक्षस हुए ।